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कश्मीर का जो विवाद है, इसके तीनों पहलू हैं. इसमें इतिहास, राजनीति और सबसे बड़ी बात ये कि मनोविज्ञान का भी एक पहलू है.

प्रोफेसर अब्दुल गनी बट (लेखक हुर्रियत के वरिष्ठ नेता हैं): एक परिप्रेक्ष्य (पर्सपेक्टिव) में अपनी बात रखूंगा. जब एक परिप्रेक्ष्य में बात होती है तो उसमें आपको राजनीति के साथ-साथ इतिहास का भी ध्यान रखना पड़ता है. राजनीति और इतिहास के साथ-साथ मनोविज्ञान का भी ख्याल रखना पड़ता है. कश्मीर का जो विवाद है, इसके तीनों पहलू हैं. इसमें इतिहास, राजनीति और सबसे बड़ी बात ये कि मनोविज्ञान का भी एक पहलू है. कश्मीर की एक सामूहिक मनोवैज्ञानिक पहचान है. राजनीति और इतिहास दोनों के संदर्भ में कश्मीर के इस सामूहिक मनोवैज्ञानिकपहचान को समझना होगा.

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मैं आपको एक बात बताऊं . वह इसलिए नहीं कि मैं कोई भाषण देना चाहूंगा, बल्कि इसलिए कि बात को समझा जाए. आगे बढ़ना है और जब आगे बढ़ना होता है, तो बात को समझना पड़ता है. जब आप आगे बढ़ना ही नहीं चाहते हैं, तो बात को आप समझें या न समझें, कुछ भी नहीं होगा. लेकिन जब आप आगे बढ़ना चाहेंगे, बात को समझना चाहेंगे तो आप बहुत आगे बढ़ सकते हैं और अपनी मंजिल पा सकते हैं. मैं उसी इरादे से, उसी नीयत से, उसी सोच से आगे बढ़ने के लिए आपसे बात कर रहा हूं. जब आप (यानी भारत) आए, कश्मीर आए, आप घनगरज के साथ आए. जब आप कश्मीर आए तो बंदूकों के धमाकों और लोकतंत्र के शोरगुल के साथ आए. इसका असर यहां की सामूहिक चेतना (कलेक्टिव कॉन्शसनेस) पर पड़ा. सबने इसे देखा. सबने इसे पाया. सबने इसेे सहा. अभी मैं एक कड़वी सी बात कर रहा हूं, लेकिन ये कड़वी बात आपको सुननी पड़ेगी. क्योंकि मेरा ख्याल है कि आप भारत की सोच का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं. आप हिंदुस्तान की सोच को कुछ बतलाना चाहते हैं, तो आपको ये बात समझनी पड़ेगी.

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