कुलभूषण जाधव, डॉल्कन ईसा वीज़ा प्रकरण, चीनी वीटो, नेपाल, पठानकोट किसी में भी सटीक सूचना नहीं दे पाई प्राइम खुफिया एजेंसी घनघोर अराजकता में फंसे रिसर्च एंड अनासिलिस विंग (रॉ) को धो डालने पर आमादा पीएम मोदी और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार डोभाल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश की सबसे महत्वपूर्ण और संवेदनशील खुफिया एजेंसी रिसर्च एंड अनालिसिस विंग (रॉ) में कई ढांचागत फेरबदल कर रहे हैं. रॉ के ठहरे हुए पानी को हिलाना मोदी के लिए जरूरी भी हो गया है, क्योंकि विदेश की धरती पर अभिसूचनाएं हासिल करने वाली भारत की इस प्राइम खुफिया एजेंसी की नाकामियां देश पर भारी पड़ रही हैं और प्रधानमंत्री कार्यालय और विदेश मंत्रालय को लगातार परेशानियों में डाल रही हैं. रॉ के कई महत्वपूर्ण फेल्योर से भारत सरकार को अंतरराष्ट्रीय फोरम पर झेंप का सामना करना पड़ा है और अटपटी सफाई पेश करने पर विवश होना पड़ा है. पाकिस्तान के बलूचिस्तान में रॉ के कथित एजेंट कुलभूषण जाधव के पकड़े जाने का मसला हो या चीन के उइगुर प्रांत के विवादास्पद निर्वासित नेता डॉल्कन ईसा को भारतीय वीज़ा दिए जाने का मसला हो, ऐसे कई मामलों में सटीक अभिसूचना मुहैया कराने में रॉ नाकाम रहा, जिससे भारत सरकार को बचाव की मुद्रा में आना पड़ा.
कुलभूषण जाधव मामले में केंद्र को रक्षात्मक-तर्क का सहारा लेना पड़ा और चीन के विरोध के बाद डॉल्कन ईसा का वीज़ा रद्द करने का अपमानजनक फैसला लेना पड़ा. विदेश मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी का तो यह भी कहना है कि पाकिस्तानी आतंकी मसूद अजहर के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र में भारतीय प्रस्ताव के बारे में चीन को पहले ही जानकारी मिल गई, लेकिन चीन के वीटो की तैयारियों के बारे में रॉ को कोई जानकारी नहीं मिल पाई, जिससे भारतीय रणनीति को संयुक्त राष्ट्र में करारा झटका लगा. चीन से इसका कूटनीतिक बदला लेने के इरादे से डॉल्कन ईसा को भारत का वीज़ा देने का बचकाना फैसला हुआ, लेकिन उसे भी वापस ले लेना पड़ा. इससे भारत सरकार की भारी किरकिरी हुई. खुफिया विशेषज्ञ बताते हैं कि पठानकोट मामले में भी पाकिस्तान से जुड़ी जरूरी अभिसूचनाएं मुहैया कराने में रॉ का कोई योगदान नहीं रहा, जिसे बाकायदा रेखांकित किया गया है. नेपाल में भारत सरकार को लगातार मिल रहे कूटनयिक झटके के लिए रॉ की कमजोर अभिसूचना प्रणाली को ही दोषी ठहराया जा रहा है.
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रॉ के कई खुफिया प्लान अंतरराष्ट्रीय फोरमों पर लीक होते रहे हैं, जिससे रॉ को कई बार अपने पैर पीछे खींचने पड़े और अपना ऑपरेशन रद्द करना पड़ा. टेलीकॉन ऑफ थंडरबोल्ट प्लान के लीक होने की घटना को रॉ की बड़ी नाकामी माना जाता है. रॉ के टॉप सीक्रेट प्लान का आधिकारिक पत्र (संख्या: जेज़ेडएक्स/629/ऑप्स/1/5 डीबी, दिनांक 16 जून 2015) दुश्मन देश की खुफिया एजेंसियों के हाथ लग गया था. इस पत्र पर रॉ के अधिकारी विशाल मौलजी, इश्मित मनोहर और कुणाल रोहित के बाकायदा हस्ताक्षर थे. कुछ अर्सा पहले भारतीय नौसेना और ताईवान के बीच होने वाली गोपनीय सैन्य-वार्ता की सूचना भी चीन को लीक हो गई थी. इस वजह से बैठक स्थगित कर देनी पड़ी. संदेह है कि वह सूचना भी रॉ के किसी क्रॉस एजेंट के जरिए ही चीन की खुफिया एजेंसी मिनिस्ट्री ऑफ स्टेट सिक्युरिटी (एमएसएस) को मिली थी. पाकिस्तान में रह रहे माफिया सरगना दाऊद इब्राहीम के बारे में सटीक सूचनाएं मुहैया कराने में भी रॉ फेल रहा है. भारत सरकार को दाऊद के बारे में सूचनाएं हासिल करने के लिए कभी अमेरिकी खुफिया एजेंसी तो कभी इजराइली खुफिया एजेंसी से चिरौरी करनी पड़ी है. इसे लेकर भी पीएमओ को गहरी नाराजगी है. केंद्र की भाजपा सरकार कई बार दाऊद को लेकर सार्वजनिक दावे करती रही, लेकिन फिर झेंप कर चुप्पी साधने पर विवश होती रही है.
कई विशेषज्ञों का मानना है कि संसदीय नियंत्रण नहीं होने के कारण रॉ में अराजकता व्याप्त है. रॉ की कोई अकाउंटिबिलिटी कानूनी प्रक्रिया के तहत तय (फिक्स्ड) नहीं है. सेना के सारे कार्य-कलाप सख्त सैन्य कानून के तहत नियंत्रित हैं, इसलिए सेना में अराजकता और अनुशासनहीनता नहीं है. एकमात्र पीएमओ के प्रति उत्तरदायी होने के कारण रॉ के अधिकारी अपने इस विशेषाधिकार का बेजा इस्तेमाल करते हैं और विदेशी एजेंसियों से मनमाने तरीके से संपर्क साधते और फायदा उठाते हैं. रॉ के अधिकारियों और कर्मचारियों के काम-काज के तौर तरीकों और धन खर्च करने पर अलग से कोई निगरानी नहीं रहती, न उसकी कोई ऑडिट ही होती है. रॉ के अधिकारियों की बार-बार होने वाली विदेश यात्राओं का भी कोई हिसाब नहीं लिया जाता. कौन ले इसका हिसाब? पीएमओ छोड़ कर किसी को इसका अधिकार नहीं है. उसमें भी सीधे प्रधानमंत्री या राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार छोड़ कर कोई अन्य अधिकारी रॉ से कुछ पूछने या जलाब-तलब करने की हिमाकत नहीं कर सकता. रॉ के अधिकारी अमेरिका, कनाडा, इंग्लैंड और यूरोपीय देशों में बेतहाशा आते-जाते रहते हैं. लेकिन दक्षिण एशिया, मध्य-पूर्व और अफ्रीकी देशों में उनकी आमद-रफ्त काफी कम होती है. जबकि, इन देशों में रॉ के अधिकारियों का काम ज्यादा है. रॉ से कोई यह भी नहीं पूछ सकता कि अमेरिका, कनाडा और पश्चिमी यूरोपीय देशों से वे किस तरह के भारत हित की सूचनाएं लाते हैं और देश को उसका क्या फायदा मिला है? अमेरिका, पश्चिमी यूरोप, ऑस्ट्रेलिया और जापान जैसे आलीशान देशों में रॉ अधिकारियों की पोस्टिंग अधिक क्यों होती है और पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका या अन्य दक्षिण एशियाई देशों या मध्य पूर्व के देशों में काफी कम क्यों? दक्षिण एशियाई देशों में जरूरत के मुताबिक निर्धारित संख्या से भी काफी कम अधिकारी तैनात हैं. ऐसे देशों में रॉ का कोई अधिकारी जाना ही नहीं चाहता. लेकिन इस अराजकता के बारे में रॉ से कोई कुछ नहीं पूछ सकता.
रॉ में मध्यम और उससे नीचे के स्तर में होने वाली नियुक्तियों की कोई पारदर्शी प्रक्रिया नहीं है. कोई निगरानी नहीं है. रॉ के कर्मचारियों का सर्वेक्षण करें तो अधिकारियों के नाते-रिश्तेदारों की वहां भीड़ जमा है. सब अधिकारी अपने-अपने रिश्तेदारों के संरक्षण में लगे रहते हैं. तबादलों और तैनातियों पर अफसरों के हित हावी हैं. यही वजह है कि जिस खुफिया एजेंसी को सबसे अधिक पेशेवर (प्रोफेशनल) होना चाहिए था, वह सबसे अधिक लचर साबित हो रही है. रॉ में व्याप्त अराजकता के कारण ही विभागीय अफसर अनन्य चक्रवर्ती, उनकी पत्नी और दो बच्चों की दिल्ली में हुई हत्या का रहस्य दो साल बाद भी नहीं खुल पाया है. चक्रवर्ती को फांसी से लटकी हुई हालत में और उनकी पत्नी जयश्री, 17 साल के बेटे अर्नब और 12 साल की बेटी दिशा को फर्श पर लहूलुहान हालत में बरामद किया गया था. रॉ ने यह कह कर मामला निपटाने की कोशिश की कि रॉ अधिकारी ने अपने परिवार के लोगों को मार कर खुद फांसी लगा ली, लेकिन यह दावा संदेह में लिपटा हुआ माना गया था और इसके पीछे गहरे षडयंत्र की आशंका जताई गई थी. रॉ के प्रभाव के कारण दिल्ली पुलिस भी इस मामले में कुछ नहीं कर पाई. अनन्य चक्रवर्ती ने भुज के भूकंप में अनाथ हुई बच्ची को गोद लिया था और उसे दिशा नाम दिया था.
बहरहाल, इन सब अराजकताओं के कारण रॉ को ढांचागत स्तर पर सुधारने और टास्क ओरिएंटेड करने पर तेजी से काम चल रहा है. रॉ की पूरी प्रणाली को दुरुस्त करने के इरादे से ही उसकी एक शाखा एविएशन रिसर्च सेंटर (एआरसी) को बंद कर उसे नेशनल टेक्निकल रिसर्च ऑर्गेनाइजेशन (एनटीआरओ) और भारतीय वायुसेना के अधीन करने का निर्णय लिया गया. एविएशन रिसर्च सेंटर के जरिए रॉ किसी भी संवेदनशील स्थान की खुफिया तरीके से हवाई तस्वीरें और उस जगह चल रही गतिविधियां रिकॉर्ड करती थी. मौजूदा राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल ने इसे रॉ की अन्य शाखा एनटीआरओ और वायुसेना के तहत जोड़ने के फैसले पर पीएमओ की सहमति ली. उल्लेखनीय है कि रॉ के एविएशन रिसर्च सेंटर (एआरसी) के पास रूसी आईएल-76एस, एएन-32, ग्लोबल-5000 जेट और अमेरिकी गल्फस्ट्रीम एयरोस्पेस के अत्याधुनिक विमानों का बेड़ा और एमआई-17 व फ्रांसीसी एलूते-2 और एलूते-3 किस्म के हेलीकॉप्टर हैं. एआरसी के विमानों की उड़ान खास तौर पर ओड़ीशा के चरबतिया, उत्तर प्रदेश के सरसावां, असम के तिनसुकिया और दिल्ली के पालम एयरबेस से होती है. एआरसी में अधिकतर अधिकारी कर्मचारी सेना और सुरक्षा बलों से प्रतिनियुक्ति पर आते हैं. एआरसी रॉ के लिए जवाबदेह है और एआरसी के प्रमुख रॉ प्रमुख के मातहत होते हैं.
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पीएमओ की चिंता यह भी है कि रॉ में सीआईए या कुछ अन्य विदेशी खुफिया एजेंसियों की अंदर तक बनी घुसपैठ कैसे रोकी जाए. कई ऐसे वाकये सामने आ चुके हैं और कई ढंके-छुपे हुए हैं. रॉ के डायरेक्टर तक सीआईए के लिए जासूसी करने के आरोप में जेल की हवा खा चुके हैं. लेकिन सामर्थ्य के आगे देशद्रोह का आरोप भी अधिक समय तक खड़ा नहीं रह पाया और वह बाइज्जत बरी हो गए. ऐसा ही वाकया है कि एक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी आईबी का निदेशक बनने जा रहा था कि ऐन मौके पर पाया गया कि वह दिल्ली में तैनात महिला सीआईए अधिकारी हेदी अगस्ट के लिए काम कर रहा था. तब उसे नौकरी से जबरन रिटायर किया गया. भेद खुला कि सीआईए ही उस आईपीएस अधिकारी को आईबी का निदेशक बनाने के लिए अप्रत्यक्ष रूप से लॉबिंग कर रही थी. रॉ की अपनी काउंटर इंटेलिजेंस प्रणाली भी बुरी तरह फेल साबित हुई है. अराजकता का आलम यह है कि रॉ के अधिकारी और कर्मचारी यूनियनबाजी कर रहे हैं और काउंटर इंटेलिजेंस होने या उसका शक होने पर भी सीनियर अधिकारियों का घेराव करने और नारेबाजी करने से बाज नहीं आते. सुरक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि रॉ जैसे संवेदनशील संगठन में सामान्य कल-कारखानों जैसी यूनियनबाजी और राजनीति देश के हित में नहीं है, इस पर कारगर तरीके से सख्त कानूनी बंदिशों के तहत रोक लगनी चाहिए.
मोदी सरकार केंद्रीय खुफिया एजेंसियों को एकसूत्रित करने और पेशेवर तरीके से जवाबदेह बनाने के लिए गिरीश सक्सेना रिपोर्ट को लागू करने पर विचार कर रही है. राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल की टीम से जुड़े एक अधिकारी ने कहा कि नेशनल इंटेलिजेंस बोर्ड का गठन होने से न केवल रॉ, बल्कि आईबी और सेना की खुफिया एजेंसियां भी एकसूत्रित हो जाएंगी और वे सब सीधे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के नियंत्रण में आ जाएंगी. अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्वकाल में सुरक्षा तंत्र को सुगठित करने के मसले पर अध्ययन करने के लिए तत्कालीन गृह मंत्री लालकृष्ण आडवाणी की अध्यक्षता में जो मंत्रियों का समूह गठित किया गया था, उसकी सिफारिशें भी प्रधानमंत्री के समक्ष रखी गई हैं. मंत्रियों के उस समूह में तत्कालीन रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडीज़, विदेश मंत्री जसवंत सिंह और वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा शामिल थे. पूर्व राज्यपाल व सुरक्षा मामलों के विशेषज्ञ गिरीश सक्सेना कमेटी, पूर्व राज्यपाल एनएन वोहरा कमेटी, पूर्व केंद्रीय गृह सचिव डॉ. माधव गोडबोले कमेटी और पूर्व रक्षा मंत्री अरुण सिंह कमेटी की रिपोर्टें भी सामने रखी गई हैं, लेकिन समीक्षा के बाद सक्सेना कमेटी की सिफारिशों को लागू करने पर केंद्र गंभीर है. उक्त चारों कमेटियों ने के. सुब्रमण्यम की करगिल रिव्यु कमेटी (केआरसी) की रिपोर्ट का अलग-अलग आयामों से विस्तार से अध्ययन किया था. करगिल रिव्यु कमेटी ने यह माना था कि खुफिया अभिसूचनाएं एकत्र करने में नाकामी और खुफिया एजेंसियों में आपसी समन्वय नहीं होने के कारण करगिल में घुसपैठ की घटना घटी और देश को अनावश्यक युद्ध लड़ना पड़ा और शहादतों का भारी नुकसान झेलना पड़ा. रॉ और आईबी दोनों ही केआरसी की रिपोर्ट से असहमत थी.
गिरीश सक्सेना कमेटी ने 244 पेज की अपनी रिपोर्ट में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के नेतृत्व और निगरानी में नेशनल इंटेलिजेंस बोर्ड का गठन किए जाने की सिफारिश कर रखी है. नेशनल इंटेलिजेंस बोर्ड में रॉ, आईबी, डीआरआई, थलसेना-वायुसेना-नौसेना की खुफिया इकाइयों के प्रमुखों को सदस्य के बतौर शरीक किए जाने का प्रावधान है, ताकि बेहतर समन्वय के साथ अभिसूचनाएं एकत्र करने या टास्क पूरा करने का काम प्रोफेशनल तरीके से संपादित हो सके. पूर्व रक्षा मंत्री अरुण सिंह की कमेटी ने चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ के तहत सेना के तीनों अंगों को मिला कर अलग से डिफेंस इंटेलिजेंस एजेंसी बनाने की सिफारिश की थी. मोदी सरकार के पहले मनमोहन सरकार ने रिसर्च एंड अनालिसिस विंग (रॉ) और इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी) के बीच बेहतर समन्वय और प्रोफेशनल कार्यप्रणाली बनाने के लिए नेशनल इंटेलिजेंस एंड सिक्योरिटी अथॉरिटी बनाने का प्रस्ताव रखा था. यूपीए सरकार ने यह विचार किया था कि देश की बाह्य, अंदरूनी और सैन्य खुफिया एजेंसियां नेशनल इंटेलिजेंस एंड सिक्योरिटी अथॉरिटी के तहत रखी जाएं और अथॉरिटी देश की सारी खुफिया एजेंसियों पर नियंत्रण रखे. लेकिन सेना के विशेषज्ञों ने इस प्रस्ताव को अव्यवहारिक करार दिया था. इस तरह कांग्रेस सरकार का वह प्रस्ताव ठंडे बस्ते में चला गया.
रॉ में लगी है गद्दारों की लंबी कतार
रॉ के दक्षिण-पूर्वी एशिया मसलों के प्रभारी व संयुक्त सचिव स्तर के आला अफसर मेजर रविंदर सिंह का सीआईए के लिए काम करना और सीआईए की साजिश से फरार हो जाना भारत सरकार को पहले ही काफी शर्मिंदा कर चुका है. रविंदर सिंह जिस समय रॉ के कवर में सीआईए के लिए क्रॉस-एजेंट के बतौर काम कर रहा था, उस समय भी केंद्र में भाजपा की सरकार थी और अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे. वर्ष 2004 में केंद्र में कांग्रेस की सरकार आने के बाद रविंदर सिंह भारत छोड़ कर भाग गया. उसकी फरारी के दो साल बाद नवंबर 2006 में रॉ ने उसके खिलाफ एफआईआर दर्ज की. मेजर रविंदर सिंह की फरारी का रहस्य ढूंढ़ने में रॉ को आधिकारिक तौर पर आजतक कोई सुराग नहीं मिल पाया. जबकि रॉ के ही अफसर अमर भूषण ने बाद में यह रहस्य खोला कि मेजर रविंदर सिंह और उसकी पत्नी परमिंदर कौर सात मई 2004 को राजपाल प्रसाद शर्मा और दीपा कुमारी शर्मा के छद्म नामों से फरार हो गए थे. उनकी फरारी के लिए सीआईए ने सात अप्रैल 2004 को इन छद्म नामों से बाकायदा अमेरिकी पासपोर्ट जारी किया था. इसमें रविंदर सिंह को राजपाल शर्मा के नाम से दिए गए अमेरिकी पासपोर्ट का नंबर था 017384251. सीआईए की मदद से दोनों पहले नेपालगंज गए और वहां से काठमांडू पहुंचे. काठमांडू में अमेरिकी दूतावास में तैनात फर्स्ट सेक्रेटरी डेविड वास्ला ने उन्हें रिसीव किया. काठमांडू के त्रिभुवन हवाई अड्डे से दोनों ने ऑस्ट्रेलियन एयर की फ्लाइट (5032) पकड़ी और वाशिंगटन पहुंचे, जहां डल्स इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर सीआईए एजेंट पैट्रिक बर्न्स ने दोनों को रिसीव किया और उन्हें मैरीलैंड ले गए. मैरीलैंड के एकांत आवास में रहते हुए ही फर्जी नामों से उन्हें अमेरिका के नागरिक होने के दस्तावेज तैयार करा के दिए गए, उसके बाद से वे गायब हैं. पीएमओ ने रविंदर सिंह के बारे में पता लगाने के लिए रॉ से बार-बार कहा लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला, जबकि रॉ प्रधानमंत्री के तहत ही आता है.
इस मसले में रॉ ने कई राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों के निर्देशों को भी ठेंगे पर रखा. रविंदर सिंह प्रकरण खुलने पर रॉ के कई अन्य अधिकारियों की भी पोल खुल जाएगी. इस वजह से रॉ ने इसे ठंडे बस्ते में छोड़ दिया. मेजर रविंदर सिंह कितना गिरा हुआ व्यक्ति था, इसका एक उदाहरण देखिए. भारतीय वायुसेना को मिग-21, मिग-23 और मिग-27 के लिए कैनोपीज़ की जरूरत थी. रूस में उस समय कैनोपीज़ उपलब्ध नहीं थी. लिहाजा, वायुसेना की टीम कैनोपीज़ के लिए सीरिया के दमस्कस गई. वहां पर तैनात रॉ अधिकारी मेजर रविंदर सिंह को वायुसेना की टीम की मदद में लगाया गया. रक्षा उपकरणों की खरीद के लिए सीरिया के साथ बातचीत हो रही थी कि सीरिया स्थित अमेरिकी राजदूत तक यह खबर पहुंच गई. बाद में यह रहस्य खुला कि गोपनीय सूचना मेजर रविंदर सिंह ने लीक की थी. इस घटना के बाद रविंदर सिंह को भारत वापस भेज दिया गया था. लेकिन, अमेरिकी खुफिया एजेंसी को गोपनीय सूचनाएं देने का काम वह करता रहा. रॉ के भगोड़े गद्दारों की कमी नहीं है. विदेशी एजेंसियों के लिए क्रॉस एजेंसी करने और अपने देश से गद्दारी करने वाले ऐसे कई रॉ अधिकारी हैं, जो पकड़े जाने के डर से या प्रलोभन से देश छोड़ कर भाग गए. मेजर रविंदर सिंह जैसे गद्दार अकेले नहीं हैं. रॉ के संस्थापक रहे रामनाथ काव का खास सिकंदर लाल मलिक जब अमेरिका में तैनात था तो वहीं से लापता हो गया. सिकंदर लाल मलिक का आज तक पता नहीं चला. मलिक को रॉ के कई खुफिया प्लान की जानकारी थी. बांग्लादेश को मुक्त कराने की रणनीति की फाइल सिकंदर लाल मलिक के पास ही थी, जिसे उसने अमेरिका को लीक कर दिया था. मलिक की उस कार्रवाई को विदेश मामलों के विशेषज्ञ एक तरह की तख्ता पलट की कोशिश बताते हैं, जिसे इंदिरा गांधी ने अपनी बुद्धिमानी और कूटनीतिक सझ-बूझ से काबू कर लिया. मंगोलिया के उलान बटोर और फिर इरान के खुर्रमशहर में तैनात रहे रॉ अधिकारी अशोक साठे ने तो अपने देश के साथ निकृष्टता की इंतिहा ही कर दी. साठे ने खुर्रमशहर स्थित रॉ के दफ्तर को ही फूंक डाला और सारे महत्वपूर्ण और संवेदनशील दस्तावेज आग के हवाले कर अमेरिका भाग गया. विदेश मंत्रालय को जानकारी है कि साठे कैलिफोर्निया में रहता है, लेकिन रॉ उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ पाया. रॉ के सीनियर फील्ड अफसर एमएस सहगल का नाम भी रॉ के भगेड़ुओं में अव्वल है. लंदन में तैनाती के समय ही सहगल वहां से फरार हो गया.
टोकियो में भारतीय दूतावास में तैनात रॉ अफसर एनवाई भास्कर सीआईए के लिए क्रॉस एजेंट का काम कर रहा था. वहीं से वह फरार हो गया. काठमांडू में सीनियर फील्ड अफसर के रूप में तैनात रॉ अधिकारी बीआर बच्चर को एक खास ऑपरेशन के सिलसिले में लंदन भेजा गया, लेकिन वह वहीं से लापता हो गया. बच्चर भी क्रॉस एजेंट का काम कर रहा था. रॉ मुख्यालय में पाकिस्तान डेस्क पर अंडर सेक्रेटरी के रूप में तैनात मेजर आरएस सोनी भी मेजर रविंदर सिंह की तरह पहले सेना में था, बाद में रॉ में आ गया. मेजर सोनी कनाडा भाग गया. रॉ में व्याप्त अराजकता का हाल यह है कि मेजर सोनी की फरारी के बाद भी कई महीनों तक लगातार उसके अकाउंट में उसका वेतन जाता रहा. इस्लामाबाद, बैंकॉक, कनाडा में रॉ के लिए तैनात आईपीएस अधिकारी शमशेर सिंह महाराजकुमार भी भाग कर कनाडा चला गया. इसी तरह रॉ अफसर आर वाधवा भी लंदन से फरार हो गया. केवी उन्नीकृष्णन और माधुरी गुप्ता जैसे उंगलियों पर गिने जाने वाले रॉ अधिकारी हैं, जिन्हें क्रॉस एजेंसी या कहें दूसरे देश के लिए जासूसी करने के आरोप में गिरफ्तार किया जा सका. पाकिस्तान के भारतीय उच्चायोग में आईएफएस ग्रुप-बी अफसर के पद पर तैनात माधुरी गुप्ता पाकिस्तानी सेना के एक अधिकारी के साथ मिल कर भारत के ही खिलाफ जासूसी करती हुई पकड़ी गई थी. माधुरी गुप्ता को 23 अप्रैल 2010 को गिरफ्तार किया गया था. इसी तरह, अर्सा पहले रॉ के अफसर केवी उन्नीकृष्णन को भी गिरफ्तार किया गया था. पकड़े जाने वाले रॉ अफसरों की तादाद कम है, जबकि दूसरे देशों की खुफिया एजेंसी के साथ साठगांठ कर देश छोड़ कर भाग जाने वाले रॉ अफसरों की संख्या कहीं अधिक.
तालिबान ने कुलभूषण को अगवा किया और आईएसआई के हाथों बेच डाला
पाकिस्तान ने कुलभूषण जाधव नाम के जिस भारतीय नागरिक को पकड़ कर रॉ का एजेंट बताया और उसे पकड़ने का श्रेय लेकर अपनी ही पीठ ठोकी उसके बारे में जर्मन राजनयिक गुंटर मुलैक ने कहा कि तालिबानों द्वारा अगवा किए गए कुलभूषण जाधव को खरीद कर पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी अपनी पीठ ठोक रही है. जर्मन राजनयिक की यह सूचना वाकई चौंकाने वाली है. बहरीन, कुवैत और सीरिया में राजदूत रह चुके जर्मन कूटनयिक गुंटर मुलैक ने कहा कि कुलभूषण जाधव को तालिबान ने कुछ दिनों पहले ही अगवा कर लिया था. कई दिनों तक तालिबान और पाकिस्तानी एजेंसी के बीच मोलभाव होता रहा. दोनों ओर से सहमति बनने के बाद तालिबान ने कुलभूषण जाधव को आईएसआई के हाथों बेच डाला. ईरान ने भी कुलभूषण जाधव को रॉ का एजेंट बताए जाने का विरोध करते हुए पाकिस्तान को ऐसा करने से मना किया था. कुलभूषण जाधव भारतीय नौसेना में कमांडर (सर्विस नंबर:41558 ज़ेड) था. नौसेना में उसे इंजीनियरिंग कैडर के अफसर के रूप में कमीशन मिला था. उसने 1987 में संघ लोकसेवा आयोग की परीक्षा और सर्विसेज़
सेलेक्शन बोर्ड की स्क्रीनिंग परीक्षा पास करने के बाद नेशनल डिफेंस अकादमी (एनडीए) में दाखिला लिया था. उसे नौसेना अकादमी से 1991 में कमीशन मिला था. कुलभूषण जाधव वर्ष 2002 तक नौसेना में रहा. उसके बाद वर्ष 2003 में उसने ईरान के चाबहार में व्यापार शुरू किया. व्यापार के सिलसिले में वह अक्सर ईरान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान वगैरह जाता रहता था. लेकिन उसे एक दिन अचानक उठा कर रॉ का एजेंट करार दे दिया जाएगा, उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी. मुंबई और पठानकोट जैसे हादसों में पाकिस्तान के शामिल होने की आधिकारिक पुष्टि होने के बाद से बौखलाई पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई को कुलभूषण जाधव के रूप में बलि का बकरा मिल गया. उस पर तरह-तरह के आरोप लादे जा रहे हैं. हालांकि, शुरुआत में पाकिस्तान ने भी कहा था कि कुलभूषण का विभिन्न बंदरगाहों पर माल लाने ले जाने का धंधा है. अब, पाकिस्तान कुलभूषण जाधव के जरिए भारत पर पाकिस्तान में जासूसी करने और बलूचिस्तान में हिंसा फैलाने के आरोप मढ़ रहा है.
अल कायदा ने रॉ को मेल पर बताया था, सीआईए के हाथों मारा जा चुका है मेजर रविंदर
रॉ के दक्षिण-पूर्वी एशिया मामलों के प्रभारी संयुक्त सचिव मेजर रविंदर सिंह के देश छोड़ कर भागने की सनसनीखेज घटना के कुछ ही दिन बीते थे. पूरा देश और पूरी दुनिया उस फरारी पर तरह-तरह के कयास लगाने में लगी थी. मशक्कतों के बाद भी भारत सरकार को अपने फरार एजेंट का पता नहीं चल पा रहा था. तभी रॉ को मेल पर मिले एक संदेश ने इस खुफिया तंत्र को बौखला कर रख दिया. मेल पर कुख्यात आतंकी संगठन अल कायदा ने रॉ को सनसनीखेज संदेश भेजा था और अमेरिका से सतर्क रहने की सलाह दी थी.
अल कायदा ने लिखा था कि सीआईए ने भारत से भागने में रविंदर सिंह की मदद की और बाद में उसकी हत्या करा दी. अल कायदा की इस सूचना का रॉ के पास कोई जवाब नहीं था, आज तक नहीं है. फरार एजेंट का आज तक कहीं पता नहीं चला. अगर वह अमेरिका में भी छद्म नाम से रह रहा होता तो किसी को तो दिखता, कहीं तो दिखता! न कहीं वह जिंदा मिला और न कहीं उसकी लाश ही मिली. अल कायदा ने अमेरिका के हाथों खिलौना बनने से रॉ को सचेत करते हुए लिखा था कि अमेरिका किसी का नहीं.