शिवानी जयपुर
ब्रज जी की कविता एक नज़र डालने पर साधारण प्रतीत होती हैं! पर जब कविता के भीतर उतरने की कोशिश करें तो बहुत संभव है कि आप पंक्ति दर पंक्ति अचंभित होते चले जाएँ! क्योंकि साधारण शब्दों में असाधारण बात कहने में कुशल हैं ब्रज श्रीवास्तव जी!
1- इस कविता में छुपे हुए गूढ़ रहस्य, रोमांच और अफ़सोस एकाएक स्तब्ध कर सकते हैं। एक कविता पढ़ते हुए व्यक्ति के मन में यकायक उठती विस्मयता का भाव ऐसी कुशलता के साथ पिरोया गया है कि पाठक भी साथ ही साथ विस्मित हो जाता है!
“ध्यान से सुनता हुआ
इन कविताओं को
एक शख्स
पहचाना नहीं जाता”
यहाँ तक भी कविता पकड़ में आनी मुश्किल लग सकती है।
“ओह उसे नहीं आना चाहिए था
एक इल्जाम के घेरे में
कविता में खलनायक होकर
उसे नहीं आना चाहिए था.”
यहाँ आकर मेरा पाठक मन, दिमाग को एक झटका देता है और पलटकर पहुँचता है प्रथम पंक्ति पर!पूरी कविता फिर से पढ़ता हुआ अचंभित सा लौटता है आखिरी पंक्ति पर!
कविता की सबसे बड़ी विशिष्टता ये है कि इसमें पाठक को अपनी समझ से समझने के लिए असीम संभावनाएं दी गई हैं। ऐसी कविताएं खुलने पर बहुत आश्चर्यचकित करती हैं।
2-मत करो उसे फोन
कविता के विद्यार्थियों के लिए ये कविता एक आवश्यक पाठ्यक्रम की तरह समझी जा सकती है! ये एक राह सुझाती है जिस का अनुसरण कर तीव्र अनुभूति और आवेग को रचनात्मकता में बदलना सीखा जा सकता है! जो कुछ भी दिल दिमाग में है,उसे तुरंत खर्च करने की अपेक्षा एक बार संचित कर के देखा जाए! शायद यहीं से सृजनात्मकता के द्वार खुलते हैं।
कविता क्या है? अनुभूतियों का संकलन ही ना? तो बजाय काल्पनिक दृश्यों और परिस्थितियों को रचकर सोची समझी कविताई करने के,सहज स्वाभाविक और सच्चे एहसासों की ज़मीन पर सृजनशीलता को रोपा जाए! ये कविता यही खूबसूरत संदेश दे रही है।
3- समय एक स्थान है
ये समय के नियोजन को लेकर रची गई एक अद्भुत कविता है। आज के व्यस्ततम समय में मोबाइल और बिमारी सबसे अधिक समय कर कब्जा किए हुए है। कवि इनसे त्रस्त है और अपनी कल्पनाओं में अपने मन मुताबिक समय बिताने की इच्छा व्यक्त कर रहा है। बड़े शहर के मँहगे भूखण्ड से समय की तुलना अचंभित करती है!
अपने भूखण्ड पर कवि एक ऐसे भवन की परिकल्पना कर रहा है जिसमें उसके प्रकृति प्रेम को आश्रय मिले! कवि आशंकित है कि क्रोध और अशांति अनावश्यक रूप से भवन में अपनी जगह सुनिश्चित कर सकते हैं! प्रेम, घृणा,शोक, आनंद और आश्चर्य इत्यादि भावों पर मनुष्य का कोई वश नहीं चलता। इसलिए उन्हें किसी समय सीमा में नहीं बाँधा जा सकता! तो कवि अपने समय का एक बड़ा भूखण्ड अपने भीतर के समस्त भावों को आवंटित करने के लिए स्वयं प्रतिबद्ध करता है। अंतिम स्वीकारोक्ति यही प्रतिध्वनित हो यही है कि हम कितना भी नियोजित करने का प्रयास करें,समय अपनी अहमियत स्वयं तय करता है! अपने हिसाब से ही चलता है!
यहाँ एक बात अवश्य कहना चाहूंगी कि कविता को समझने में,उसका का अर्थ ढूंढने में होने वाला परिश्रम ठीक जान पड़ता है! पर शब्दों का अर्थ भी ढूंढना पड़े तो कविता का रस चला जाता है। अरबी और फारसी भाषा के शब्द जो प्रचलन में नहीं हैं, वो हमारा शब्द ज्ञान तो समृद्ध करते हैं। पर मुझे व्यक्तिगत रूप से ये प्रयोग हिंदी भाषा के हित में नहीं लगता!
कविता बहुत ही सुन्दर है।
4- साथ नहीं दिया
कब किसे साथ देना चाहिए था और अब किसने साथ नहीं दिया! इसकी पड़ताल करती हुई कविता अपनी यात्रा आरंभ करती है। और तय करती है कि शोषित वर्ग में एकता की कमी ने हमेशा से शोषण को बढ़ावा दिया है।
यात्रा में मोड़ आता है और कविता कलम से जुड़ कर साहित्य जगत में चल रही व्यापारिक गतिविधियों को निशाने पर लेती है!
ये कविता ‘देखन में छोटी लगे गांव करे गंभीर’ का उत्कृष्ट उदाहरण है।
5- पसंद
पसंद के बहाने से बाज़ारवाद और दिखावे की मानसिकता और उसके दुष्प्रभाव को इंगित करती हुई ये एक बेहतरीन कविता है! पहले इंसान अपनी पसंद के अनुसार खरीदारी करता था लेकिन क्रेडिट कार्ड जैसी तमाम सुविधाएं दिखावे की अंधी दौड़ में धकेलती हुई एक ऐसे स्थान पर ले आती हैं जहाँ कवि के अनुसार “मानक पसंद का रंग फीका हो जाता है
श्रेष्ठताएँ रह जाती हैं कम संख्या में
धीरे धीरे चलन से बाहर हो जातीं हैं”
इसके दुष्प्रभाव को इन पँक्तियों से समझना चाहिए “धन के आधिक्य के कोहरे में
कुछ असली विचार
अवसाद में डूब जाते हैं।”
मेरा मानना है कि कविता को निष्कर्षात्मक होने से बचना चाहिए। उसके सिरे खुले होने चाहिए जहाँ पाठक स्वयं को अपनी सोच के साथ स्वतंत्र अनुभव करे! ब्रज जी की कविताएं इस मानक पर एकदम खरी उतरती हैं। बहुत देर तक इनका असल बना रहता है और जितनी बार हम इन्हें पढ़ते हैं, प्रत्येक पठन में कुछ न कुछ नवीन विचार, नवीन आयामों के साथ मस्तिष्क में उथल-पुथल मचाते हैं।
आप यूँ ही अपनी लेखनी से कविताएं रचते रहें और हम उन्हें समझने के प्रयास में स्वयं को परिष्कृत करते रहें।
शुभकामनाएं 💐💐
खुदेज़ा खान,जगदलपुर।
⚫
🙏🏼🌻
अग्रज ब्रज जी की कविताओं की सभी ने प्रशंसा की , मुझे भी पसंद हैं लेकिन आज की पहली और तीसरी कविता की सम्प्रेषणीयता में बाधा महसूस हुई।
१- शीर्षक विहीन इस कविता में _
“जैसे कोई राक्षसी आती हो
सतर्क करती हो
एक बदसूरत से ख़ूबसीरत लोगों को”
इस पंक्ति का आशय अस्पष्ट है।
३ – समय एक स्थान है , बहुत अच्छी कल्पना है मगर ये भी कहीं-कहीं अव्यक्त सी रह गई है।
शेष कविताएं एक ज़िम्मेदार कवि का आभास देतीं है जो अपने समय ,परिवेश, समाज और व्यवस्था से सचेत , चिंतन शील होकर एक बदलाव और सबसे आवश्यक जागरूक होने /रहने की मांग करतीं हैं।
कविता का मुख्य स्वर कविता में निहित विचारणीय चिंतन और आंतरिक भाव हैं।
सतत सृजन की शुभकामनाएं🙏🏼💐
सोनू यशराज
बृज जी की कविताओं में सहजता से बड़ी बात कहने का हुनर है जो सृजन को साध लेने से ही आता है।
बृज सर की कविताएं संवेदना के उस जल से ओतप्रोत हैं जिसे आमजन अपनी जिंदगी की जद्दोजहद में महसूस करता है पर कह नहीं पाता ,बृज सर उस आम आदमी की जुबान बनते हैं ।कविता अपने प्रयोजन में सिद्ध होती है। कविता भाव और शब्दों का सुंदर तालमेल बनाती हैं ,बिम्ब से अपनी बात कहते हुए सुंदर अभिव्यक्ति के सौंदर्य को रचती हैं ।
पहली कविता में वे खराब लोगों की चालाकियां से आगाह करते हैं
दूसरी कविता में फोन जैसी रोजमर्रा की जरूरी चीज पर व्यक्ति की व्यस्तता से ज्यादा उसकी मनःस्थिति का उल्लेख है।
तीसरी कविता समय एक स्थान है शीर्षक से है जो मुझे बेहद पसंद आई।
इसमें सुंदर बिंबों का प्रयोग कविता को श्रेष्ठ बनाता है।
चौथी कविता साथ नही दिया शीर्षक से है जो शोषित वर्ग का मार्मिक चित्रण है ।पांचवी कविता पसंद में उन्होंने बदलते समाज में बदलती पसंद का बेहद गहन विश्लेषण किया है।
यहाँ मुझे ब्रेख्त का कथन याद आता है -कई बार अपनी इच्छा को पूरा करने के बजाय एक इंसान बनना ज्यादा महत्त्वपूर्ण है.
बृज जी की कविताएं भीड़ को इंसान बनाने की कवायद में जुटी हैं ।
उन्हें अशेष शुभकामनाएँ
सोनू यशराज
हरगोविंद मैथिल, विदिशा.
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आज पटल पर प्रस्तुत ब्रज जी की सभी रचनाएं सरल शब्दों में सहज ग्राह्य और सुंदर बिंब प्रतीकों से सुसज्जित अपने आसपास के परिवेश की मुखरित अभिव्यक्ति हैं, तथा प्रत्येक रचना में एक सकारात्मक संदेश भी छुपा हुआ है । उत्कृष्ट सृजन के लिए ब्रज जी हो हार्दिक बधाई और साकीबा का बहुत आभार
💐🙏
*हरगोविंद मैथिल*
नरेश अग्रवाल
जमशेदपुर
🟦
बृज भाई की तीसरी कविता छोड़कर मुझे सारी कविताएं बहुत अच्छी लगी। एक नए तरह का प्रयोग है । कई नई तरह की कल्पनाएं भी हैं और नये तरह का शिल्प भी। बहुत-बहुत बधाई उन्हें।🙏🙏
अजय श्रीवास्तव
*ब्रज जी की पांच कविताएं*
पहली कविता – नायक नहीं, खलनायक-
इस कविता में थोड़ा सा हरीशंकर परसाई जी की झलक दिखाई देती है।समकालीन
कविता के कथानक में या तो व्यक्ति की प्रसंशा रहती है या आलोचना …यदि आपको प्रगतिशील कवि का तमगा लेना है तो केवल व्यक्ति आलोचना का ही कथानक चुनिए…बाकी कमी रही भी तो नजरंदाज कर दी जायेगी।
अब कथानक का चयन तो कवि का अधिकार है ..पर अंतिम पद से लगता है कि कथानक चयन के लिये ध्यान स्थिति में संदेश प्राप्त होता है या जबरन कथानक चयन के लिये आदेशित/आव्हान किया गया हो …(वैसे बहती गंगा में भी हाथ धो लिये जाते हैं ,जिस विषय पर चर्चा ज्यादा हो..)
यहां कवि का मन खलनायक के प्रति आंतरिक सहानुभूति भी दिखाई देती है …
किसी निरपेक्ष कवि को विषय चयन के लिये कितनी जद्दोजहद से गुजरना पड़ता है …कविता का मूल स्वर कुछ ऐसा ही सुनाई दे रहा है।
कथानक चयन में कवि की आस्था विश्वास से ज्यादा महत्वपूर्ण तथ्यों की सत्यता ,प्रमाणिकता पर होनी चाहिये…कहीं अपुष्ट तथ्य निजी राय बन कर न रह जाये।
कई बार कवि मन मन की भड़ांस निकालने के लिये भी व्यक्ति विषय को अपरोक्ष रूप से लक्षयित कर कविता लिख लेते हैं..
तो सबसे महत्वपूर्ण यह जानना होता है कि कवि ने कोई कविता क्यों लिखी …क्या लिखा और कैसे लिखा ..उसके बाद आता है।
दूसरी कविता –
मत करो फोन
क्यों का जबाव तलाशती कविता बहुत सारे कारणों की ओर ध्यान आकर्षित करती है
कवि का फोन करने से संकोच के बहुत सारे उम्दा कारण होते हैं …वह जानना भी उतना ही जरूरी होता है … अब वे कारण कुछ इस प्रकार हो सकते है ..अर्थ संबंधी – फोन का खर्चा,सामने वाला फोन उठाएगा या नही ..अपेक्षित तवज्जो देगा या नही, अर्थ का अनर्थ तो न हो जायेगा, कहीं सामने वाला आत्मप्रसंशा या दुखड़ा रोने से परेशान तो नही ,कहीं कोई प्रेम प्रसंग तो नही ,उसके अनावरण का खतरा ,कोई उधारी लेने देने का मामला तो नही ,सामने वाला पद अनुसार कोई बड़ा दिग्गज तो नही या ऐसा तो नही पिछले बार आपने सुनाया हो और इस बार बदले में आपको सुना सकता हो…आदि आदि
खैर कारण कोई भी हो ,कविता लिखने से मन हल्का अवश्य हो जाएगा, पर ध्यान रखना पड़ेगा कि उसे सार्वजनिक होना है या नही।
तीसरी कविता – समय एक स्थान है :
अगर फोकस समयदान को लेकर है तो एक तरह से सभी सदस्य मित्रों को आग्रह भी है कि मुख्य एडमिन की कविताओं की तारीफ में कम से कम *समयदान* देकर कम से कम दो शब्द लिखकर नैतिक दायित्वों का निर्वाह अवश्य करें ..भले ही कल के दिन तक टिप्पणी देने की मियाद बढ़ जाये।एडमिन जी को भी गंभीरता पूर्वक सक्रिय सदस्यता के नियमों के पालन करवाने हेतु सोचना पड़े।
खैर ,समय और ईश्वर का जिक्र होता है तो फोकस आध्यात्मिक सा हो जाता है। शीर्षक ही प्रश्न खड़ा कर देता है कि समय एक स्थान न होकर काल तत्व है ..जिसकी परिभाषा आज तक सहज तरीके से न हो पाई ,जिस तरह से ईश्वर अपरिभाषित है …पर वह शक्ति है,जिसे समझदार भौतिकविद भी मानते हैं चाहे वह लुई पॉश्चर हों,टेस्ला हों ,आइंस्टीन हो आदि आदि ..
पहले पद से लगता है कि कहीं खामखां फोन करके परेशान तो नही कर रहा …
दूसरा पद ,वही भ्रम पैदा करने वाला है ..ईश्वरीय तत्व को लेकर …यदि लक्ष्मी जी की प्रतिमा या फ़ोटो से संबंधित हो ..आम जन जैसी आस्था हो तो अलग बात है।
तीसरा पद डिकोड करना सहज नही ..अच्छे/बुरे दिनों की फ़ोटो या तारीखें को प्रदर्शित करना है ..या अच्छे दिनों की याद दिलाते ट्राफी ,मैडल या अन्य स्म्रति चिन्ह ….
बाकी के सारे पदों की व्याख्या अकेले मैं ही क्यों करूँ ..अन्य मित्रों को भी तो डिकोड करना है।
पर इस कविता को कवि महोदय एक बार और देखिये …
चौथी कविता- साथ नही दिया-
कवि को निर्भीक होकर सृजन करना चाहिये …यह कोई प्रजातंत्र तो है नही कि पीछे से सपोर्ट करने के लिये कुछ राजनीतिक दल खड़े हुए हों …अच्छे ,सच्चे लिखे की पूछ सदैव होती रही है …साथ देना स्वार्थ, सुरक्षा,इच्छा बहुत सारी बातों पर निर्भर करती है।
इसमें ज्यादा दार्शनिक भाव न आ पाया , जैसा पिछली कविता में था।
पांचवी कविता-पसन्द-
यह कविता बाजारवाद,विज्ञापन से संबंधित लगी … विज्ञापन के दम पर वह भी बिक जाता है जिसमें योग्यता न रही …सही को सही की पहचान न मिलना,सही समय पर सम्मान न होना …ऐसे भाव क्षोभ सा उतपन्न कर देते हैं।
आज बहुत से मंत्री बाहर हो गए …कहीं टीप न लिखा तो …कहीं बाहर न कर दिया जाऊं …
ब्रज जी की लंबी साहित्यिक यात्रा है …बहुत कुछ उपलब्धियां रही हैं …और भी हुनर में पकड़ बना रहे हैं रवींद्रनाथ ठाकुर जी की तरह …
पर उनकी योग्यता को देखते हुए यह अपेक्षित है कि समकालीन कविताओं को अगले युग की ओर ले जाएं …
ब्रज जी के भावी रचनात्मक जीवन के लिये शुभेच्छाएँ
आभार साकीबा
~अजय कुमार श्रीवास्तव
आनंद उपाध्याय
पांचों कविताएं बहुत अच्छी लगीं।
अलग-अलग मिज़ाज की अलग-अलग फ़िक्र लिए हुए।
कविता में संवेदनशीलता मानवीय व्यवहार को बचाए रखने के लिए संघर्ष कर रही हैं।
कविता में यथार्थ को शामिल करते हुए, छोटे-छोटे बिम्बों से विचार को एक नई ऊंचाई दी है।
आपकी कविता में कम शब्दों में बड़े ही संश्लिष्टता के साथ महीन बात कही गई। भाषा सरल और स्पष्ट बन पड़ी है।
कविता को पढ़ने के बाद अपने आप दृश्य बनते हैं एक तस्वीर मुकम्मल होती है सामने
आपकी कविता में यथार्थ की परतें हैं ,जो पाठक को अंदर से झकझोर देती है
सोचने पर मजबूर कर दे रही है।
अच्छी कविताएं बढ़ाने के लिए आ.ब्रज श्रीवास्तव जी को साधुवाद
उज्जवल भविष्य के लिए अनंत शुभकामनाएं
बहुत-बहुत बधाई 🙏
शुक्रिया सा की बा💐