गांव छोड़बो नहीं
जंगल छोड़बो नहीं
माई माटी छोड़बो नहीं
लड़ाई छोड़बो नहीं…
24 फरवरी को यह गीत दिल्ली के जंतर-मंतर में 15 राज्यों के तकरीबन पांच हजार लोग एक साथ गाते दिखाई दिए. लगभग 300 सामाजिक संगठनों और आंदोलनों से जुड़े लोग इस गीत के माध्यम से सरकार को चुनौती दे रहे थे कि इस देश की जनता प्राकृतिक संसाधनों की हो रही अंधाधुंध लूट का पुरजोर विरोध करती रहेगी. पिछले साल 24 फरवाली को केंद्र सरकार द्वारा लाए गए भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के खिर्लों इन्हीं जन संगठनों ने प्रदर्शन किया था और भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को वापस लेने की मांग की थी. तीन बार सरकार भूमि अधिग्रहण अध्यादेश लाई, लेकिन अंततः देश भर में हो रहे चौतर्रेंा विरोध की वजह से उसे अपने कदम पीछे खींचने पड़े थे. इस महारैली में आए लोगों का मानना है कि यह उनकी जीत है. सभी संगठनों की एकता की वजह से सरकार को जनता के आगे घुटने टेकने पड़े और भूमि अधिग्रहण अध्यादेश वापस लेना पड़ा था. हालांकि इन लोगों को आज भी इस बात की आशंका है कि कहीं सरकार भूमि अधिग्रहण (संशोधन) कानून को पिछले दरवाजे से न ले आए. सरकार ने इस बिल को अभी वापस नहीं लिया है. यह बिल र्िेंलहाल संयुक्त संसदीय समिति के पास है. समिति के अध्यक्ष सत्तारूढ़ दल के हैं और समिति के अधिकांश सदस्य 2013 के कानून में किए जाने वाले संशोधनों का विरोध कर रहे हैं, इसलिए अध्यक्ष बार-बार समिति का कार्यकाल बढ़ा रहे हैं, ताकि मौका मिलने पर समिति की रिपोर्ट संसद में पेश की जा सके और कानून को पास कराया जा सके.
नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेत्री मेधा पाटकर ने रैली को संबोधित करते हुए कहा कि भूमि अधिग्रहण कानून का खतरा अभी पूरी तरह टला नहीं है. 2013 का कानून हमारे सपनों का कानून नहीं था, इसमें बहुत सी खामियां हैं, खेती करने वाले मजदूरों की सहमति का उसमें प्रावधान नहीं है, भूमि अधिग्रहण से वे सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं. मोदी सरकार जो कानून लाना चाहती है, उसमें सरकारी योजनाओं में लोगों की सहमति लेने का प्रावधान नहीं है, जबकि निजी योजनाओं के लिए ऐसा प्रावधान है. सवाल यह उठता है कि आखिर सरकारी योजनाओं में ग्रामसभा की अवहेलना क्यों? दूसरी बात कि इस कानून में पुनर्वास की बात तो है, लेकिन वह सिर्फ एक जमीन का टुकड़ा देने जैसा है, जबकि कानून में पैसे देने का प्रावधान भी है. सरकार में अगर हिम्मत है तो सरकार लोगों को उसी तरह की व्यवस्था करवाने की हिम्मत और क्षमता होनी चाहिए, अन्यथा वो हमारी पीढ़ियों, पुराने गांवों को हाथ लगाने की हिम्मत न करे.
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इस महारैली से सरकार को यह संदेश दिया गया कि यदि सरकार दोबारा भूमि अधिग्रहण बिल में संशोधन करने का प्रयास करेगी तो देश के किसान, मजदूर, मछुआरे, वनाश्रित, दलित, आदिवासी सभी मिलकर इसका पुरजोर विरोध करेंगे. जमीन उनकी मां है और वे इसे बचाने के लिए लड़ते रहेंगे. रैली को संबोधित करते हुए ऑल इंडिया किसान सभा के महासचिव हन्नान मुल्ला ने कहा कि जिस तरह हमें सरकार के जमीन छीनने के खिर्लों लड़ना पड़ेगा, उसी तरह मजदूरों के लिए भी लड़ना पड़ेगा, किसानों के लिए भी लड़ना पड़ेगा, उसी तरह झूठे राष्ट्रवाद से भी लड़ना पड़ेगा. इसके खिर्लों बगावत करना भी किसान का र्ेर्ंज है. हमें गांव-गांव में इस आंदोलन को आगे बढ़ाना चाहिए. देश को बांटने वाली ताकतें जन-आंदोलनों से नज़र घुमाने के लिए, बढ़ती महंगाई से नज़र घुमाने के लिए इस तरह के सवाल उठा रही हैं, जिससे कि लोग इन भावनात्मक मुद्दों के बीच र्ेंंस जाएं. ये लोगों के बीच में र्ेंूट डालना चाहते हैं, ताकि देश का गरीब, किसान, मजदूर एकजुट होकर जल, जंगल, जमीन की लड़ाई न कर सके. इसलिए इस साजिश का भर्ंडोंोड़ करना हमारा काम है. इन साजिशकर्ताओं को पीछे करने के लिए हमें भारी लड़ाई लड़नी पड़ेगी.
किसानों और प्रधानमंत्री बीमा योजना के बारे में भाकपा के राष्ट्रीय सचिव अतुल कुमार अंजान ने कहा कि अब कहां गई स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट, क्यों अब नरेंद्र मोदी जी और उनकी सरकार इसे लागू नहीं कर रही है? चुनाव के दौरान तो वह किसानों को लागत का डेढ़ गुना र्ेंसल का दाम देने की बात कर रहे थे. आज उनकी नीतियों की वजह से खेती की लागत दर बढ़ गई है, सरकार ने स्वामीनाथन आयोग की अनुशंसा के अनुरूप कम प्रीमियम दर रखी है, हम उनकी इस सोच के समर्थक हैं. उन्होंने चार तरह के इंश्योरेंस को एकत्र कर एक इंश्योरेंस कर दिया है, केंद्र और राज्य इसकी जिम्मेदारी मिलकर संभाल रहे हैं, लेकिन देश के जो छोटे, मझोले और सीमांत किसान हैं, जिनकी संख्या तकरीबन 68 प्रतिशत है, ऐसे किसान इतना कम प्रीमियम भी नहीं दे सकते.
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उनके लिए यह बीमा निशुल्क कर देना चाहिए. सरकार ने नगदी फसलों में जो 5 से 10 प्रतिशत प्रीमियम कर दिया है, वह हमें स्वीकार नहीं है. उन्होंने नगदी फसलों में कपास और रबड़ के साथ आलू, गन्ना, शकरकंद और टमाटर भी जोड़ लिया है. क्या गन्ना, कपास, टमाटर नगदी फसले हैं? इन फसलों का बीमा राष्ट्रीयकृत बीमा कंपनियां करें तो ज्यादा बेहतर होगा.पूर्व सांसद और सीपीआईएम की पोलित ब्यूरो सदस्य सुहासिनी अली ने कहा कि मध्य प्रदेश सरकार कॉर्पोरेट घरानों और पूंजीपतियों से कहती है कि आप प्रदेश की जिस ज़मीन पर उंगली रखेंगे, वे उस जमीन को उन्हें दे देंगे, हम यह बर्दाश्त नहीं करेंगे.
देश के आदिवासी इलाकों से आए लोगों ने सरकार द्वारा वनाधिकार कानून-2006 को कमजोर करने की कोशिश की बात कही. उनका आरोप है कि सरकार वनाधिकार कानून को चोर दरवाजे से बदलने में लगी हुई है. झारखंड में छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट में बदलाव किया जा रहा है, ताकि आदिवासियों की जमीन कॉर्पोरेट्स को दी जा सके. भूमि अनुवर्ती सूची का विषय होने की वजह से राज्यों के अधीन भी है, तमाम राज्य सरकारें
अपने-अपने हिसाब से भूमि अधिग्रहण कानून बना रही हैं. राजस्थान सरकार ने तो यह मन बना लिया है कि वह भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया में नहीं जाएगी, बल्कि राज्य में मौजूद सरकारी ज़मीन को चिन्हित करके सीधे कॉर्पोरेट्स को दे देगी. इसी तरह आंध्र प्रदेश में भू-अधिग्रहण बिल को बाइपास करके लैंडपूलिंग के जरिए जमीन ली जा रही है, अमरावती में नई राजधानी के निर्माण के लिए यही प्रक्रिया अपनाई गई है. ऐसे में लोगों को लगता है कि सरकार राज्यसभा में बहुमत नहीं होने की वजह से कानून को नहीं बदल सकती है, लेकिन राज्यों के कानूनों में बदलाव करके अपने लिए रास्ते खोलना चाहती है. इसके लिए वह वन कानूनों में कुछ तकनीकी बदलाव करना चाहती है, जिसके लिए उसे संसद न जाना पड़े. जैसे कि कानून के लागू होने की समयसीमा निर्धारित करना, कंपनियों के हाथ में वृक्षारोपण का काम सौंपना, सामुदायिक अधिकारों के मसले को जड़-मूल से खत्म करना और जैसा कि महाराष्ट्र में वनोपज को वापस वन विभाग के नियंत्रण में दिया जाना. इसलिए इस वक्त भू-अधिकार के साथ वनाधिकार का मुद्दा गहरे रूप से जुड़ गया है.
किसानों से ज्यादा इस रैली में जेएनयू और हैदराबाद विश्वविद्यालय के मुद्दे छाए रहे. हालांकि आंदोलन की मांगों में इसे अप्रत्यक्ष तौर पर जगह दी गई थी. मांग थी कि झूठे राष्ट्रवाद के नाम पर जनतांत्रिक अधिकारों का हनन बंद करो और बढ़ती र्ेंासीवादी ताकतों पर लगाम लगाओ. इस वजह से मंच सामाजिक कम, राजनीतिक ज्यादा नज़र आ रहा था. हालांकि राजनीतिक लोगों ने भी इसमें शिरकत कर अपना समर्थन दिया. जदयू के राज्य सभा सासंद अली अनवर ने इसमें शिरकत की और कहा कि यह सरकार मजदूर और किसान विरोधी है. मोदी जी ने चुनाव के दौरान किसानों से जो वादे किए थे, उन वादों को उन्होंने पूरा नहीं किया. इसलिए किसान आज आत्महत्या कर रहे हैं.
अब लोगों का ध्यान असल मुद्दों से भटकाने के लिए भावनात्मक मुद्दों को वे हवा दे रहे हैं. उनके राज में गरीबों को किसी तरह की राहत नहीं मिली है, राहत मिली है तो कॉर्पोरेट घरानों को. इसलिए यह लड़ाई तो होगी और केवल संसद से बात नहीं बनेगी, लोगों को अपने हक की लड़ाई सड़क पर भी लड़नी होगी. इलाहाबाद विश्वविद्यालय की छात्रसंघ अध्यक्ष ऋचा सिंह ने रैली को संबोधित करते हुए कहा कि हमें यह बात समझनी होगी कि पिछले साल किसानों की आत्महत्या से शुरुआत हुई और इस साल यह छात्रों की आत्महत्या तक पहुंच गई है. यह देश के लिए बहुत गंभीर सवाल है कि देश का विकास आखिर हो किसके लिए रहा है. मोदी जी कौन से डिजिटल इंडिया को लाने की बात कर रहे हैं. हमारी लड़ाई सड़क से शुरू होकर संसद तक जाएगी.
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औद्योगिक गलियारा, स्मार्ट सिटी और मेक इन इंडिया जैसी कई बड़ी परियोजनाओं के लिए सरकार जमीन लेन की र्िेंराक में है. इसके लिए वह वन, पर्यावरण और राज्यों के कानूनों के माध्यम से रास्ता तलाश रही है. सरकार अपने कार्यकाल के तकरीबन 20 महीने पूरे कर चुकी है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश की जनता से 60 महीने देने की बात की थी. अब उनके पास केवल दो तिहाई समय अपने वादों को पूरा करने के लिए बचा है. आखिर के 12 महीने चुनावी महीने होंगे. इसलिए उनके पास कुछ करने के लिए केवल 28 महीने शेष बचे हैं, इसलिए लोगों को विश्वास में लेने के अलावा उनके पास और कोई विकल्प नहीं बचा है. उन्हें सबका साथ सबका विकास के अपने नारे को लेकर आगे बढ़ना होगा. ऐसा करके ही वह अपने विकास के वादे को पूरा करने में र्सेंल होंगे.