- किसानों को भीख है गन्ना मूल्य में 10 रुपए की बढ़ोत्तरी
- उत्तर प्रदेश में जारी है धरना प्रदर्शन और गन्ने की होली
- निर्णायक आंदोलन के लिए यूपी से दिल्ली तक चल रहा बैठकों का क्रम
- किसान संगठनों में व्यापक एकता की पहल, राजनीति से कर रहे परहेज़
- किसानों की मांग ः पूर्वांचल को विशेष आर्थिक पैकेज दो या प्रांत अलग करो
- ़फसल की लागत का डेढ़ गुना समर्थन मूल्य तय कराने पर किसान आमादा
- किसानों ने कहा, इस बार मांगें नहीं मानीं तो भाजपा को नहीं देंगे वोट
- खून के आंसू रो रहे हैं आलू पैदा करने वाले किसान
गन्ना मूल्य में 10 रुपए की बढ़ोत्तरी किसानों के साथ क्रूर मजाक है. ऐसा करके प्रदेश के किसानों को चिढ़ाया गया है. प्रदेश की हालत यह है कि चीनी मिल मालिक गन्ना किसानों का पैसा नहीं दे रहे हैं और सरकार उन्हें राहत पर राहत दिए जा रही है. चीनी मिलों को बिना ब्याज का अरबों का राहत पैकेज मिलता है, यानि, गन्ना किसानों के बकाये का जो भी थोड़ा-बहुत भुगतान हो रहा है, वह सरकार ही परोक्ष रूप से दे रही है.
-शिवाजी राय, अध्यक्ष, गन्ना किसान संघर्ष मोर्चा
आज की सबसे बड़ी जरूरत किसानों को उपज का सही मूल्य मिलने की है. बाजार की ताकतों की साजिश है कि पैदावार बाजार में आते ही दाम इतने कम कर दिए जाते हैं कि किसान उन्हें सड़कों पर फेंकने को मजबूर हो जाते हैं. किसान अगर इस शिकंजे से निकल जाएं तो उन्हें उनकी उपज का बेहतर मूल्य मिल सकता है. इसके लिए स्थानीय स्तर पर अनाज के भंडारण की व्यवस्था और उसे सही कीमत पर बेचने की सुविधा सुनिश्चित करनी होगी.
-संतोष भारतीय, प्रधान संपादक, चौथी दुनिया
किसानों को लागत का दो गुना मूल्य मिलना चाहिए, लेकिन मोदी ने जो घोषणा की और जो वादा किया उसे ही वे लागू करें. उत्तर प्रदेश में भाजपा सरकार बनने के बाद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने किसानों की बदहाली दूर करने का वादा किया था. कैबिनेट की पहली बैठक में ही आलू का समर्थन घोषित करने के साथ ही सरकार द्वारा आलू खरीदने का ऐलान किया था. लेकिन इस घोषणा का जमीनी स्तर पर कोई पालन नहीं हुआ. नतीजतन किसानों ने सैकड़ों बोरे आलू सड़कों पर फेंक दिए. किसानों का कहना है कि आलू से उतना भी पैसा नहीं मिल रहा जिससे कोल्ड स्टोरेज में रखने के लिए एक बोरी खरीदी जा सके. यह कितनी बड़ी विडंबना है कि एक बोरी बचाने के लिए किसान आलू फेंक दे रहे हैं. सरकार की नीतियों से किसान परेशान हैं.
-विनोद सिंह, राष्ट्रीय अध्यक्ष, राष्ट्रीय किसान मंच
उत्तर प्रदेश में जुझारू किसान आंदोलन की चिंगारी सुलग रही है. गन्ना मूल्य में 10 रुपए की बढ़ोत्तरी करके उत्तर प्रदेश सरकार ने यूपी के किसानों को और भड़का दिया है. आलू, गेहूं और धान खरीद के नाम पर योगी सरकार की धोखाधड़ी से प्रदेश के किसान पहले से बेहाल और नाराज थे, उस पर गन्ना मूल्य के नाम पर किसानों के साथ मजाक कर सरकार ने मामले को अत्यंत गंभीर बना दिया है. जगह-जगह गन्ने फूंके जा रहे हैं और आलू सड़कों पर फेंके जा रहे हैं. यूपी के किसान संगठनों के साथ देशभर के किसान संगठन बैठकें कर रहे हैं और इन सबकी कोशिश है कि यूपी का किसान आंदोलन इस बार ठोस परिणाम लेकर ही माने. इस बार के किसान आंदोलन का हश्र महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश या राजस्थान की तरह न हो. भाजपा सरकार ने जिस तरह महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और राजस्थान के किसान आंदोलनों की जड़ में मट्ठा डाला, इस बार उससे सतर्क रहने की जिद है. कई राजनीतिक दलों से जुड़े किसान संगठनों ने यूपी में शुरू किए जाने वाले किसान आंदोलन को राजनीति से अलग रखने का संकल्प लिया है. सब यह मान रहे हैं कि राजनीति बहुत हो गई, अब ठोस परिणाम की लड़ाई जरूरी हो गई है. यूपी की राजधानी लखनऊ से लेकर देश की राजधानी दिल्ली तक बैठकों का सिलसिला चल रहा है. दिल्ली में किसानों का जन-संसद आयोजित करने की जोरदार तैयारी चल रही है.
अभी हाल-हाल तक गन्ना मूल्य साढ़े तीन सौ रुपए और चार सौ रुपए किए जाने की मांग करती रही भाजपा ने सत्ता पर सवार होते ही ऐसे उड़ान भरनी शुरू कर दी कि उसे जमीन का एहसास ही नहीं रहा. प्रदेश के गन्ना विकास मंत्री सुरेश राणा ने पिछले दिनों बाकायदा प्रेस कॉन्फ्रेंस बुला कर गन्ना मूल्य में 10 रुपए की बढ़ोत्तरी करने की हास्यास्पद घोषणा की. ये वही सुरेश राणा हैं जो विधानसभा में यह मांग उठाते रहे हैं कि गन्ना मूल्य चार सौ रुपए प्रति क्विंटल किया जाए. समाजवादी पार्टी की सरकार ने जब गन्ना मूल्य की घोषणा की थी तब थाना भवन के भाजपा विधायक सुरेश राणा ने उसे किसानों के साथ धोखा बताया था और सरकार से चार सौ रुपए प्रति क्विंटल गन्ना मूल्य घोषित करने की मांग की थी. राणा के सुर में सुर मिलाते हुए शामली के भाजपा विधायक पंकज मलिक ने भी विधानसभा में गन्ना मूल्य का मुद्दा उठाकर सपा सरकार को आड़े हाथों लिया था और गन्ना मूल्य कम से कम साढ़े तीन सौ से चार सौ रुपए प्रति क्विंटल करने की मांग की थी. सुरेश राणा ने सपा सरकार को खूब कोसा था और उसे किसान विरोधी बताया था.सत्ता मिलते ही नेता के सुर कैसे बदलते हैं, सुरेश राणा की गन्ना विकास मंत्री के रूप में की गई घोषणा, इसका सटीक उदाहरण है. जब तत्कालीन सपा सरकार ने 2016-17 के पेराई सत्र के लिए गन्ना मूल्य में 25 रुपए प्रति क्विंटल की बढ़ोत्तरी की थी, तब भाजपा ने इसपर नाराजगी जताते हुए कहा था कि इससे फसल की लागत भी नहीं निकल पा रही है. भाजपा ने चीनी के बढ़े दामों के सापेक्ष गन्ना मूल्य निर्धारित करने की मांग की थी. तब इन्हीं सुरेश राणा (जो आज प्रदेश के गन्ना विकास राज्य मंत्री हैं) ने कहा था कि गन्ना मूल्य में 25 रुपए की बढ़ोत्तरी किसानों के साथ धोखा है. राणा ने विधानसभा में 2011 में बसपा शासनकाल के दरम्यान शिवपाल यादव द्वारा गन्ना मूल्य 350 रुपए किए जाने की मांग का हवाला देते हुए सपा शासनकाल को आड़े हाथों लिया था और कहा था कि सपा सरकार किसान विरोधी है. सुरेश राणा के हास्यास्पद और फूहड़ व्यवहार से प्रदेश के लोगों को यह समझ में आ गया कि असल में कौन किसान विरोधी है.
क्रूर मज़ाक़ है 10 रुपए की बढ़ोत्तरी
उल्लेखनीय है कि यूपी में गन्ने का राज्य परामर्शित मूल्य (एसएपी) वर्ष 2011 से लेकर 2015 तक 280 रुपए था. आखिरी दौर में सपा सरकार ने एसएपी में 25 रुपए की बढ़ोत्तरी कर उसे 315 रुपए प्रति क्विंटल किया था. उसे भाजपा ने धोखा बताया था. वर्ष 2014 से लेकर यूपी के विधानसभा चुनाव तक प्रधानमंत्री मोदी ने किसानों से कई बार वादा किया कि स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट शीघ्र लागू की जाएगी और किसानों को उनकी फसल की लागत का डेढ़ गुना मूल्य निर्धारित किया जाएगा. लेकिन मोदी ने इसे लागू नहीं किया. किसानों को एकजुट करने में लगे राष्ट्रीय किसान मंच के राष्ट्रीय अध्यक्ष विनोद सिंह कहते हैं कि किसानों को लागत का दो गुना मूल्य मिलना चाहिए, लेकिन मोदी ने जो घोषणा की और जो वादा किया उसे ही वे लागू करें. सिंह कहते हैं कि गन्ना का सम्मानजनक और पोषणीय समर्थन मूल्य घोषित करने के नाम पर सरकार ‘लीचड़बाजी’ करती है, चीनी बाजार में महंगी बिकती है लेकिन गन्ना कौड़ियों में खरीदा जाता है. यह तो सीधा-सीधा मानवाधिकार हनन है. सरकार खुद किसानों को आत्महत्या करने के लिए विवश करती है, उकसाती है. जब तक कच्चा माल और उत्पाद के लाभ का बंटवारा बराबर नहीं किया जाएगा, तब तक किसानों की स्थिति नहीं सुधरेगी. ऐसा करने में सरकार को परेशानी क्या है? यह सरकारों का षडयंत्र है कि कच्चा माल मुहैया करने वाला किसान लागत मूल्य नहीं पाता और उसी के माल से व्यापारी और बिचौलिया मालामाल होता रहता है. दूसरी तरफ सरकार किसानों के लिए सब्सिडी भी कम करती जा रही है. कर्ज माफी की सरकारी घोषणाएं समस्या का समाधान नहीं हैं, बल्कि वह और नासूर की तरह किसानों को ग्रसता जा रहा है.
इन्हीं मुद्दों पर विचार करने और किसानों को जागरूक और सतर्क करने के लिए राष्ट्रीय किसान मंच ने बीते 16 से 18 सितम्बर तक वाराणसी में तीन दिवसीय राष्ट्रीय किसान परिसंवाद का आयोजन किया था. इस परिसंवाद में शरीक हुए ‘चौथी दुनिया’ के प्रधान संपादक संतोष भारतीय ने भी कहा था कि आज की सबसे बड़ी जरूरत किसानों को उपज का सही मूल्य मिलने की है. बाजार की ताकतों की साजिश है कि पैदावार बाजार में आते ही दामइतने कम कर दिए जाते हैं कि किसान उन्हें सड़कों पर फेंकने को मजबूर हो जाते हैं. किसान अगर इस शिकंजे से निकल जाएं तो उन्हें उनकी उपज का बेहतर मूल्य मिल सकता है. इसके लिए स्थानीय स्तर पर अनाज के भंडारण की व्यवस्था और उसे सही कीमत पर बेचने की सुविधा सुनिश्चित करनी होगी. पंचायत और ब्लॉक स्तर पर खाद्य प्रसंस्करण इकाइयों और अन्य कृषि उद्योगों की स्थापना बेहद जरूरी है, जो सरकार की मदद के बिना भी हो सकती हैं. लेकिन इसके लिए एकजुट पहल करनी होगी. श्री भारतीय ने कहा कि दरअसल मर्म पर चोट ही नहीं हो रही. विभिन्न प्रदेशों में जो किसान आंदोलन चले, वे स्वतःस्फूर्त हैं. इनका नेतृत्व कोई स्थापित नेता या राजनीतिक दलों से सम्बद्ध किसान संगठन नहीं कर रहे हैं. अब किसानों से जुड़े मसलों पर समग्र रूप से विचार करने और उसे संगठित राष्ट्रीय स्वरूप प्रदान करने की जरूरत है. इसके लिए सभी किसान संगठनों को एकजुट होना होगा. संतोष भारतीय ने राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक किसान एकता का आधार पुख्ता करने की आवश्यकता पर जोर दिया.
उत्तर प्रदेश गन्ना किसान संघर्ष मोर्चा के अध्यक्ष शिवाजी राय कहते हैं कि गन्ना मूल्य में 10 रुपए की बढ़ोत्तरी किसानों के साथ क्रूर मजाक है. ऐसा करके प्रदेश के किसानों को चिढ़ाया गया है. प्रदेश की हालत यह है कि चीनी मिल मालिक गन्ना किसानों का पैसा नहीं दे रहे हैं और सरकार उन्हें राहत पर राहत दिए जा रही है. चीनी मिलों को बिना ब्याज का अरबों का राहत पैकेज मिलता है, यानि, गन्ना किसानों के बकाये का जो भी थोड़ा-बहुत भुगतान हो रहा है, वह सरकार ही परोक्ष रूप से दे रही है. दूसरी तरफ किसानों को जो ऋण दिया जाता है उसे बेहद क्रूरता पूर्वक ब्याज सहित वसूला जाता है. शिवाजी राय ने कहा कि सरकारों ने पूर्वांचल के पूरे अर्थशास्त्र को तबाह कर डाला है. हम कहते हैं कि हमें ट्रेनें नहीं, उद्योग चाहिए. लेकिन सरकार बंद पड़े उद्योग खोलने के बजाय उसे बंद रखने में रुचि रखती है, ताकि पूंजीपतियों के विभिन्न ट्रेड सेंटरों पर सस्ता मजदूर मिल सके. किसानों को गिरमिटिया मजदूर बना कर रख दिया गया है. ट्रेनें उन्हीं मजदूरों को ढोने का काम कर रही हैं. सरकारों ने पूंजिपतियों के ट्रेड सेंटरों को मजबूती दी और उसे ही विकास नाम दे दिया. किसानों को सस्ता मजदूर बना कर उन्हीं पूंजिपतियों को उपलब्ध करा दिया. पूर्वी क्षेत्र के आर्थिक स्वावलंबन को साजिश करके तोड़ा गया. पूर्वी क्षेत्र का उद्योग धंधा और उत्पादन कृषि आधारित था.
चीनी मिल चलाने के लिए किसानों ने अपनी-अपनी जमीनें लीज़ पर दी थीं. लखनऊ से आप पूरब की तरफ रेल से चलें, तो सारे स्टेशन चीनी मिलों के कारण स्थापित हुए थे. ट्रेनें पहले गन्ना ढोने का काम करती थीं, जो आज मजदूर ढोने का काम कर रही हैं. लखनऊ से रेल से चलें तो मैजापुर (बाराबंकी), जरवल रोड (बहराइच), कुंदरखी (गोंडा), बभनान (बस्ती), गोविंद नगर (बस्ती), मुंडेरवा (बस्ती), बस्ती, खलीलाबाद (संत कबीर नगर), सरदार नगर (गोरखपुर), गौरीबाजार (देवरिया), बैतालपुर (देवरिया), देवरिया, भटनी (देवरिया), प्रतापपुर (देवरिया) से होते हुए बिहार के सीवान स्टेशन और उससे आगे सुदूर उत्तरी बिहार तक चीनी मिलों के कारण ही तमाम स्टेशन अस्तित्व में आए. पूरा पूर्वी क्षेत्र गन्ना आधारित उद्योग-धंधों के कारण फल-फूल रहा था. रेलवे ट्रैक के किनारे-किनारे चीनी मिलों की कतारें आप देख सकते हैं. जिनमें से अधिकांश मिलें आज बंद हालत में भूतहा खंडहर की तरह दिखती हैं. गन्ना आधारित उद्योगों के विकसित होने के कारण पूर्वी क्षेत्र में हथकरघा उद्योग भी खूब विकसित हुआ. भदोही, वाराणसी, मऊ, गोरखपुर, संत कबीर नगर, बस्ती, मगहर, टांडा, खलीलाबाद गन्ना आधारित उद्योगों के साथ-साथ हथकरघा, कालीन, साड़ी के बेहतरीन उत्पादन के लिए विश्व स्तर पर जाना गया. पूर्वी क्षेत्र में ठोस आर्थिक स्वावलंबन और स्वायत्तता स्थापित थी, लेकिन नेताओं ने पूंजीपतियों के साथ साठगांठ करके इस क्षेत्र की पूरी इकोनॉमी को ध्वस्त कर दिया. केवल इसलिए कि पूंजीपति विकसित हों, उनके लिए सस्ता श्रम उपलब्ध कराया जा सके और धीरे-धीरे किसानों की जमीनें भी छीन कर पूंजीपतियों को कॉरपोरेट फार्मिंग दी जा सके. आज पूर्वी क्षेत्र के गांव के गांव खाली हैं. निम्नवर्गीय तबका तो छोड़िए, मध्यवर्गीय जमात तक महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, गुजरात, पंजाब के विभिन्न पूंजी उत्पाद केंद्रों पर मजदूरी करने के लिए जा चुकी है. इन राज्यों में पूर्वी क्षेत्र के लोग सस्ता श्रम भी देते हैं और अपमानित भी होते हैं. गन्ने की खेती तेजी से बंद होती जा रही है. पूर्वांचल के किसान सुनियोजित षडयंत्र का शिकार हुए हैं. किसानों की समस्या स्वाभाविक नहीं है. यह समस्या साजिश करके उत्पन्न की गई है.
ठगा महसूस कर रहे हैं किसान
उत्तर प्रदेश के किसानों के बीच अब ये मुद्दे उग्र रूप लेते जा रहे हैं. किसान खुद को ठगा महसूस कर रहा है. किसानों के विरोध प्रदर्शनों और बैठकों का सिलसिला पश्चिम से लेकर पूर्वी उत्तर प्रदेश तक तेज गति से चल रहा है. पिछले दिनों लखनऊ में विभिन्न किसान संगठनों की बैठक हुई जिसमें अखिल भारतीय किसान मजदूर सभा के अध्यक्ष धरमपाल सिंह, महासचिव हीरालाल, किसान मजदूर संघर्ष मोर्चा उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष शिवाजी राय, जन जागरूकता अभियान के संयोजक सीवी सिंह शामिल हुए. इसमें भूमिहीन किसान संघर्ष समिति के नेता अरविंद मूर्ति, अखिल भारतीय क्रांतिकारी किसान सभा के अध्यक्ष बचाऊ राम और स्वराज अभियान के अखिलेंद्र प्रताप समेत किसान संग्राम समिति, खेत मजदूर किसान संग्राम समिति, अखिल भारतीय किसान सभा हरदोई, मानववादी जनमंच, जनवादी किसान सभा व कई अन्य किसान संगठनों के नेता भी शरीक थे. इस सभा में यह मसला पुरजोरी से उठा कि सभी सरकारें बड़े उद्योगपतियों को टैक्स में छूट देती हैं, उन्हें बिना ब्याज का पैकेज देती हैं, उनके कर्ज माफ करती हैं और बकाया नहीं वसूलतीं, लेकिन किसानों के प्रति सरकारों का रवैया बिल्कुल नकारात्मक और उत्पीड़नात्मक रहता है. पिछले वर्ष ही केंद्र सरकार ने उद्योगपतियों को छह लाख करोड़ के टैक्स की छूट दी. पिछले पांच साल का रिकॉर्ड देखा जाए, तो छूट की रकम 25 लाख करोड़ रुपए से अधिक होती है. जबकि देश के किसानों पर कुल ऋण 12 करोड़ 60 लाख रुपए है, जिसे ब्याज सहित क्रूरता पूर्वक वसूला जा रहा है. किसानों को दिया गया ऋण खेती-किसानी के काम में और बैंकों के अधिकारियों-कर्मचारियों को घूस देने में ही खर्च होता है. स्वामीनाथन आयोग ने किसानों को उनकी फसलों की लागत का डेढ़ गुना देने की सिफारिश की थी, लेकिन उसे आज तक लागू नहीं किया गया.
किसानों की सभा में यह सवाल भी उठा कि जब सिफारिशें लागू नहीं होतीं, तो आयोग बनाए ही क्यों जाते हैं? फसलों के लागत-मूल्य का डेढ़ गुना अधिक समर्थन मूल्य तय करने के अलावा किसानों से जुड़े कई अन्य मसलों पर भी चर्चा हुई और आंदोलन की रूपरेखा तय की गई. इसके बाद बागपत के भड़ल में और 14 अक्टूबर को दिल्ली में किसान संगठनों की बैठक हुई, जिसमें देशभर के 187 किसान संगठनों ने हिस्सा लिया. भड़ल की सभा में किसान अधिकार समन्वय मंच बना जो देशभर के किसान संगठनों के साथ समन्वय बनाएगा. दिल्ली की बैठक में 167 विभिन्न किसान संगठनों का प्रतिनिधित्व लेकर अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति गठित की गई. इस बैठक में यूपी, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, दिल्ली, कर्नाटक और तमिलनाडु तक के किसान संगठन शामिल हुए. इस बैठक में यह तय हुआ कि उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलन तेज करने के पहले दिल्ली में 20 नवम्बर से धरना और भूख हड़ताल शुरू की जाएगी.
मिल मालिकों के दबाव में है यूपी सरकार
गन्ने का समर्थन मूल्य 10 रुपए बढ़ा कर सरकार ने आग में घी डालने का काम किया है. सरकार के इस फैसले के खिलाफ राजधानी लखनऊ से लेकर पूरे प्रदेशभर में किसानों ने विरोध प्रदर्शन किया और गन्ने की फसलें फूंकीं. भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत ने सरकार की इस मजाकिया घोषणा को चीनी मिलों और सरकार की मिलीभगत का नतीजा बताया. टिकैत ने कहा कि भाजपा ने अपने संकल्प पत्र में उचित और लाभकारी मूल्य देने की बात कही थी लेकिन मिल मालिकों के दबाव में उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार गन्ना किसानों को लागत और श्रम पर आधारित मूल्य दिलाने में भी नाकाम रही. राष्ट्रीय किसान मंच के प्रदेश अध्यक्ष रिंकू तिवारी ने कहा कि डीजल, बिजली, कीटनाशक, खाद वगैरह के दाम बढ़ने से गन्ना किसानों की लागत भी काफी बढ़ गई है. विडंबना यह है कि उत्तर प्रदेश में गन्ना मूल्य तय करने को लेकर आयोजित बैठक में भी किसानों ने अपनी लागत का आंकड़ा गन्ना विभाग को दिया था. लेकिन सरकार ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया. स्पष्ट है कि सरकार चीनी मिल मालिकों के साथ खड़ी है. राष्ट्रीय लोकदल के राष्ट्रीय मीडिया प्रभारी अनिल दुबे ने घोषित गन्ना खरीद मूल्य को किसानों के साथ विश्वासघात बताया और कहा कि सत्ता में आने से पहले खुद भाजपा ने प्रदेश के किसानों को उनकी फसल की लागत का डेढ़ गुना मूल्य देने का वादा किया था. भाजपा ही 350 रुपए प्रति क्विंटल गन्ना मूल्य देने की मांग करती रही है, फिर सत्ता में आते ही चरित्र कैसे बदल लिया? यह साबित हो गया कि भाजपा के एजेंडे में किसानों और मजदूरों के लिए कोई स्थान नहीं है. समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने कहा कि भाजपा सरकार ने नोटबंदी और जीएसटी थोपकर देश की अर्थव्यवस्था चौपट कर दी और किसानों को बदहाल-बेहाल कर दिया.
सरकार ने आलू किसानों को गुमराह किया. गन्ना किसान को भाजपा ने पुराने मूल्य से 10 रुपए की बढ़त दी, जबकि समाजवादी सरकार ने 40 रुपए की एकमुश्त बढ़त की थी. अखिलेश ने विधानसभा के समक्ष गन्ना किसानों के प्रदर्शन और गन्ना फूंक कर विरोध दर्ज कराए जाने को सही बताया और उनके प्रति अपना समर्थन जताया. सपा के मुख्य प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी ने कहा कि भाजपा सरकार ने पेराई सत्र 2017-18 के लिए गन्ना खरीद का राज्य परामर्शित मूल्य 10 रुपए प्रति क्विंटल बढ़ा कर किसानों के साथ घोर अन्याय किया है. भाजपा सरकार की किसानों के साथ धोखाधड़ी का यह कोई पहला मामला नहीं है. कर्जमाफी के मामले में भी वह किसानों के साथ विश्वासघात कर चुकी है. चौधरी ने कहा कि भाजपा पूंजीघरानों की पोषक पार्टी रही है. किसान, गरीब, गांव कभी उसकी प्राथमिकता में नहीं रहे हैं. गरीब किसान का एक लाख तक कर्ज माफ करने में उसने हेराफेरी की जबकि बड़े व्यापारिक घरानों के करोड़ों रुपए के कर्ज माफ कर दिए गए. किसानों को उनकी फसल का उचित और लाभप्रद मूल्य देने में आनाकानी से भाजपा का किसान विरोधी चरित्र उजागर हो गया है. भारतीय किसान यूनियन के मंडल अध्यक्ष हरिनाम सिंह वर्मा ने भाजपा सरकार की घोषणा को किसानों के साथ कुठाराघात बताया और गन्ने का मूल्य 450 रुपए प्रति क्विंटल, धान का मूल्य 2500 रुपए प्रति क्विंटल और आलू का मूल्य हजार रुपए प्रति क्विंटल करने की मांग की. वर्मा ने कहा कि योगी सरकार ने ऐसा नहीं किया तो प्रदेश के किसान सरकार को उचित और करारा जवाब देंगे.
अब आर-पार के मूड में किसान
गन्ना मूल्य को लेकर यूपी सरकार की घोषणा के बाद प्रदेशभर में धरना-प्रदर्शन तेज हो गया है. पश्चिमी यूपी के गाजियाबाद, मेरठ, बुलंदशहर, इटावा, आगरा, सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, बिजनौर, बागपत, एटा, कासगंज, बरेली, कानपुर से लेकर पूर्वांचल के चंदौली, देवरिया, वाराणसी, कुशीनगर, गोरखपुर, गाजीपुर, महराजगंज, बलिया, बस्ती, गोंडा और राजधानी लखनऊ के साथ-साथ हरदोई, शाहजहांपुर, पीलीभीत, सीतापुर और लखीमपुर खीरी में किसानों की सभाएं और प्रदर्शन तेजी से शुरू हुए हैं. प्रदेशभर में किसानों को एकजुट करने का काम सक्रियता से हो रहा है. मुजफ्फरनगर के किसानों ने तो फैसला कर लिया है कि गन्ना मूल्य साढ़े चार सौ रुपए प्रति क्विंटल निर्धारित नहीं किया गया तो 2019 के लोकसभा चुनाव में वे भाजपा को वोट नहीं देंगे. राष्ट्रीय किसान मजदूर संगठन के जिलाध्यक्ष सुमित मलिक ने किसानों के साथ जोरदार प्रदर्शन किया और यह घोषणा की. उन्होंने प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री को इस आशय का ज्ञापन भी दिया, जिसे सिटी मजिस्ट्रेट को सौंपा गया. संभल क्षेत्र के किसानों ने भी मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से गन्ना मूल्य साढ़े चार सौ या कम से कम चार सौ रुपए करने की मांग की. समाज हित संरक्षण समिति के अध्यक्ष महंत भगवानदास शर्मा ने इस सिलसिले में मुख्यमंत्री को पत्र भी लिखा है. भारतीय किसान यूनियन ने सरकार के फैसले के खिलाफ बिजनौर में भी गन्ने की होली जलाई और गन्ने का भाव 450 रुपए प्रति क्विंटल करने की मांग की. भाकियू नेता नरेश प्रधान ने कहा कि भाजपा सरकार ने मात्र दस रुपए का रेट बढ़ाकर गन्ना किसानों के साथ धोखा किया है. भाकियू नेता दिगम्बर सिंह और धर्मवीर सिंह धनकड़ ने गन्ने का भाव कम से कम 450 रुपए प्रति क्विंटल करने की मांग की. रालोद के जिला अध्यक्ष अशोक चौधरी ने कहा कि बाजार में चीनी का भाव अच्छा है, लेकिन गन्ने का भाव अत्यंत कम. यह किसानों के साथ अपराध है. आजाद किसान यूनियन के नेता राजेंद्र सिंह और वीरेंद्र सिंह ने सरकार द्वारा घोषित गन्ना मूल्य को ऊंट के मुंह में जीरा बताया. सपा के जिला अध्यक्ष अनिल यादव ने कहा कि भाजपा सरकार किसान विरोधी है. बसपा के जिला अध्यक्ष सरजीत सिंह ने कहा कि किसानों के लिए भाजपा सरकार की कथनी और करनी का भेद उजागर हो गया है.
कैथल में भी किसानों ने सरकार के फैसले के खिलाफ व्यापक संघर्ष छेड़ने और चीनी मिल घेरने की घोषणा कर दी है. कैथल के किसानों की बैठक में गन्ना संघर्ष समिति और भारतीय किसान संघ के सदस्यों ने बाकायदा कैथल शुगर मिल परिसर में बैठक की. बैठक की अध्यक्षता प्रधान गुल्तान सिंह नैना ने की. भारतीय किसान संघ के प्रदेश प्रवक्ता रणदीप सिंह आर्य, श्रीराम मोहना, दीपक वालिया, नरेंद्र राणा, अमरदीप सहारण, कुलदीप नैना, मियां सिंह, महेंद्र सिंह, गौरव नैन, कृष्ण वालिया, मग्गर सिंह, पाला राम, विक्रम सिंह, अरुण वालिया वगैरह बैठक में मौजूद थे. इस मसले पर गाजियाबाद में भी भाकियू ने धरना-प्रदर्शन किया और व्यापक आंदोलन छेड़ने की मुनादी की. सरकार द्वारा की गई गन्ना मूल्य वृद्धि के विरोध में किसानों ने गाजियाबाद तहसील पर जोरदार धरना दिया जिसकी अध्यक्षता बिजेन्द्र सिंह ने की और संचालन वेदपाल मुखिया ने किया. भाकियू के प्रदेश उपाध्यक्ष राजवीर सिंह, जयकुमार मलिक, ब्रजवीर सिंह, सुंदरपाल, अशोक कुमार, चन्द्रपाल, सतवीर सिंह, राजेन्द्र समेत बड़ी तादाद में किसान मौजूद थे. भारतीय किसान यूनियन (अराजनैतिक) ने भी जिलाध्यक्ष राजबहादुर सिंह यादव के नेतृत्व में कलेक्ट्रेट पर प्रदर्शन किया और गन्ने की होली जलाई. जनप्रतिनिधियों को कोसा और सरकार के खिलाफ नारेबाजी कर नाराजगी जताई. सरकार के फैसले के खिलाफ बागपत के चौगामा क्षेत्र के किसानों ने पंचायत की और सरकार को चेतावनी दी कि यदि गन्ना मूल्य नहीं बढ़ा तो व्यापक आंदोलन किया जाएगा. बागपत के किसानों की दोघट, दाहा, पुसार में पंचायतें हुईं. किसानों की दोघट पंचायत की अध्यक्षता करने वाले बलबीर सिंह लंबरदार ने कहा कि प्रदेश सरकार ने साबित किया है कि वह किसान मजदूर विरोधी है. चौगामा किसान क्लब दाहा और राष्ट्रीय मजदूर किसान पार्टी के अध्यक्ष डॉक्टर रणबीर राणा ने कहा कि किसानों के साथ किया गया मजाक सरकार पर भारी पड़ेगा. प्रदेश के किसान लोकसभा चुनाव में हिसाब-किताब चुकता कर देंगे.
यह है सरकार का फैसला हूबहू
उत्तर प्रदेश सरकार ने गन्ना पेराई सत्र 2017-18 के लिए सहकारी, निगम और निजी क्षेत्र की चीनी मिलों में गन्ना खरीद के लिए बीते 26 अक्टूबर को राज्य परामर्शित मूल्य (एसएपी) निर्धारित करने का फैसला लिया. इसके तहत गन्ने की अगैती प्रजातियों के लिए पिछले वर्ष के 315 रुपए प्रति क्विंटल के मूल्य को बढ़ाकर 325 रुपए प्रति क्विंटल का मूल्य निर्धारित किया गया. इसी तरह सामान्य प्रजाति के लिए पिछले वर्ष के 305 रुपए प्रति क्विंटल मूल्य को बढ़ाकर 315 रुपए प्रति क्विंटल तय किया गया. इसके अलावा अनुपयुक्त प्रजाति के लिए गन्ना मूल्य जो पिछले वर्ष 300 रुपए प्रति क्विंटल था, उसे बढ़ाकर 310 रुपए प्रति क्विंटल किया गया. पेराई सत्र 2017-18 के लिए निर्धारित इस राज्य परामर्शित मूल्य के मुताबिक ही चीनी मिलों द्वारा गन्ना मूल्य का भुगतान एक किश्त में किया जाएगा.
प्रदेश के चीनी उद्योग एवं गन्ना विकास राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) सुरेश राणा ने यह घोषणा करते हुए बताया कि पेराई सत्र 2017-18 के लिए चीनी मिलों के बाहरी क्रय केंद्र से गन्ने का परिवहन (ट्रांसपोर्टेशन) मिल गेट तक कराए जाने में होने वाली ढुलाई कटौती की दर केंद्र सरकार की 27 सितम्बर 2017 की अधिसूचना के अनुसार 42 पैसे प्रति क्विंटल प्रति किलोमीटर से अधिकतम आठ रुपए 35 पैसे प्रति क्विंटल निर्धारित की गई है. मिल गेट के अलावा क्रय केंद्रों पर गन्ना आपूर्ति करने वाले किसानों को इस वर्ष उपरोक्त ढुलाई कटौती में लगभग 50 प्रतिशत की राहत दी गई है.
गेहूं, आलू, धान में भी मरा किसान
उत्तर प्रदेश के किसानों के लिए गेहूं, आलू, धान और अब गन्ना, चारों फसलें भारी नुकसान का जरिया साबित हुईं. गेहूं और आलू की रिकॉर्ड पैदावार ने किसानों को और बर्बाद ही किया है. योगी सरकार ने आलू का समर्थन मूल्य 467 रुपए प्रति क्विंटल कर यूपी के किसानों से एक लाख मिट्रिक टन आलू खरीदने की घोषणा की थी. लेकिन परिणाम यह निकला कि किसानों को अपनी फसल सड़क पर फेंकनी पड़ी या कोल्ड स्टोरेज में आलू छोड़ देना पड़ा. उत्तर प्रदेश में आलू की खेती करने वाले किसान इस बार बर्बाद हो गए. कोल्ड स्टोरेज में आलू रखने के कारण भी किसानों को करोड़ों का नुकसान हुआ. योगी सरकार की आलू खरीद नीति पूरी तरह ढकोसला साबित हुई. आलू उगाने से लेकर उसे मंडी तक पहुंचाने का महंगा भाड़ा देने और कोल्ड स्टोरेज का किराया चुकाने में किसानों की टेंट ढीली हो गई है. जबकि उनका आलू कौड़ियों के भाव बिकने पर आ गया. सरकार ने केवल घोषणा की, किसानों का आलू नहीं खरीदा. सरकार ने आलू खरीदने के मानक ऐसे तय कर दिए कि सारे आलू उस मानक पर रिजेक्ट कर दिए गए. विवश किसानों को अपना आलू फेंक देना पड़ा. इससे आलू किसानों की आर्थिक रीढ़ टूट गई. किसान कहते हैं कि आलू बोने से अच्छा है खेत को खाली छोड़ देना. आलू उत्पादन के गढ़ फर्रुखाबाद में तो आलू किसानों के बुरे दिन हैं.
किसान सड़क के किनारे आलू फेंक रहे हैं. जिले के करीब 70 कोल्ड स्टोरेज आलू से भरे पड़े हैं. अब कोई भी कोल्ड स्टोर आलू रखने की स्थिति में नहीं है. किसान भी कोल्ड स्टोरेज में ही आलू छोड़ कर चला गया. फर्रुखाबाद के तकरीबन 34 हजार हेक्टेयर क्षेत्रफल में आलू की फसल बोई गई थी. आलू के रिकॉर्ड उत्पादन का नतीजा यह निकला कि वह या तो कौड़ियों के मोल बिका या कूड़े की तरह रास्तों पर फेंका सड़ता हुआ नजर आया. यही हाल गेहूं और धान का भी हुआ. योगी सरकार ने राज्य में पांच हजार खरीद केंद्रों के जरिए 80 लाख टन गेहूं खरीदने की घोषणा की थी. लेकिन यह घोषणा भी टांय-टांय-फिस्स साबित हुई. सरकार ने गेहूं की तर्ज पर 3500 क्रय केंद्रों के जरिए 50 लाख मीट्रिक टन धान खरीदने की घोषणा की लेकिन धान खरीद में भी सरकार फ्लॉप रही और बिचौलियों का बोलबाला बना रहा. स्वराज अभियान की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य अजित सिंह यादव कहते हैं कि यूपी के पूरे धान बेल्ट में धान की खरीद का सरकारी दावा बेमानी साबित हो रहा है. बिचौलियों के जरिए मनमानी कीमत पर धान खरीदा गया और सरकार के नुमाइंदे बिचौलियों को ही अपना सहयोग देते रहे. बदायूं, पीलीभीत और तराई के विस्तृत धान पट्टी क्षेत्र के किसानों में इससे भीषण नाराजगी है.
किसान मांग रहे अलग पूर्वांचल
किसान आंदोलन की सुगबुगाहटों में इस बार अलग पूर्वांचल की मांग भी शामिल है. अलग पूर्वांचल की किसानों की मांग राजनीतिक पार्टियों की मांग से अलग है. किसान मजदूर संघर्ष मोर्चा उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष शिवाजी राय कहते हैं कि आर्थिक तौर पर स्वावलंबी रहे पूर्वांचल को जिस तरह षडयंत्र करके ध्वस्त किया गया, उसका अब एक ही उपाय बचा है, या तो केंद्र सरकार पूर्वांचल के लिए एक लाख करोड़ का आर्थिक पैकेज अलग से घोषित करे या पूर्वांचल को अलग राज्य के रूप में घोषित करे. पूर्वांचल के किसान राजनीतिक तौर पर नहीं, आर्थिक तौर पर विभाजन चाहते हैं, क्योंकि राजनीतिक दलों ने पूर्वांचल को दूसरे और तीसरे दर्जे का क्षेत्र बना कर रख दिया है. विभिन्न सरकारों ने पश्चिम में निवेश कराया और पश्चिम के विकास पर ही सारा ध्यान दिया. पूरब के विकास की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया, जबकि पूर्वांचल ने कृषि विकास और लघु उद्योगों के विकास के साथ-साथ शैक्षणिक विकास का भी प्रतिमान स्थापित किया है. काशी हिंदू विश्वविद्यालय, काशी विद्यापीठ, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, पूर्वांचल विश्वविद्यालय, आचार्य नरेंद्र देव विश्वविद्यालय जैसे शैक्षणिक प्रतिष्ठान पूरब में ही स्थापित हुए. शिवाजी राय ने कहा कि पूर्वांचल के लोगों और खास तौर पर यहां के किसानों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस रवैये से गहरी निराशा है कि वे सांसद तो वाराणसी के हैं, लेकिन सारा ध्यान गुजरात पर देते हैं. गुजरात की छह करोड़ की आबादी के लिए मोदी लाखों करोड़ रुपए का ऋण लेकर बुलेट ट्रेन चलाने का करार कर सकते हैं, लेकिन पूर्वांचल की नौ करोड़ की आबादी के विकास के लिए एक लाख करोड़ का आर्थिक पैकेज नहीं दे सकते. लिहाजा, पूर्वी उत्तर प्रदेश के किसान यह मांग कर रहे हैं कि उन्हें उनकी पुरानी समृद्ध विरासत लौटाएं या पूर्वांचल राज्य अलग करें…
अपना जिला छोड़ कर दूसरे ज़िलों का गन्ना खरीद लेती है चीनी मिल
फैजाबाद के सोहावल तहसील में मसौधा स्थित केएम शुगर मिल की धांधली भी अजीबोगरीब है. केएम शुगर मिल प्रबंधन जिले का गन्ना न खरीद कर सस्ते में गन्ना बेचने के लिए उद्धत दूसरे जिलों के किसानों से गन्ना खरीद लेता है. जिले का किसान अपनी फसल लिए मिल के बाहर लाइन लगाए कई-कई दिन खड़ा रहता है, जबकि दूसरे जिले का गन्ना सीधे मिल के अंदर पहुंच जाता है. इसे लेकर फैजाबाद जिले के किसानों में गहरी नाराजगी है. पिछले दिनों राष्ट्रीय किसान मंच ने इस समस्या पर स्थानीय किसानों के साथ बैठक की और आंदोलन का तानाबाना बुना. राष्ट्रीय किसान मंच के प्रदेश अध्यक्ष देवेंद्र तिवारी उर्फ रिंकू ने बताया कि छतिरवां गांव के किसानों की पंचायत में केएम शुगर मिल की धांधलियों का मसला उठा. किसानों ने कहा कि सर्वे में जिले के किसानों की जो सूची बनती है, उसे ताक पर रख कर मिल प्रबंधन दूसरे जिलों के किसानों का गन्ना खरीद लेता है. कतार में खड़े स्थानीय किसानों की फसल को पुराना या खराब बता कर लौटा दिया जाता है. किसान मंच फैजाबाद के अध्यक्ष विनीत सिंह ने कहा कि मिल प्रबंधन के इस रवैये के कारण किसान कई-कई दिनों अपना गन्ना तौल केंद्र पर रखने के लिए मजबूर हो जाते हैं. समय से तौल नहीं होने के कारण गन्ना सूख जाता है. इसकी शिकायत पर मिल प्रबंधन से लेकर प्रशासन तक कोई ध्यान नहीं देता. किसानों के इस उत्पीड़न के खिलाफ मिल घेरने और गन्ना खरीद की प्रक्रिया को ठप्प कर देने की तैयारी चल रही है.
सरकार का एक ही फंडा, फहराता रहे मिल मालिकों का झंडा
चीनी मिल मालिकों के हित सर्वोपरि हैं. गन्ना किसानों की जिंदगी के कोई मायने नहीं. किसान मरता है तो सरकार कहती है कि घरेलू कलह से मर गया. पूरा देश नेताओं की कलह और तिकड़म से आक्रांत है. गन्ने की कीमत में 10 रुपए की बढ़ोत्तरी पर एक बुजुर्ग किसान ने कहा कि देश का पेट भरने वाले किसानों की जो उपेक्षा करेगा उसे प्रकृति अभिशाप देगी. फिर वह देखेगा कि किसानों को लूट कर, किसानों को धोखा देकर और किसानों की लाशों पर कमाया हुआ धन उसकी कितनी हिफाजत कर पाता है. उत्तर प्रदेश में किसानों की स्थिति भयावह है. सरकारें आलू, गेहूं और गन्ना उपजाने वाले किसानों को मरने या खेती छोड़ने के लिए विवश कर रही हैं.
किसानों को तबाह कर उनकी जमीनें ‘कॉरपोरेट फार्मिंग’ के लिए बड़े औद्योगिक घरानों को देने की साजिश चल रही है. इसीलिए ‘माल किसी और का, दाम किसी और का’ के गैर-कानूनी, गैर-नैतिक और गैर-नैसर्गिक तौर-तरीके से किसानों को मारा जा रहा है. फसलें तैयार करने में लागत चाहे जो आए, उसकी कीमत सरकार तय करेगी पर उसकी डोर किसी और के हाथों से संचालित होगी. गेहूं, धान और गन्ना ही नहीं आलू व अन्य सब्जियों तक के दाम तय करने में उत्पादक किसानों का कोई अधिकार नहीं. अभी हम गन्ना की बात करें. गन्ना मौजू है. अभी भी गन्ने का बकाया हजारों करोड़ रुपए का है. उस पर सरकार गन्ना मूल्य 10 रुपए बढ़ा रही है. कर्ज और ब्याज के बोझ से दबा किसान आत्महत्याएं कर रहा है, लेकिन इन आत्महत्याओं के लिए दोषी कौन है? इस पर उत्तर प्रदेश सरकार मौन है. किसी भी सत्ता के लिए कितनी लानत की बात है कि किसान फसल को सड़क पर फेंक देना, उसे कौड़ियों में बेचने से अधिक मुनासिब समझ रहा है. अपनी ही फसलें इस तरह बर्बाद होती देख कर किसान आत्महत्या कर ले रहा है. किसानों के हित की सरकार होती तो अब तक साढ़े चार सौ रुपए गन्ना मूल्य निर्धारित हो चुकी होती. मोदी के वादे के मुताबिक फसल की लागत का डेढ़ गुना अधिक समर्थन मूल्य देने का सिद्धांत तय हो चुका होता.
लेकिन किसान प्राथमिकता पर हैं ही नहीं. प्राथमिकता पर कॉरपोरेट हित है. चीनी मिल मालिकों और उद्योगपतियों का अपना ‘सिंडिकेट’ है, लेकिन किसानों का अपना कोई ताकतवर संगठन नहीं. किसानों के अलग-अलग संगठन और अलग-अलग राग हैं. सबमें राजनीति की घुसपैठ है. पूंजी सिंडिकेट और सरकारें मिल कर किसानों को उनकी जमीनों से खदेड़ भगाने के लिए सारा षडयंत्र कर रही हैं. खेत से कुछ नहीं मिलेगा तो मजदूरी करके गुजारा होगा. इससे खेतों को कॉरपोरेट फार्मिंग में बदलने में आसानी होगी. ये स्पेशल इकोनॉमिक जोन (एसईजेड), स्पेशल डेवलपमेंट जोन (एसडीजेड) और कॉरपोरेट फार्मिंग वगैरह आम लोगों के कितने हित और खास लोगों के कितने हित के हैं, इसे समझने के लिए कोई अतिरिक्त बुद्धि की जरूरत नहीं है. किसानों को राजनीतिक दलों ने बड़े शातिराना तरीके से मारा है. कभी उत्तर प्रदेश में गन्ना किसान खुशहाल थे. गन्ने की फसल और चीनी मिलों से प्रदेश के गन्ना बेल्ट में कई अन्य उद्योग धंधे भी फल-फूल रहे थे. गन्ने की राजनीति करके नेता तो कई बन गए, लेकिन उन्हीं नेताओं ने गन्ना किसानों को बर्बाद कर दिया. गन्ना क्षेत्र से लोगों का भयंकर पलायन शुरू हुआ और उन्हें महाराष्ट्र और पंजाब में अपमानित होते हुए भी पेट भरने के लिए रुकना पड़ा. उत्तर प्रदेश में 125 चीनी मिलें थीं, जिनमें 63 मिलें केवल पूर्वी उत्तर प्रदेश में थीं. इनमें से अधिकतर चीनी मिलें बेच डाली गईं और कुछ को छोड़ कर सभी मिलें बंद हो गईं. सरकार ने चीनी मिलें बेच कर भी पूंजीपतियों को ही फायदा पहुंचाया. चीनी मिलों के परिसर की जमीनें पूंजी-घरानों को कौड़ियों के भाव बेच डाली गईं, जिस पर अब महंगी कॉलोनियां बनाने का कुचक्र हो रहा है. चीनी मिलों को किसानों ने गन्ना समितियों के जरिए अपनी जमीनें लीज़ पर दी थीं. लेकिन उन किसानों के मालिकाना हक की चिंता किए बगैर अवैध तरीके से उन जमीनों को बेचा जा रहा है.
सरकारों ने 1989 के बाद से प्रदेश में नकदी फसल का कोई विकल्प नहीं खड़ा किया. गन्ना ही किसानों का अस्तित्व बचाने की एकमात्र नकदी फसल थी. चीनी मिलों के खेल में कोई एक पार्टी शामिल नहीं, बल्कि जो दल सत्ता में आया, उसने खूब हाथ धोया. भाजपा की सरकार ने हरिशंकर तिवारी की कम्पनी ‘गंगोत्री इंटरप्राइजेज’ को चार मिलें बेची थीं. ‘गंगोत्री इंटरप्राइजेज’ ने इन्हें चलाने के बजाए मशीनों को कबाड़ में बेच कर ढांचा सरकार के सुपुर्द कर दिया. फिर समाजवादी पार्टी की सरकार ने प्रदेश की 23 चीनी मिलें अनिल अम्बानी को बेचने का प्रस्ताव रखा. लेकिन तब अम्बानी पर चीनी मिलें चलाने के लिए दबाव था. सपा सरकार ने उन चीनी मिलों को 25-25 करोड़ रुपए देकर उन्हें चलवाया भी, लेकिन मात्र 15 दिन चल कर वे फिर से बंद हो गईं. तब तक चुनाव आ गया और फिर बसपा की सरकार आ गई. मुख्यमंत्री बनी मायावती ने सपा कार्यकाल के उसी प्रस्ताव को उठाया और चीनी मिलों को औने-पौने दाम में बेचना शुरू कर दिया. मायावती ने पौंटी चड्ढा की कम्पनी और उससे जुड़ी अन्य कम्पनियों को 21 चीनी मिलें बेच डालीं. देवरिया की भटनी चीनी मिल महज पौने पांच करोड़ में बेच दी गई. जबकि वह 172 करोड़ की थी. इसके अलावा देवरिया चीनी मिल 13 करोड़ में और बैतालपुर चीनी मिल 13.16 करोड़ में बेच डाली गई. बरेली चीनी मिल 14 करोड़ में बेची गई, बाराबंकी चीनी मिल 12.51 करोड़ में, शाहगंज चीनी मिल 9.75 करोड़ में,
हरदोई चीनी मिल 8.20 करोड़ में, रामकोला चीनी मिल 4.55 करोड़ में, घुघली चीनी मिल 3.71 करोड़ में, छितौनी चीनी मिल 3.60 करोड़ में और लक्ष्मीगंज चीनी मिल महज 3.40 करोड़ रुपए में बेच डाली गई. ये तो बंद मिलों का ब्यौरा है. जो मिलें चालू हालत में थीं, उन्हें भी ऐसे ही कौड़ियों के मोल बेचा गया. अमरोहा चीनी मिल महज 17 करोड़ में बेच डाली गई. सहारनपुर चीनी मिल 35.85 करोड़ में और सिसवां बाजार चीनी मिल 34.38 करोड़ में बिक गई. बुलंदशहर चीनी मिल 29 करोड़ में, जरवल रोड चीनी मिल 26.95 करोड़ में और खड्डा चीनी मिल महज 22.65 करोड़ में बेच डाली गई. महालेखाकार (कैग) ने इस घोटाले का पर्दाफाश भी किया. लेकिन उसे सरकारों ने लीपपोत दिया. अखिलेश सरकार ने लीपा और अब भाजपा सरकार लीपने-पोतने में सक्रिय है. यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने चीनी मिल बिक्री घोटाले की जांच कराने की घोषणा की, तो केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कम्पीटिशन कमीशन ऑफ इंडिया के जरिए पूरे मामले को लीपपोत दिया और तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती को बेदाग घोषित कर दिया. दूसरी तरफ आजादी के बाद गठित गाडगिल समिति से लेकर मनमोहन सरकार के कार्यकाल में गठित रंगराजन समिति तक ने चीनी उद्योग पर अपनी सिफारिशें दीं, लेकिन सरकारों ने उन सिफारिशों की तरफ झांका भी नहीं, वे सब ऐसे ही सत्ता के तहखाने में धूल फांक रही हैं. गन्ना किसानों की सुध लेने के लिए सरकारें रुचि नहीं ले रहीं, क्योंकि सरकारों की रुचि और निगाह किसानों की जमीनों पर है.
देश के सबसे बड़े गन्ना उत्पादक राज्य उत्तर प्रदेश के गन्ना किसान केंद्र और राज्य सरकार दोनों से ही निराश और हताश हो चुके हैं. चीनी मिलों के मालिक गन्ना किसानों का हक मार कर अकूत लाभ कमा रहे हैं. इंडियन शुगर मिल्स एसोसिएशन (आईएसएमए) के नाम पर सिंडिकेट बना कर चीनी मिलों के मालिक सरकारों को ब्लैकमेल करते रहते हैं. इस पूंजी सिंडिकेट की पहुंच इतनी है कि गन्ना मूल्य तय करने के सरकार के अधिकार को भी एक बार अदालत ने खारिज कर दिया था. लंबी कानूनी लड़ाई लड़ने के बाद गन्ने का समर्थन मूल्य तय करने के सरकार के अधिकार को बहाल किया जा सका. इसके बावजूद गन्ने पर मक्कारी भरी राजनीति जारी है. गन्ने का समर्थन मूल्य न बढ़े इसके लिए चीनी मिल मालिकों का सिंडिकेट बड़े सुनियोजित तरीके से पेशबंदी करता है. चीनी मिलों को भीषण घाटे में बताया जाता है. जबकि असलियत यह है कि चीनी मिलें जबरदस्त फायदे में चल रही हैं. चीनी मिलों के मालिक केवल चीनी की बात बताते हैं, लेकिन गन्ने के प्रति-उत्पादों (बाई प्रोडेक्ट्स) से होने वाले फायदे की बात नहीं करते. एक क्विंटल चीनी से करीब दस किलो चीनी बनती है. इसके आलावा पांच किलो शीरा निकलता है. बैगास तीस किलो निकलती है. पांच किलो मैली निकलती है. खोई से बिजली बनती है और करोड़ों की बिजली बेची जाती है. निजी मिल मालिक अपना लाभ केवल चीनी की बिक्री से होने वाली आय में दिखाते हैं और प्रति-उत्पाद (बाई-प्रोडक्ट्स) से होने वाली करोड़ों की आय को ‘गोल’ कर जाते हैं. चीनी मिलों की अपनी डिस्टिलरी होती है, जहां अल्कोहल एथनॉल बनता है. चीनी मिलों में बिजली बनाई जाती है, जो अपने उपयोग के अलावा बाहर बेची जाती है.
खोई से गत्ते बनते हैं. मैली भी खाद के रूप में बेच दी जाती है. डिस्टिलरी से ही इतना लाभ होता है कि चीनी मिल मालिक कभी घाटे में नहीं रहते. घाटे का सुनियोजित झूठ सरकारों से ब्लैकमेलिंग का तरीका है. सरकारें भी इस झूठ को जानती हैं, लेकिन इस प्रहसन में नेता भी बराबर का किरदार निभाता है. इस प्रहसन के मंच पर सिंडिकेट (इंडियन शुगर मिल्स एसोसिएशन) का कोई अधिकारी आकर कहता है, ‘चीनी उद्योग संकट के दौर से गुजर रहा है, इसलिए गन्ने का दाम नहीं बढ़ाया जाए.’ इस डायलॉग के डेलिवर हो जाने के बाद सत्ता प्रतिनिधि मंच पर अवतरित होता है और ‘चीनी उद्योग के संकट’ पर गुरु-गंभीर मुद्रा बना कर गन्ना मूल्य नहीं बढ़ाने या किसानों को 10 रुपए की भीख देने की घोषणा करने की संजीदगी दिखाने की एक्टिंग करता है. फिर नेपथ्य से सत्ता-स्वर गूंजता है और ‘संकटग्रस्त चीनी उद्योग’ को उबारने के लिए अरबों रुपए के ‘राहत-पैकेज’ की घोषणा होती है. कथित तौर पर घाटा झेल रही चीनी मिलों को ‘सांस’ लेने के लिए सरकार ‘ऑक्सीजन’ मुहैया कराती है. केंद्र सरकार ‘घाटे से घिरी’ चीनी मिलों को किसानों के बकाये का भुगतान करने के लिए बिना ब्याज का ऋण उपलब्ध कराती है और बेशकीमती बाई-प्रोडक्ट एथनॉल के
उत्पादन पर लगने वाला केंद्रीय उत्पाद शुल्क भी हटा लेती है. इसी तरह के कई प्रदेशीय और केंद्रीय ‘ऑक्सीजन’ (रियायतों) से चीनी मिलें फलती-फूलती रहती हैं. गन्ना किसानों के बैंक खातों में उत्पादन सब्सिडी जमा कर भी सरकार चीनी उद्योगों को राहत देती है. लेकिन इसी तरह से किसानों को राहत देने बारे में सरकारें कभी नहीं सोचतीं. लोकतंत्र का प्रहसन ऐसे ही चलता रहता है और किसान फांसी पर झूलता रहता है.