विकास की शर्त क्या है? क्या किसी समाज या क्षेत्र का विकास वहां रहने वाले लोगों की इच्छा के विरुद्ध किया जाना उचित है. यानि किसी गांव की जमीन विकास के नाम पर उनसे ले लीजिए, वह भी सींचित जमीन, और जब वहां के लोग इसका विरोध करें तो उन पर लाठियां बरसाना शुरू कर दिया जाए.उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद जिले के करछना में किसानों के साथ सरकार का सुलूक कुछ इस तरह का है.
यहां पर थर्मल पॉवर प्लांट लगाने के लिए किसानों की भूमि अधिग्रहित की गई. इन जमीनों पर प्लांट लगाने का ठेका मिला जेपी कंपनी को और उसके बाद से शुरू हो गई इस इलाके के किसानों के सरकारी दमन की कहानी. किसान अपनी जमीन को लेकर लड़ाई लड़ रहे हैं लेकिन इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश के बावजूद भी राज्य की सरकार अपनी मनमानी करने पर उतारू है.
दरअसल साल 2007 में राज्य की तत्कालीन सरकार ने करछना के आठ गांवों (देवरीकला, कचरी, कचरा, मेरड़ा, टोलीपुर, देलही, भगेसर, भिटार और खई) के किसानों की जमीन को जेपी को प्लांट लगाने के लिए आवंटित कर दिया. इन गांवों के किसानों को जमीन के एवज में नौकरी और मुआवजा देने की पेशकश की गई. हालांकि किसानों ने शुरुआत से ही सरकार के मंसूबे ताड़ लिए थे और उसी साल से इस भूमि अधिग्रहण का विरोध शुरू हो गया.
किसानों ने प्रदर्शन किए लेकिन प्रशासन ने इसकी अनदेखी करते हुए लगातार अपनी कार्रवाई जारी रखी जिससे आजिज आकर किसानों ने साल 2008 में इस पूरी योजना को इलाहाबाद उच्च न्यायालय में चुनौती दी.
न्यायालय ने भूमइधिग्रहण को स्थगित कर दिया. लेकिन किसानों को न्यायालय की तरफ से मिली इस राहत के बावजूद भी राज्य सरकार ने अपनी कागजी कार्रवाई जारी रखी और गड़बड़झाला करते हुए किसानों की 17 सौ हेक्टेयर सींचित भूमि को बंजर दिखा दिया और उस जमीन को जेपी को हस्तांतरित कर दिया. यह याद रखने वाली बात है कि यह सारी कार्रवाई प्रदेश की तत्कालीन बहुजन समाज पार्टी की सरकार की थी.
किसानों के विरोध जारी रखने के कारण सरकार ने उनके खिलाफ 28 जून 2010 को कार्रवाई की और 16 किसानों व 150 अज्ञात किसानों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज कराई गई. नाराज किसानों ने 2011 में आमरण अनशन करना शुरू कर दिया. तमाम संबंधित अधिकारी मौके पर पहुंचे. इस बारे में अनशनकारी रहे राज बहादुर पटेल का कहना है कि उस वक्त अनशन स्थल पर तमाम किसान, महिलायें, बच्चे मौजूद थे तथा 14 दिन से आमरण अनशन पर लोग बैठे थे.
पहुंचते ही अनशनकारियों तथा वहां उपस्थित लोगों के ऊपर अधिकारियों की अगुआई में पुलिस ने हमला किया. टेंट गिरा दिया गया, लोगों को मारा-पीटा गया. यहां तक कि महिलाओं-बच्चों को भी नहीं छोड़ा गया. अनशनकारियों को खींचना शुरू कर दिया गया. उपस्थित लोगों ने विरोध किया जिसपर दोनों तरफ से संघर्ष शुरू हो गया.
इस बीच पीएसी के जवान रेल लाइन पर पहुंचे तथा वहां से लोगों पर पत्थर फेंकने लगे और यहां तक कि देवरी तथा कचरी गांवों में घुसकर ग्रामवासियों, महिलाओं को पीटा तथा अपमानित किया गया. इन घटनाओं को देखकर किसान भी उग्र हो गये. पीएसी एवं पुलिस के रेल ट्रैक पर कब्जा कर लेने के नाते रेल मार्ग बंद हो गया. इस पर भी पुलिस, पीएसी तथा आरएएफ का मन नहीं भरा उन्होंने लोगों पर लाठी-डण्डे चलाये, रबर की गोलियां दागीं तथा आंसू गैस छोड़ीं.
इस पूरी घटना में तमाम महिला-पुरुष घायल हुए और एक स्थानीय किसान गुलाब विश्र्वकर्मा की मौत हो गयी. राज बहादुर पटेल आगे बताते हैं कि गुलाब की मौत की खबर सुनकर किसान आपा खो बैठे और उन्होंने दिल्ली-हावड़ा रेल मार्ग पर कब्जा करके इस रेल लाइन का चक्का जाम कर दिया. सैकड़ों लोग लहुलुहान थे. इसमें पुलिस के लोगों को भी चोटें आयीं थी. घायलों के इलाज की कोई व्यवस्था नहीं की गयी.
आंदोलनकारी प्रशासन के इस कृत्य को जनता पर अघोषित युद्ध की संज्ञा देते हैं. इसमें एक स्थानीय किसान गुलाब की मौत भी गई. स्थितियां बिगड़ते देख तत्कालीन डीएम मामले को शांत करने के लिए किसानों की लिखित मांग स्वीकृत की और मृत किसान को पांच लाख रुपये का चेक दिलवाया.
पॉवर प्लांट के नाम पर 1920 किसानों से जमीन ली गई थी लेकिन मुआवजा सिर्फ 1850 किसानों ने लिया और 70 किसानों ने इसे लेने से मना कर दिया. आखिरकार 13 अप्रैल 2012 को हाईकोर्ट ने जमीन अधिग्रहण को रद्द कर दिया और किसानों की जमीन वापस करने का आदेश दिया. इसके बाद से ही किसानों ने अपनी जमीन वापस मांगना शुरू कर दिया जिसके जवाब में सरकार ने कहा कि मुआवजा वापस करो और जमीने ले जाओ.
किसानों का कहना है कि हमारी जमीन पर हमने कई सालों से खेती नहीं की. हमें नुकसान हुआ है. सरकार ने हमें तीन लाख रुपये प्रति बीघा के हिसाब से मुआवजा दिया था. इतना तो हम खेती करके कमा लेते.
हालिया घटनाक्रम में बीते 9 सितंबर को पुलिस और पीएसी ने धरना स्थल पर पहुंच कर कब्जा कर लिया. इसके बाद पुलिस ने गांवों में घुसकर लोगों की बेहरमी के साथ पिटाई की. महिलाओें, बच्चों और बुजुर्गों के साथ अत्याचार किया गया. कई लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया.
इस स्टोरी के संदर्भ में जब जिले के डीएम और एसएसपी से संपर्क साधने की कोशिश की गई तो इन दोनों में किसी ने फोन तक नहीं उठाया. इससे समझा जा सकता है कि प्रदेश का प्रशासन जनता की शिकायतों को लेकर कितना गंभीर होगा.
अब प्रदेश सपा शासन से यह साधारण सा सवाल बनता है कि किसानों की भूमि यदि हाईकोर्ट ने वापस करने का आदेश दिया है तो किसानों पर यह अत्याचार क्यों किए जा रहे हैं.
क्या प्रदेश में न्यायपालिका के आदेशों के बावजूद भी ऐसी अराजक स्थिति बन गई है कि लोगों तक न्याय नहीं पहुंच पा रहा है. प्रदेश सरकार को बर्बरतापूर्वक किसानों की आवाज को दबाने के बजाए उन्हें न्याय देने के लिए चेतना होगा.