आज किसान आंदोलन ने एक ऐसा मोड़ ले लिया है, जो न सिर्फ राजनीति या सार्वजनिक जीवन से जुड़े लोगों के लिए, बल्कि आम लोगों के लिए भी चिंता की बात है. ऐसा नहीं है कि यह आंदोलन अप्रत्याशित है, क्योंकि नरेंद्र मोदी ने अपने चुनावी भाषणों में यह वादा किया था कि वे किसानों को एक ऐसा न्यूनतम समर्थन मूल्य देंगे, जो उनकी लागत से 50 फीसदी अधिक होगा. सत्ता संभालने के बाद उन्हें एहसास हुआ कि यह संभव नहीं है. सरकार के पास इतने पैसे नहीं हैं. बाद में उन्होंने यह भी घोषणा की कि किसानों की आमदनी दोगुनी हो जाएगी.
आज किसान त्रस्त हैं, गरीब हैं, बहुत दबाव में हैं. उनके साथ भद्दा मजाक करना देशहित में नहीं है. किसान की समस्याओं को हल करने के लिए क्या करना चाहिए? सबसे पहले तो किसान की समस्याओं को समझने की जरूरत है. उसके पास जो अनाज होता है, उसके भंडारण के लिए जगह चाहिए. यातायात चाहिए, ताकि अनाज मंडी तक पहुंच सके. मंडी में उसका सही दाम मिलना चाहिए. सरकार के पास इस तरह की कोई व्यवस्था नहीं है. आज किसानों की आवाज सरकार तक नहीं पहुंचती हैं. औद्योगिक घराने के पास तो फिक्की, एसोचैम और चैम्बर ऑफ कॉमर्स हैं, जो दबाव बना लेते हैं. लेकिन अगर देश का दीर्घकालीन भविष्य ठीक रखना है, तो ग्रामीण इलाके ठीक होने चाहिए.
पिछले दिनों किसानों के दिल्ली कूच को लेकर खबर आई. सरकार किसानों के इस आंदोलन से निपटने में एक बार फिर असफल रही. सरकार को सोचना चाहिए कि भारत एक कृषि प्रधान देश है और अगले कई साल तक कृषि प्रधान ही रहेगा. एक नीति, जो पिछली सरकार ने शुरू की थी और ये सरकार भी आगे बढ़ाना चाहती है, वह यह है कि 80 करोड़ लोगों को ग्रामीण इलाकों से शहरी इलाके में लाने की बात की जा रही है. मैं समझता हूं कि यह बहुत ही महत्वाकांक्षी योजना है और इतनी जल्दी ये क्रियान्वित नहीं हो पाएगी.
किसानों की हालत है बहुत ही खराब है. प्रधानमंत्री कहते हैं कि वे किसानों की आमदनी दोगुनी कर देंगे. उनके कृषि मंत्री भी यही कहते हैं. किसानों की आमदनी दोगुनी करने के दो तरीके हैं. पहला, उनकी उत्पादकता दोगुनी हो जाए, लेकिन यह संभव नहीं है. जितनी जमीन है, उसमें 10-20 प्रतिशत का इजाफा हो सकता है, जमीन तो दोगुनी नहीं हो सकती. दूसरा है, मिनिमम सपोर्ट प्राइस. उसमें सरकार इजाफा कर सकती है. आजकल खबरें आती हैं कि किसान ने आत्महत्या कर ली या राज्य सरकारों ने ऋृण माफ कर दिया. लेकिन जब तक हमलोग मूलभूत समस्याओं का समाधान नहीं ढूंढ़ेंगे, इस सबसे कुछ नहीं होने वाला है.
आज किसान त्रस्त हैं, गरीब हैं, बहुत दबाव में हैं. उनके साथ भद्दा मजाक करना देशहित में नहीं है. किसान की समस्याओं को हल करने के लिए क्या करना चाहिए? सबसे पहले तो किसान की समस्याओं को समझने की जरूरत है. उसके पास जो अनाज होता है, उसके भंडारण के लिए जगह चाहिए. यातायात चाहिए, ताकि अनाज मंडी तक पहुंच सके. मंडी में उसका सही दाम मिलना चाहिए. सरकार के पास इस तरह की कोई व्यवस्था नहीं है. आज किसानों की आवाज सरकार तक नहीं पहुंचती हैं. औद्योगिक घराने के पास तो फिक्की, एसोचैम और चैम्बर ऑफ कॉमर्स हैं, जो दबाव बना लेते हैं. लेकिन अगर देश का दीर्घकालीन भविष्य ठीक रखना है, तो ग्रामीण इलाके ठीक होने चाहिए.
युवा वर्ग को नौकरी मिलनी चाहिए. जमीन सीमित है. एक परिवार में जैसे ही पीढ़ी बढ़ती है, जमीन बंटती जाती है. इसलिए जरूरी है कि कृषि से जुड़े उद्योग और लघु उद्योग बढ़ें, ताकि लोग नौकरी पा सकें. प्रधानमंत्री बयान देते हैं कि मैं चाहता हूं कि नौकरी मांगने की जगह आप लोगों को नौकरी दें. जॉब सीकर की जगह लोग जॉब गीवर बनें. यह जुमला ही हो सकता है. जो आदमी खुद नौकरी ढूंढ़ रहा है, आज सोच रहा है कि वो कोई इकाई खोलकर नौकरी देगा. बहुत अच्छी सोच है, करिए.
लेकिन मौजूदा स्थिति को भी समझिए. यूरोप या अमेरिका जैसे देशों का समाधान भारत में भी काम कर जाए, जरूरी नहीं है. मैं नहीं कहता कि सिर्फ कृषि से देश का विकास हो जाएगा, उद्योग भी खोलिए. लेकिन जब तक आप तत्कालीन समस्याओं का निदान नहीं करेंगे, लोगों में रोष बढ़ता जाएगा. चुनावों में क्या होता है, क्या नहीं होता है, उससे मुझे कोई मतलब नहीं है. हर पांच साल में देश नए सिरे से तो शुरू नहीं हो सकता. देश जैसे चलता है, आगे भी चलेगा.
आज किसान आंदोलन ने एक ऐसा मोड़ ले लिया है, जो न सिर्फ राजनीति या सार्वजनिक जीवन से जुड़े लोगों के लिए, बल्कि आम लोगों के लिए भी चिंता की बात है. ऐसा नहीं है कि यह आंदोलन अप्रत्याशित है, क्योंकि नरेंद्र मोदी ने अपने चुनावी भाषणों में यह वादा किया था कि वे किसानों को एक ऐसा न्यूनतम समर्थन मूल्य देंगे, जो उनकी लागत से 50 फीसदी अधिक होगा. सत्ता संभालने के बाद उन्हें एहसास हुआ कि यह संभव नहीं है. सरकार के पास इतने पैसे नहीं हैं. बाद में उन्होंने यह भी घोषणा की कि किसानों की आमदनी दोगुनी हो जाएगी. मुझे नहीं मालूम कि उनके सलाहकार कौन हैं, लेकिन वे अर्थशास्त्री नहीं होंगे, क्योंकि ये ऐसे वादे हैं जिन्हें पूरा करना असंभव है. भारत के साथ एक अच्छी बात यह है कि यहां आम आदमी, किसान और मजदूर संभावनाओं की सीमा के अंदर रहकर काम करने के लिए तैयार रहते हैं.
बहरहाल, सरकार की अपनी बाध्यताएं होती हैं. यह भी समझ में आने वाली बात है कि मोदी 2014 में चुनाव जीतना चाहते थे, लेकिन फिर उन्होंने साल-दर-साल ऐसे वादे क्यों किए? स्वाभाविक रूप से इससे नाराज़गी बढ़ेगी, लोगों में निराशा पैदा होगी और अशांति फैलेगी. भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर भी मानते हैं कि क़र्ज़मा़फी की मांग बेकाबू हो जाएगी. ये बहुत ही गंभीर आर्थिक मसले हैं. जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली सरकारों को यह श्रेय देना चाहिए कि यह जानते हुए कि लोकप्रिय योजनाओं से वोट हासिल किया जा सकता है, उन्होंने लोगों की उम्मीदों को कभी इतना नहीं बढ़ाया, जो हिंसा और अशांति का कारण बनें. वे ज़िम्मेदार नेता थे और जानते थे कि कोई भी लक्ष्य हासिल करने की एक सीमा होती है.
फिलहाल, प्रधानमंत्री को एक सर्वदलीय बैठक बुलानी चाहिए या कम से कम भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलानी चाहिए और कोई ऐसा फॉर्मूला तलाशना चाहिए जो व्यावहारिक हो. केवल विपक्ष को नज़रअंदाज़ करने की कोशिश से कोई नतीजा नहीं निकलेगा. यदि किसानों का विरोध प्रदर्शन जारी रहता है, तो देश की मुश्किलें और बढ़ जाएंगी. वहीं किसानों को भी नुकसान उठाना पड़ेगा. बेशक सरकार इसके लिए किसानों को जिम्मदार ठहरा सकती है, लेकिन केवल ज़िम्मेदारी मढ़ देने से समस्या का समाधान नहीं हो सकता है. लोगों ने शासन चलाने के लिए सरकार को चुना है. यदि सरकार शासन नहीं चला सकती है, तो यह बहुत दुखद स्थिति है. जितनी जल्दी सरकार कृषि क्षेत्र की मूलभूत समस्याओं की ओर ध्यान देगी, उतना ही बेहतर होगा.