मुझे एक ओबीसी समर्थक ने एक आंकड़ा दिया, कुछ नाम दिए और कुछ दर्द के साथ कहा कि क्या इसी ओबीसी की हिस्सेदारी की बात प्रधानमंत्री जी कर रहे हैं? दरअसल, इस शख्स की चिंता बिहार विधानसभा चुनाव को लेकर ज़्यादा थी, जहां ओबीसी के सवाल को लेकर भारतीय जनता पार्टी अपनी रणनीति बना रही है.इस शख्स ने मुझसे कहा कि राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ब्राह्मण हैं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बनिया हैं यानी व्यवसायी हैं, गृहमंत्री राजनाथ सिंह क्षत्रिय हैं और विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ब्राह्मण हैं.
इसके बाद यह शख्स कहता है कि सड़क एवं परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ब्राह्मण हैं, रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ब्राह्मण हैं, वित्त मंत्री अरुण जेटली ब्राह्मण हैं, महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ब्राह्मण हैं, लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ब्राह्मण हैं और प्रधानमंत्री के मुख्य सचिव नृपेंद्र मिश्रा ब्राह्मण हैं.यह शख्स एक और कहानी कहता है कि प्रधानमंत्री कार्यालय में 53 में से एक भी अधिकारी ओबीसी नहीं है. 83 केंद्रीय सचिवों में से एक भी ओबीसी नहीं है.
इतना ही नहीं, 27 केंद्रीय मंत्रियों में से 20 केवल सवर्ण हैं, सुप्रीम कोर्ट के सभी 23 न्यायाधीश सवर्ण हैं, एक भी ओबीसी नहीं है. इसके आगे यह शख्स कहता है कि 4,500 आईएएस में से 3,450 केवल सवर्ण हैं. इस शख्स का यह भी कहना है कि 85 वर्षों से ओबीसी की जनगणना नहीं हुई और 27 प्रतिशत ओबीसी की जगह उसका केवल चार प्रतिशत हिस्सा ही भरा गया है. ओबीसी को उसका 27 प्रतिशत हिस्सा मिले, इसके लिए आरक्षण दिया गया, परंतु हालत अब यह है कि ओबीसी के लोगों की नासमझी के कारण देश में आरक्षण समाप्त करने की योजना बनाई जा रही है.
ओबीसी के लोगों का तर्क है कि पहले ओबीसी का पूरा कोटा भरिए, फिर आरक्षण के ऊपर बहस कीजिए. लेकिन, जो ओबीसी में नहीं आते हैं, उनका यह कहना है कि ओबीसी में जिन जातियों को इसका फायदा मिल रहा है, वे अपने ही वर्ग की अपने से कमज़ोर जातियों को इसका फायदा लेने नहीं दे रही हैं. इसलिए जिन्हें आरक्षण का ़फायदा मिल गया, उन्हें अब आरक्षण पर से अपना हक़ छोड़ देना चाहिए और दूसरों के लिए रास्ता सा़फ करना चाहिए.
इस पक्ष में देश में एक बहस तो होनी ही चाहिए. और, बहस इस बात को लेकर हो सकती है कि जिस परिवार में दो पीढ़ियों को आरक्षण का फायदा मिला है, इसके बाद अगर उन्हें उस प्रक्रिया में जाना है, तो वे सामान्य श्रेणी में जाएं, आरक्षित श्रेणी में न जाएं. आरक्षित श्रेणी में वे जाएं, जिन्हें अब तक इसका फायदा नहीं मिला है.लेकिन, सामान्य श्रेणी के लोगों में काफी दिनों से परेशानी है.
उनका तर्क यह है कि हमसे कमज़ोर लड़के आरक्षण की वजह से आईएएस में आ जाते हैं या अन्य सरकारी नौकरियों में चले जाते हैं और हमें उसमें मौक़ा नहीं मिलता. उनका यह भी कहना है कि अब अगर प्रोन्नति में भी आरक्षण आ जाएगा, तो यह देश में बड़े पैमाने पर परेशानी पैदा करेगा. इसलिए आवश्यक है कि जो लोग आरक्षण के दायरे से बाहर हैं, उन्हें भी आरक्षण मिले और बहुत सारी जगहों पर सवर्ण जातियों ने भी आरक्षण की मांग शुरू कर दी है.
आज यह मांग मज़ाक लगती है, लेकिन कल यह मांग गंभीर रूप से सामने आकर खड़ी हो सकती है. इसलिए समाज का बदलना आवश्यक है. न केवल समाज का बदलना आवश्यक है, बल्कि सामाजिक विकास के नियमों को भी नए सिरे से देखने की ज़रूरत है. सरकारों को चाहिए कि वे समग्र विकास की योजना पर ध्यान दें. सबके लिए पढ़ाई, सबके लिए शिक्षा स़िर्फ एक नारा न रहे. यह कैसे हक़ीक़त में बदले, इस दिशा में काम होना चाहिए.
अगर यह हक़ीक़त में नहीं बदलता है, तो सरकारों को गुजरात जैसे आंदोलनों का सामना करने के लिए तैयार रहना पड़ेगा. लोग चाहते हैं कि वे किसी तरह से आरक्षण का फायदा लें. उत्तर प्रदेश में तो ऐसे किस्से सामने आए हैं, जिनमें आरक्षण पाने वाले समाज के लोगों ने दलित समाज में अपना नाम किसी तरीके से नकली सर्टिफिकेट के आधार पर शामिल कराकर दलितों के हिस्से की नौकरियां हासिल कर लीं. ये सारी चीजें चिंताजनक हैं, पर अभी कोई भी सरकार समाज और व्यवस्था को संपूर्ण रूप से देखने के लिए आगे बढ़ती नहीं दिखती.
यह सत्य है कि हमारे देश में जिस तरह का समाज है, जिस तरीके की असुविधाएं हैं, जिस तरह के अभाव हैं, जिस तरीके की संभावनाएं हैं, उनमें आरक्षण अति आवश्यक है, पर क्या यह संभव नहीं कि सरकार बजाय निजी स्कूलों को बढ़ाने या बजाय पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप के नाम पर बड़े-बड़े स्कूलों को बढ़ावा देने के हमारे गांवों में शिक्षा का एक मजबूत जाल फैलाए और उसके लिए खुद पैसा खर्च करे? देश पैसा देने में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले सकता है.
सरकार संपूर्ण शिक्षा का जाल सुदृढ़ करे और सबको इंटरमीडिएट तक शिक्षा मुहैया कराए.स्मृति ईरानी शिक्षा मंत्री हैं और वह कहती हैं कि नवंबर में नई शिक्षा प्रणाली का मसौदा देश के सामने रखा जाएगा. हमें शंका है कि उस शिक्षा प्रणाली में बुनियादी शिक्षा एवं माध्यमिक शिक्षा को सुधारने की जगह धार्मिक या वैचारिक आधार पर शिक्षा को मोड़ देने की कोशिश होगी. नई शिक्षा व्यवस्था का मतलब यह होना चाहिए कि जो शिक्षा नहीं पा रहा है, उसे शिक्षा कैसे मिले और देश में हर एक को समान अवसर मिले. अगर यह मतलब नई शिक्षा व्यवस्था का नहीं निकलता है, तो नई शिक्षा नीति बेकार है.
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक कमाल का फैसला दिया, जिसके तहत उसने कहा कि अधिकारियों, नेताओं और न्यायाधीशों के बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ें. नेताओं से मतलब विधायक एवं सांसद या जितने भी चुने हुए या नॉमिनेटेड पद हैं, उन पर काबिज लोगों के बच्चे सार्वजनिक स्कूलों में पढ़ें. अगर इन पदों पर आसीन लोग अपने बच्चों को सार्वजनिक स्कूलों में नहीं पढ़ाते हैं, तो उन्हें निजी स्कूलों में खर्च की जाने वाली धनराशि सरकारी खजाने में जमा करनी चाहिए. इसे लेकर बहुत चिल्ल-पो हुई और इसे मौलिक अधिकार के विपरीत माना गया.
यह कहा जाने लगा कि सुप्रीम कोर्ट में इस फैसले के ़िखला़फ मजबूती के साथ केस लड़ा जाए और इसे खारिज कराया जाए. इस देश में न्याय व्यवस्था है, होशियार वकील हैं, रास्ता निकाल सकते हैं और इसे खारिज भी करा सकते हैं. लेकिन, जिस बात को देश की सरकार न सोचे, उसे देश का एक उच्च न्यायालय सोच रहा है, यह एक शुभ लक्षण है. मेरा मानना है कि माध्यमिक शिक्षा तक कोई भी वैचारिक शिक्षा नहीं होनी चाहिए.
इस देश का इतिहास, भूगोल, आज़ादी की लड़ाई आदि सब चीजों के ऊपर विचार करके सर्वसुलभ शिक्षा का ताना-बाना बुना जाना चाहिए और शिक्षा में सबको समान सुुविधाएं देकर एक खुली प्रतियोगिता के लिए छोड़ देना चाहिए. अगले दस सालों में सरकारें इसे पूरा करें और दस साल के बाद देश में सारे लोग किसी भी प्रतियोगिता के लिए समान रूप से बैठें. अगर इस योजना पर काम नहीं होता, तो इस देश में न आरक्षण का ़फायदा सबको मिलेगा, न शिक्षा का फायदा सबको मिलेगा. और, हमारा समाज उसी तरह निकृष्ट से निकृष्टतम होने के रास्ते पर चल पड़ेगा, जैसे हम आज चल रहे हैं.