गणतंत्र दिवस के मौ़के पर अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के भारत दौरे के दौरान भारत-अमेरिका परमाणुु समझौते पर चल रहे कई साल पुराने गतिरोध को समाप्त करने पर सहमति बन गई. इसकी आधिकारिक घोषणा भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के साझा बयान में हुई. इस समझौते को लेकर मीडिया इतना उत्साहित था कि पहले ही यह ख़बर सूत्रों के हवाले से टेलीविज़न चैनलों पर फ्लैश होने लगी. साथ ही इस समझौते को सरकार की बड़ी कामयाबी के रूप में पेश किया जाने लगा. लेकिन, क्या इसे सरकार की बड़ी कामयाबी के रूप में देखा जा सकता है? क्या जो आशंकाएं इस समझौते को लेकर लोगों के मन में थीं, वे समाप्त हो गई हैं? आज जबकि परमाणु ऊर्जा पर आश्रित बड़े उत्पादक देश अपने परमाणु रिएक्टर बंद कर रहे हैं, तो भारत नए रिएक्टर लगाने की होड़ में क्यों लग गया है? क्या भारत की ऊर्जा की मांग परमाणु ऊर्जा के बगैर पूरी नहीं हो सकती है? एक और अहम सवाल यह कि क्या परमाणु प्लांट आतंकवादियों और दुश्मन देशों के लिए एक आसान टारगेट नहीं बन जाएंगे? ये कुछ ऐसे सवाल हैं, जिनका जवाब जानना ज़रूरी है.
भारत-अमेरिका परमाणु ऊर्जा सहयोग समझौते की बुनियाद 2005 में वाशिंगटन में पड़ी थी, जब भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने पहली बार दोनों देशों के बीच परमाणु सहयोग पर सहमति बनाने की बात की थी. यह समझौता, जिसे 123 समझौता कहा जाता है, 2008 में भारत के तत्कालीन विदेश मंत्री प्रणब मुखर्जी और अमेरिकी विदेश मंत्री कोंडोलीज़ा राइस के दस्तखत के साथ अमल में आया था. वर्ष 2005 और 2008 के दौरान दोनों देशों के बीच कई दौर की वार्ताओं के बाद नवंबर 2006 में अमेरिकी सीनेट ने अमेरिका-भारत शांतिपूर्ण परमाणु ऊर्जा सहयोग और अमेरिकी अतिरिक्त प्रोटोकॉल कार्यान्वयन अधिनियम पारित किया था. इन क़ानूनों के मुताबिक, भारत को परमाणु ऊर्जा उत्पादन में सहयोग के लिए अमेरिका ने अपने एटॉमिक एनर्जी एक्ट 1954 की कुछ शर्तों में छूट दे दी थी, जिसमें प्रमुख था भारत को परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर करने से मुक्त कर देना. इस समझौते का सबसे बड़ा फ़ायदा यह हुआ कि न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप ने भारत का बहिष्कार समाप्त कर दिया. लेकिन, यह समझौता अपने शुरुआती दिनों से ही विवादों में घिरा रहा है.
भारत-अमेरिका परमाणु सहयोग पर समझौता पहली यूपीए सरकार हर क़ीमत पर करना चाहती थी. उसकी उत्सुकता का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इसके लिए दो बार अपनी कुर्सी दांव पर लगाई. अंत में यूपीए सरकार को बाहर से समर्थन दे रहीं वामपंथी पार्टियों ने इस समझौते को लेकर अपना समर्थन वापस ले लिया, लेकिन दूसरी पार्टियों के समर्थन से मनमोहन सिंह की सरकार बच गई थी. सोनिया गांधी ने 2007 में हरियाणा की एक रैली में इस समझौते का विरोध करने वाले लोगों को शांति और विकास का दुश्मन करार दिया था. बहरहाल, विपक्ष (जिसमें वामपंथी और भाजपा दोनों शमिल थे) दुर्घटना की स्थिति में उत्तरदायित्व के सवाल पर सरकार को घेरता रहा. इसी दबाव के मद्देनज़र सरकार ने अंत में सिविल लाइबिलिटी फॉर न्यूक्लियर डैमेज एक्ट 2010 पारित कराया. इस एक्ट के सेक्शन 17(बी) में एक प्रावधान रखा गया था, जिसके मुताबिक, अगर सप्लायर की खामियों या उसके कर्मचारियों की लापरवाही की वजह से कोई परमाणु हादसा होता है, तो ऑपरेटर (यानी सरकार) सप्लायर कंपनी से मुआवज़ा वसूल करेगी. इस पर अमेरिका को ऐतराज़ था. वहीं दूसरी तरफ़ अमेरिका यह चाहता था कि वह भारत में अपने परमाणु सप्लाई और तकनीक की निगरानी करे. ज़ाहिर है, भारत इसके लिए तैयार नहीं था. अमेरिका का यह भी आरोप था कि भारत का नागरिक परमाणु समझौता इंटरनेशनल कन्वेंशन ऑफ़ सप्लीमेंट्री कॉम्पनसेशन के अनुरूप नहीं है, जिसकी वजह से इस समझौते को संचालित नहीं किया जा सका था.
मौजूदा समझौते (सहमति) के मुतबिक़, अमेरिका अपनी शर्तों से पीछे हट गया है और अब भारत के परमाणु संयंत्रों की केवल आईएईए के मानकों के तहत ही निगरानी हो सकेगी. बदले में भारत ने क़ानून में बदलाव किए बिना ही इस बात पर सहमति जता दी है कि दुर्घटना होने की स्थिति में मुआवज़ा देने की ज़िम्मेदारी ऑपरेटर (सरकार) और एक स्वतंत्र बीमा कंपनी की होगी. सरकार का कहना है कि कुल 1500 करोड़ रुपये का बीमा दिया जाएगा, जिसमें 750 करोड़ रुपये की राशि का बीमा एक सामान्य बीमा कंपनी करेगी और 750 करोड़ रुपये सरकार वहन करेगी. ऐसे में यह सवाल उठना लाज़िमी है कि अगर यही काम करना था, तो फिर इस समझौते को लागू करने के लिए इतने दिनों तक इंतज़ार क्यों किया गया या इसे यह माना जाए कि सरकार अमेरिका और सप्लायर कंपनियों को फ़ायदा पहुंचाना चाहती है?
2010 में इस क़ानून के संसद में पेश किए जाने के समय भाजपा ने वामपंथी पार्टियों के साथ मिलकर भारत-अमेरिका परमाणु ऊर्जा सहयोग समझौते का विरोध किया था. लोकसभा में विपक्ष की नेता और वर्तमान में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर आरोप लगाया था कि उन्होंने देश को धोखा दिया है. लेकिन सरकार बदली, तो उनके सुर भी बदल गए. हालांकि, सितंबर 2014 तक उनकी पार्टी अपने पुराने स्टैंड पर कायम रही. विदेश मंत्री बनने के बाद एक इंटरव्यू में उन्होंने भोपाल गैस त्रासदी का हवाला देते हुए कहा था कि सरकार सप्लायर लाइबिलिटी क़ानून में संशोधन नहीं करेगी, लेकिन इस दृश्य के बदलने में अधिक समय नहीं लगा.
साझा बयान : बहरहाल, 25 जनवरी के साझा बयान के दौरान जब जलवायु परिवर्तन पर चीन-अमेरिका सहमति के हवाले से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से सवाल पूछा गया कि क्या वह जलवायु परिवर्तन पर चीन-अमेरिका सहमति का दबाव महसूस कर रहे हैं, तो उन्होंने जवाब दिया कि भारत किसी देश के दबाव में नहीं आता, लेकिन दबाव है. दबाव है, आने वाले पीढ़ियों को स्वच्छ जलवायु देने का, स्वच्छ ऊर्जा देने का. उनका आशय यह भी था कि जलवायु परिवर्तन पर भारत गंभीर है और इस मुद्दे पर अपने पुराने स्टैंड से हटने को भी तैयार है, लेकिन इसके लिए अमेरिका से अपारंपरिक ऊर्जा और परमाणु ऊर्जा उत्पादन में सहयोग आवश्यक है. यह सच्चाई है कि परमाणु ऊर्जा उत्पादन में कार्बन उत्सर्जन बहुत कम होता और इसके रिएक्टर बिना रुके महीनों तक चल सकते हैं. परमाणु ऊर्जा पर अधिक निर्भरता कार्बन उत्सर्जन में कमी की वजह हो सकती है, लेकिन इसके दीर्घकालिक दुष्प्रभाव और इस पर होने वाले व्यय को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है. अब सवाल यह उठता है कि क्या परमाणु ऊर्जा को स्वच्छ ऊर्जा की श्रेणी में रखा जा सकता है? चेर्नोबिल और फुकुशीमा की घटनाओं को देखकर ऐसा नहीं कहा जा सकता है. साथ ही परमाणु संयंत्र से निकले कचरे को ठिकाने लगाने में काफी खर्च होता है और इसे रेडिएशन मुक्त होने में सैकड़ों साल लग जाते हैं. लिहाज़ा ये किसी भी समय ख़तरा उत्पन्न कर सकते हैं. परमाणु संयंत्र के बहुत सारे ख़तरों में से एक यह भी है, जिसकी वजह से बहुत सारे देश ऊर्जा के दूसरे विकल्पों के इस्तेमाल पर जोर दे
रहे हैं.
परमाणु ऊर्जा पर निर्भरता कम करने का प्रयास : परमाणु ऊर्जा उत्पादक कंपनियों के सुरक्षा के लाख दावों के बावजूद इसके ख़तरे से किसी को इंकार नहीं हो सकता. यह हादसा कितना भयानक हो सकता है, इसकी मिसालें भी मौजूद हैं. 1986 में उक्रेन की चेर्नोबिल परमाणु दुर्घटना की भयावह तस्वीर आज भी लोगों के ज़ेहन में ताज़ा है. इसी तरह 1979 की थ्री-माईल आइलैंड परमाणु दुर्घटना ने परमाणु ऊर्जा के इस्तेमाल पर सवालिया निशान लगा दिया था. जापान की फुकुशीमा परमाणु दुर्घटना तो अभी हाल की घटना है. बहरहाल, अमेरिका की थ्री-माईल आइलैंड दुर्घटना के बाद परमाणु ऊर्जा रिएक्टर चलाने वाले अनेक देशों ने परमाणु ऊर्जा पर अपनी निर्भरता कम करने के प्रयास शुरू किए. इस मामले में स्वीडन पहला देश था, जिसने 1980 में पहली बार अपने परमाणु ऊर्जा प्लांटों को फेज-आउट करने लिए जनमत संग्रह कराया था. उसके बाद स्वीडन की संसद ने 2010 तक अपने सभी परमाणु ऊर्जा प्लांट बंद करने का लक्ष्य रखा. परमाणु ऊर्जा पर निर्भरता के मामले में स्वीडन दुनिया के सबसे बड़े देशों में से एक है. इस देश के कुल उत्पादन की 40 प्रतिशत ऊर्जा परमाणु रिएक्टर से आती है. बहरहाल, ऊर्जा प्रतिस्पर्द्धा की वजह से 2010 में इस क़ानून में संशोधन किया गया, लेकिन इस देश में अब भी परमाणु ऊर्जा पर निर्भरता कम करने की कोशिश हो रही है. स्वीडन की सत्ता में भागीदार दो पार्टियों सोशलिस्ट डेमोक्रेट्स और ग्रीन पार्टी के बीच समझौता हुआ है, जिसमें शत-प्रतिशत नवीकरणीय ऊर्जा का लक्ष्य प्राप्त करने लिए एक कमीशन गठित किया गया है और परमाणु ऊर्जा को सब्सिडी देना बंद कर दिया गया है.
उसी तरह जर्मनी, इटली, बेल्जियम, ऑस्ट्रिया और स्पेन भी परमाणु ऊर्जा पर अपनी निर्भरता कम करने का प्रयास कर रहे हैं. जापान की फुकुशीमा परमाणु दुर्घटना के बाद जर्मनी ने अपने कई रिएक्टर बंद कर दिए हैं. फ्रांस परमाणु ऊर्जा पर निर्भरता के मामले में दुनिया का सबसे बड़ा देश है. वहां के राष्ट्रपति फ्रांसुवा ओलांद ने तो परमाणु ऊर्जा पर निर्भरता में कटौती को अपना चुनावी मुद्दा बनाया था. फुकुशीमा परमाणु दुर्घटना के बाद जापान में भी इसके ख़िलाफ़ जनमत तैयार हो रहा है और सरकार पर परमाणु ऊर्जा के उत्पादन में कमी का बेहद दबाव है. अमेरिका में कुल विद्युत उत्पादन का केवल 19 प्रतिशत परमाणु ऊर्जा से हासिल होता है. हालांकि, अमेरिका ने आधिकारिक तौर पर परमाणु ऊर्जा उत्पादन में कमी करने की घोषणा नहीं की है, लेकिन सच्चाई यह है कि 1979 की थ्री-माईल आइलैंड परमाणु दुर्घटना के बाद यहां कोई नया रिएक्टर कमीशन नहीं हुआ है. साथ ही प्राकृतिक गैस की क़ीमतों में कमी के कारण अब परमाणु ऊर्जा और गैस से चलने वाले बिजली घरों के उत्पादन की लागत लगभग बराबर है. इन तथ्यों से यह नतीजा निकालना मुश्किल नहीं है कि एक तरफ़ दुनिया के विकसित देश परमाणु ऊर्जा पर अपनी निर्भरता लगातार कम कर रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ़ भारत जैसे विकासशील देशों में परमाणु ऊर्जा क्षमता बढ़ाने की जैसे होड़ लगी है. मिसाल के तौर पर चीन 2020 तक अपनी परमाणु ऊर्जा उत्पादन क्षमता तीन गुना करना चाहता है.
अगर विश्व में ऊर्जा की खपत और उत्पादन पर एक नज़र डाली जाए, तो यह पता चलेगा कि नए परमाणु रिएक्टरों की स्थापना के बावजूद दुनिया में परमाणु ऊर्जा की हिस्सेदारी कुल ऊर्जा उत्पादन में कम हुई है. इंटरनेशनल एटॉमिक एनर्जी एजेंसी (आईएईए) के मुताबिक, दुनिया के कुल बिजली उत्पादन का महज 11 प्रतिशत हिस्सा परमाणु ऊर्जा का है, यह 1982 के बाद से सबसे कम है. बहरहाल, अगर पूरी दुनिया को एक साथ मिलाकर देखा जाए, तो परमाणु ऊर्जा के बिना भी दुनिया की ऊर्जा ज़रूरतें पूरी हो सकती हैं. लेकिन, यह संभव नहीं है, क्योंकि अलग-अलग देशों की ऊर्जा ज़रूरतें अलग-अलग हैं.
परमाणु संयंत्र स्थापित करने का खर्च : परमाणु ऊर्जा उत्पादन के शुरुआती दिनों में अमेरिका के एटॉमिक एनर्जी कमीशन के चेयरमैन लेविस स्ट्रॉस ने कहा था कि एक दिन ऐसा आएगा, जब परमाणु ऊर्जा की वजह से बिजली की क़ीमत कम हो जाएगी. अमेरिका में परमाणु ऊर्जा के प्रसार का विरोध करने वाली एक संस्था के मुताबिक, 2002 और 2008 के दरम्यिान एक परमाणु रिएक्टर बनाने का खर्च दो से चार अरब डॉलर था, जो 2008 में बढ़कर नौ अरब डॉलर हो गया. भारत 2013 में अमेरिका से अल्ट्रा मॉडर्न वेस्टिंगहाउस एपी-1000 न्यूक्लियर रिएक्टर खरीदने के लिए सौदेबाजी कर रहा था. तीन लाख करोड़ रुपये की लागत के इस रिएक्टर को मीठीविर्दी (गुजरात) में स्थापित करने की योजना है. एटॉमिक एनर्जी रेगुलेटरी बोर्ड के पूर्व चेयरमैन डॉ. गोपाल कृष्णन के मुताबिक, फ्रांसीसी परमाणु रिएक्टर से ऊर्जा उत्पादन का खर्च 30-35 करोड़ रुपये प्रति मेगावाट होगा, अमेरिका के एपी-1000 परमाणु रिएक्टर से ऊर्जा उत्पादन का खर्च 20-25 करोड़ रुपये प्रति मेगावाट होगा. जबकि इसी क्षमता की ताप विद्युत योजना के लिए कार्बन उत्सर्जन नियंत्रक तकनीक का खर्च पांच से सात करोड़ रुपये आएगा. परमाणु ऊर्जा उत्पादन से जुड़े तमाम ख़तरों के बावजूद अगर सरकार इससे अपनाना ही चाहती है, तो क्या प्रधानमंत्री के मेक इन इंडिया कार्यक्रम के तहत इस क्षेत्र में घरेलू टेक्नोलॉजी को नहीं आजमाया जा सकता है?
क्या है ख़तरा : परमाणु ऊर्जा संयंत्र में दुर्घटना कितनी भयानक हो सकती है, इसकी मिसालें मौजूद हैं. इस सिलसिले में आम तौर पर थ्री-माईल आइलैंड, चेर्नोबिल और फुकुशीमा परमाणु संयंत्र दुर्घटनाओं के नाम लिए जा सकते हैं. लेकिन, लीकेज की छोटी-छोटी घटनाएं आम तौर पर होती रहती हैं. चूंकि परमाणु संयंत्र में कोई प्राकृतिक या मानव निर्मित दुर्घटना बहुत बड़े पैमाने पर तबाही मचा सकती है, इसलिए परमाणु संयंत्र स्थापित करने से पहले कुछ बिंदुओं पर भी ग़ौर करना ज़रूरी है. आतंकवादियों के लिए ये आसान लक्ष्य हो सकते हैं. इस भय को सिरे से ख़ारिज नहीं किया जा सकता है कि आतंकवादी हमारे परमाणु संयंत्रों पर 9/11 की तरह का कोई हमला नहीं कर सकते. साथ में पाकिस्तान और चीन दो ऐसे पड़ोसी देश हैं, जिनके लिए ये संयंत्र आसान लक्ष्य बन जाएंगे. पाकिस्तान ने तो भारत के साथ युद्ध की स्थिति में अपने परमाणु हथियार का विकल्प हमेशा खुला रखने की बात की है. तो इसकी क्या गारंटी है कि वह एक-दूसरे के परमाणु संयंत्रों पर हमला न करने के समझौते की अवहेलना नहीं करेगा. इसके अतिरिक्त कोई प्राकृतिक आपदा भी दुर्घटना की वजह हो सकती है. फुकुशीमा की घटना भूकंप और सुनामी की वजह से घटी थी. भारत सरकार ने फिलहाल दो परमाणु संयंत्रों की स्थापना के लिए गुजरात और महाराष्ट्र को चुना है. गुजरात भूकंप के अधिक ख़तरे वाले क्षेत्र में आता है. महाराष्ट्र को भूकंप के लिहाज़ से सुरक्षित माना जाता था, लेकिन 1993 के लातूर के भूकंप ने इस अवधारणा को ग़लत साबित कर दिया. ऐसे में इन दो राज्यों में परमाणु संयंत्र स्थापित करना कहां तक उचित है.
कितनी परमाणु ऊर्जा मिलेगी : भारत में बिजली उत्पादन के मामले में परमाणु ऊर्जा का स्थान सबसे नीचे है. कोयला आज भी भारत में बिजली उत्पादन का सबसे प्रमुख ईंधन है. भारत में कुल बिजली उत्पादन में कोयले की 59.51 प्रतिशत, पनबिजली की 16.33 प्रतिशत, नवीकरणीय ऊर्जा की 12.70 प्रतिशत, प्राकृतिक गैस की 9.06 प्रतिशत, परमाणु ऊर्जा की 1.90 प्रतिशत और तेल की 0.48 प्रतिशत हिस्सेदारी है. भारत ने 2032 तक 63 हज़ार मेगावाट परमाणु ऊर्जा उत्पादन का लक्ष्य रखा है. अगर विकसित देश परमाणु ऊर्जा पर अपनी निर्भरता कम करने का लक्ष्य प्राप्त कर लेते हैं, तो 2032 तक बहुत सारे देश परमाणु ऊर्जा उत्पादन पर निर्भरता से मुक्त हो जाएंगे. ऐसे में भारत का चीन के साथ परमाणु ऊर्जा उत्पादन की होड़ में शामिल होना अमेरिकी और पश्चिमी देशों की कंपनियों को फ़ायदा पहुंचाने से अधिक कुछ भी नहीं है. और, जो लक्ष्य स्थापित किए गए हैं, उन्हें देखते हुए कहा जा सकता है कि 2033 तक भी परमाणु ऊर्जा ताप ऊर्जा और दूसरी अपरंपरागत ऊर्जा का स्थान नहीं ले पाएगी.
जहां तक ऊर्जा के स्वच्छ स्रोतों का सवाल है, तो उसके उत्पादन में खर्च अधिक होता है, लेकिन हाल के वर्षों में दुनिया के विकसित देशों की तरह भारत के एक बड़े हिस्से में सौर ऊर्जा के उत्पादन की लागत पारंपरिक ऊर्जा के तक़रीबन बराबर हो गई है. भारत में सोलर पैनलों की क़ीमतों में पिछले पांच वर्षों में 75 प्रतिशत तक कमी आई है. यह अंदाज़ा लगाया जा रहा है कि वर्ष 2020 तक सौर ऊर्जा लागत पारंपरिक ऊर्जा के बराबर हो जाएगी. वहीं पवन ऊर्जा देश के कई हिस्सों में ताप संयंत्रों से प्रतिस्पर्द्धा की स्थिति में पहुंच गई है. ऐसे में सरकार का यह कहना कि अपनी ऊर्जा ज़रूरतों को पूरा करने के लिए परमाणु ऊर्जा चुनना ज़रूरी है, तर्कसंगत नहीं लगता.
परमाणु ऊर्जा : कुछ तथ्य
- अमेरिका में कुल 104 परमाणु संयंत्र हैं. 1979 की थ्री-माईल आईलैंड दुर्घटना के बाद कोई दूसरा परमाणु संयंत्र स्थापित नहीं किया गया.
- दुनिया के 31 देशों में कुल 430 व्यवसायिक परमाणु ऊर्जा रिएक्टर हैं.
- अब तक कुल तीन बड़े परमाणु संयंत्र हादसे हुए हैं, थ्री-माईल आईलैंड (1979), चेर्नोबेल (1986) और फुकुशीमा डाइची (2011).
- दुनिया का पहला परमाणु ऊर्जा संयंत्र 27 जून, 1954 को भूतपूर्व सोवियत संघ के ओब्निन्स्क में स्थापित हुआ था.
- अमेरिका का पहला व्यवसायिक परमाणु जनरेटर शिपिंग पोर्ट रिएक्टर पेनसिलवेनिया में 1957 में शुरू हुआ था.
- अमेरिका का परमाणु संयंत्र का कचरा परमाणु संयंत्र के पास ही ठंडे पानी के पूल और सूखे हुए बक्सों में रखा जाता है. सरकार इसे युक्का पर्वत, नेवड़ा में ज़मीन के अंदर गाड़ना चाहती है, लेकिन पड़ोसी राज्य इसका विरोध कर रहे हैं.
- अमेरिका में तक़रीबन 71 हज़ार टन परमाणु कचरा है.
- परमाणु ऊर्जा संयंत्र को इस्तेमाल हो चुके यूरेनियम और रेडियोधर्मी कचरा हटाने के लिए हर 18-24 महीने में एक बार बंद करना पड़ता है.
- तारापुर एटॉमिक पॉवर स्टेशन (टीएपीएस) भारत का पहला परमाणु ऊर्जा संयंत्र था, जिसका निर्माण 1962 में शुरू हुआ था और उसने 1969 में उत्पादन करना शुरू कर दिया था.
- यूरेनियम के एक फ्यूल पेलेट (छोटा टुकड़ा) में 480 क्यूबिक मीटर प्राकृतिक गैस, 807 किलोग्राम कोयला या 149 गैलन आयल के बराबर ऊर्जा होती है.
क्या हुआ था चेर्नोबेल, फुकुशीमा और थ्री-माईल आईलैंड में?
पच्चीस साल पहले, 26 अप्रैल की सुबह दुनिया का सबसे बड़ा परमाणु हादसा लोगों ने देखा. यूक्रेन के चेर्नोबेल पावर प्लांट का एक रिएक्टर फट गया. दो धमाकों ने रिएक्टर की छत उड़ा दी और उसके अंदर के रेडियोधर्मी पदार्थ बाहर बह निकले. बाहर की हवा रिएक्टर के अंदर पहुंच गई. नतीजतन आग लग गई, जो नौ दिनों तक धधकती रही, क्योंकि रिएक्टर के चारों ओर कांक्रीट की दीवार नहीं बनी थी, इसलिए रेडियोधर्मी मलबा वायुमंडल में फैल गया. इस दुर्घटना में जो रेडियोधर्मी किरणें निकलीं, वे हिरोशिमा और नागासाकी पर गिराए गए एटम बम से 100 गुना अधिक थीं. अधिकतर मलबा चेर्नोबेल के आसपास के इलाकों में गिरा, जैसे यूक्रेन, बेलारूस और रूस. परंतु रेडियोधर्मी पदार्थों के कण उत्तरी गोलार्ध के तक़रीबन हर देश में पाए गए. इस हादसे में 32 लोगों की मौत हो गई और अगले कुछ महीनों में 38 अन्य लोग रेडियोधर्मी बीमारियों के कारण काल के गाल में समा गए. 36 घंटे के अंदर क़रीब 59,430 लोगों को वहां से निकाल कर सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया गया. इस भयानक दुर्घटना के कारण दो लाख लोगों को विस्थापित होना पड़ा. धरती का एक बड़ा भाग प्रदूषित हुआ और अनेक लोगों कों रोजी-रोटी का नुक़सान हुआ. 2005 की एक रिपोर्ट के अनुसार, क़रीब छह लाख लोग तीव्र रेडियोधर्मिता के शिकार बने और उनमें से 4,000 लोगों की कैंसर से मौत हो गई. इस पूरे प्रकरण में 200 अरब डॉलर का संभावित ऩुकसान हुआ. इसके अलावा, जीवित लोगों की मानसिकता पर जो प्रभाव पड़ा, उसे नहीं मापा जा सकता है. हादसे के बाद कई लोग शराबी हो गए और कई लोगों ने आत्महत्या कर ली. चेर्नोबेल दुर्घटना के अलावा अन्य कई परमाणु संयंत्र हादसे हो चुके हैं. सबसे पहली दुर्घटना 12 मार्च, 1952 को कनाडा स्थित चाक रिवर फसिलिटी में घटी. एक कर्मचारी ने ग़लती से दाब नियंत्रक संयंत्र के चारों वाल्व खोल दिए. परिणामस्वरूप संयंत्र का ढक्कन उड़ गया और बहुत अधिक मात्रा में परमाणु कचरे से दूषित शीतलन जल बाहर फैल गया. दूसरा हादसा 29 सितंबर, 1957 को रूस के पहाड़ी इलाके में स्थित मायक प्लूटोनियम फसिलिटी में हुआ. यह हादसा तो चेर्नोबेल से भी ख़तरनाक माना जाता है. शीतलन संयंत्र में खराबी आ जाने के कारण गरम परमाणु कचरा फट पड़ा. 2,70,000 लोग और 14,000 वर्ग मील क्षेत्र रेडियोधर्मी विकिरण की चपेट में आ गए. इतने वर्षों के बाद भी इस क्षेत्र का विकिरण स्तर बहुत अधिक है और प्राकृतिक जल स्रोत आज भी नाभिकीय कचरे से दूषित हैं. इंग्लैंड स्थित विंड स्केल न्यूक्लियर पॉवर प्लांट के हादसे में विकिरण रिसाव के कारण 200 वर्ग मील क्षेत्र दूषित हो गया. 1975 को जर्मनी में लुब्मिन न्यूक्लियर प्लांट में खराबी आ गई, परंतु एक बड़ी दुर्घटना होते-होते बच गई. 1979 में अमेरिका में पेन्सिल्वेनिया का थ्री माईल आइलैंड हादसा भी शीतलन संयंत्र में खराबी आ जाने के कारण हुआ. आसपास के लोगों को समय रहते वहां से निकाल लिया गया, परंतु फिर भी इस इलाके में कैंसर और थायराइड के रोगियों की संख्या में वृद्धि हुई तथा बच्चों की मृत्यु दर में भी इजाफा हुआ है. तोकैमुरा हादसा जापान में 1999 में घटित हुआ, जब आणविक ईंधन बनाने के लिए ग़लती से नाइट्रिक एसिड में बहुत अधिक मात्रा में यूरेनियम मिला दिया गया. 5.2 पाउंड के स्थान पर 35 पाउंड. फलस्वरूप नाभिकीय विखंडन विस्फोट 20 घंटे तक अनवरत होता रहा. संयंत्र के 42 कर्मचारी हानिकारक विकिरण के शिकार हुए, जिनमें से दो की मृत्यु हो गई.