ओड़ीशा सरकार ने पिछले दिनों कीटनाशक बनाने वाली 11 कंपनियों पर प्रतिबन्ध लगा दिया. प्रतिबन्ध लगाने का कारण था, इन कंपनियों द्वारा बाज़ार में उतारा गया कीटनाशक, जो कीटों पर तो बेअसर साबित हुआ, लेकिन किसानों पर असरदार. राज्य के 15 जिलों के किसानों पर भूरे रंग के कीट मौत बन कर गिरे. पहले से सूखे की मार झेल रहे किसानों के लिए धान के पौधे काटने वाले ये कीट असहनीय साबित हुए. क़र्ज़ के बोझ तले दबे किसानों ने अब उन्हीं कीटनाशकों का सेवन कर अपनी जान देनी शुरू कर दी है, जो कीटों पर असर नहीं कर सके. ओड़ीशा में कृषि का क्या महत्व है, इसे इस बात से समझा जा सकता है कि यहां की आबादी का 75 प्रतिशत हिस्सा कृषि पर निर्भर है. इन 75 प्रतिशत लोगों में से भी 85 प्रतिशत छोटे और मझोले किसान हैं.
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, सबसे पहली घटना ओड़ीशा में चावल का कटोरा कहे जाने वाले बारगढ़ जिले में घटी, जहां पिछले 25 अक्टूबर को इंद्रा बरिहा नामक किसान ने कीटनाशक का सेवन कर अपनी जान दे दी. प्राप्त जानकारी के अनुसार, अबतक राज्य में 8 छोटे और मझोले किसानों ने फसल बर्बादी की वजह से अपनी जान दे दी है. केवल बारगढ़ जिले में ही 6 किसानों ने आत्महत्या की है. अब सवाल यह उठता है कि किसानों की मौत का सिलसिला थमने का नाम क्यों नहीं ले रहा है? क्या ये केवल खोखले वाक्य हैं कि किसान देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं? आखिर कब तक किसानों के खेत ही उनकी कत्लगाह बनते रहेंगे?
ओड़ीशा में वर्ष 2001 से 2010 के बीच 2600 से अधिक किसानों ने आत्महत्या की है. यह सिलसिला अब तक जारी है. मज़े की बात यह है कि हर बजट में सरकार किसानों की क़र्ज़मा़फी या किसानों के कल्याण की योजनाओं की घोषणा करती रही है, लेकिन जब किसान के ऊपर विपदा आती है, तो चारों ओर सन्नाटा फैल जाता है. ़िफलहाल आत्महत्या की जो लहर चली है, उसकी वजह है किसानों पर सूखे और भूरे रंग के कीटों की दोहरी मार. रही सही कसर प्रशासन पूरी कर रहा है. रिपोट्र्स के मुताबिक, राज्य के 15 जिलों में 3.1 लाख हेक्टेयर धान की फसल सूखे की मार से प्रभावित है. अभी किसान इस मुसीबत से उबरे भी नहीं थे कि कीटों ने राज्य के 9 जिलों के 1.7 लाख हेक्टेयर धान की खड़ी फसल का पूरी तरह सफाया कर दिया. इन कीटों पर कीटनाशकों का कोई असर नहीं हुआ. हालांकि बाद में प्रशासन ने 11 कीटनाशक कंपनियों को प्रतिबंधित कर दिया.
सरकारी राहत
राज्य सरकार के राजस्व मंत्री ने सूखे से उत्पन्न स्थिति से निपटने के लिए 25 अक्टूबर को सिंचित क्षेत्र के लिए 13,500 रुपए और गैर-सिंचित क्षेत्र के लिए 6,800 रुपए प्रति हेक्टेयर की दर से मुआवजे की घोषणा की. खरीफ फसल के लिए सरकार ने किसानों की क़र्ज़मा़फी की घोषणा की, वहीं सरकार की तरफ से किसानों के बच्चों का ट्यूशन फी देने की भी घोषणा हुई. रबी फसल के लिए अलग से क़र्ज़ का वादा किया गया. बाद में कीटों द्वारा बर्बाद फसल के लिए भी राहत की घोषण की गई. कीट नियंत्रण के लिए जिला प्रशासन को आदेश दिए गए. हालांकि रिपोट्र्स के मुताबिक, सरकार द्वारा घोषित मुआवजा उन्हीं किसानों को मिलेगा जिनकी एक तिहाई ़फसल बर्बाद हुई है. जिन किसानों ने अपनी फसल जला दी है, उन्हें कोई राहत नहीं मिलेगी. ज़ाहिर है, ये सरकारी शर्तें किसानों को परेशान करने के लिए रखी जाती हैं. मिसाल के तौर पर, बारगढ़ जिले के बृन्दा साहू ने अपनी बर्बाद फसल को उस समय आग लगाई, जब कथित तौर पर जिला प्रशासन ने उनकी गुहार सुनने से इंकार कर दिया और आखिर में बृन्दा साहू ने उसी खेत में कीटनाशक पी कर अपनी जान दे दी. बृन्दा के परिजनों का कहना है कि उन्होंने 15 खेतों के लिए 5,00,000 की क़र्ज़ ले रखी थी. ़िफलहाल आत्महत्या करने वाले सभी किसानों की लगभग यही कहानी है.
सरकार को यह पता होता है कि बारिश नहीं होने के कारण किसान दबाव में आ सकते हैं. सरकार ने दावा भी किया है कि उसे ख़राब मानसून का एहसास था और उसने सूखे से निपटने की तैयारी कर रखी थी. लेकिन कीटों का आतंक अचानक नाजिल हुआ था, इसलिए प्रशासन उससे निपटने के लिए तैयार नहीं था. हालांकि किसान सरकारी दावों पर सवाल उठाते हैं. कई प्रभावित किसानों का कहना है कि उन्होंने सम्बंधित अधिकारियों को एक माह पहले ही कीटों के हमले की जानकारी दे दी थी. लेकिन उस समय किसानों को बताया गया कि स्टॉक में कीटनाशकों की कमी है. ज़ाहिर है, जब किसानों द्वारा आखिरी क़दम उठाने की खबरें सुर्ख़ियों में आतीं हैं, तभी सरकारी अमला हरकत में आता है और फिर घटनाओं पर लिपा पोती शुरू हो जाती है.
ऐसा लगता है कि किसानों की आत्महत्या की वारदातें महज़ सरकारी आंकड़ा बन कर रह गईं हैं. सरकार बस आंकड़ें जमा कर रही है कि किस प्रदेश में या किस जिले में कितने किसानों ने अपनी जान दी और कितने पीड़ित परिवारों को कितना मुआवजा दिया गया. इसके बाद बात आई-गई हो जाती है. किसानों की क़र्ज़ की समस्या और उनकी आत्महत्या को लेकर सरकारों की गंभीरता का पता इस बात से भी लगया जा सकता है कि मौत के आंकड़ों में कमी लाने के लिए लेकिन किसान आत्महत्या की परिभाषा में ही बदलाव कर दिया जाता है. सरकारें किसानों की समस्याओं को लेकर कितनी असंवेदनशील हैं, इसका उदाहरण इस वर्ष की शुरुआत में उत्तर प्रदेश में देखने को मिला, जब राहत के नाम पर एक-एक रुपए का चेक वितरित किया गया. सरकारों का सारा जोर बाज़ार की तरफ है. देश का अन्नदाता क़र्ज़ के बोझ तले दबता हुआ मरता है तो मरे. किसानों की समस्याओं का समाधान करना और आत्महत्या की वारदातों की पुनरावृत्ति को रोकना सरकार की प्राथमिकताओं में शामिल नहीं है. ऐसे में देश के किसानों को एकजुट हो कर अपनी बात रखनी होगी, वरना उनके खेत उनकी कत्लगाह बनते रहेंगे.