अजय बोकिल
क्या जानवरों के भी मनुष्य के समान अधिकार हो सकते हैं या होने चाहिए? प्राणी होने के अलावा इन दोनो में कौन-सी समानताएं हैं, जो कानूनी तौर पर उन्हें एक पलडे में रखने का आग्रह रखती हैं? ये सवाल इसलिए उठ रहे हैं क्योंकि हमारी अदालतों को भी इंसाफ के नए-नए आयामो से रूबरू होना पड़ता है। बेशक हर प्राणी के प्रति करूणा होनी चाहिए, लेकिन सभी जानवरों के लिए मनुष्यों जैसा न्याय हो, यह मांग बड़ी अजीब है। हाल में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर हुई है, जिसमें कहा गया कि देश में विभिन्न जगह पशुओं से क्रूरता के मामले सामने आ रहे हैं। हमारे धार्मिक ग्रंथों में भी लिखा है कि पशु भी मनुष्यों के समान है। उनमें भी जीवन को आगे बढ़ाने, भावनाएं व्यक्त करने वाले गुण होते हैं। इसलिए जानवरों को भी मनुष्य जैसे कानूनी अधिकार दिए जाएं ताकि उनके साथ ‘अमानवीय’ बर्ताव न किया जा सके। इस पर चीफ जस्टिस एस.ए.बोबडे ने याचिकाकर्ता से पूछा कि क्या आप जानवरों को उस हद तक कानूनी समानता दिलाना चाहते हैं, जिसमें वो मुकदमा दायर कर सकें? याचिकाकर्ता वकील ने कहा कि पूर्व में कोर्ट के फैसले तय करते हैं कि जानवर मनुष्यों के समान महत्व रखते हैं। इस पर चीफ जस्टिस का सवाल था कि क्या आपका कुत्ता आपके बराबर है? हालांकि बाद में कोर्ट ने पशु उत्पीड़न को लेकर केन्द्र सरकार को नोटिस जारी किया।
इस मांग के पीछे कुछ वैज्ञानिक शोध भी हैं, जो बताते हैं कि मनुष्येतर प्राणियों में भी इंसान-सी समझ और संवेदना होती है। आत्म चेतना होती है। इस नए विवाद के पीछे कारण सुप्रीम कोर्ट द्वारा 2014 में दिया गया वह फैसला भी है, जिसमें कहा गया था कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत हर प्रजाति (प्राणी) को जीने और सुरक्षा का अधिकार है। लिहाजा सर्वोच्च अदालत में लगी ताजा याचिका उसी का एक्सटेंशन है।
यहां सवाल उठता है कि जानवर और मनुष्य में बुनियादी फर्क क्या है? और यह भी कि जब मुख्य न्यायाधिपति प्रतिप्रश्न करते हैं कि क्या आप (मनुष्य) और कुत्ता बराबर हैं, तो इसका निहितार्थ क्या है? इसके पहले हम यह समझ लें कि पशुओं को मनुष्यों के समकक्ष माना जाए या नहीं, इसको लेकर बहस सदियों से चल रही है। भारतीय परंपरा में भी कुछ पशुओं को धार्मिक और सामाजिक दृष्टि से पवित्र और पूजनीय माना गया है। नीति कथाओं में तो प्राणी मनुष्य की तरह ही व्यवहार करते और सोचते हैं। लेकिन सामाजिक दृष्टि से पालतू प्राणियों को छोड़ दिया जाए तो बाकी जानवरों के प्रति हमारे मन में एक सामूहिक अविश्वास या भय ही रहता आया है। लेकिन बदलते वक्त में मनुष्य की बढ़ती पशु संवेदना और जागरूकता ने जानवरो को मनुष्य के समान अधिकारों की आवाज बुलंद की है। हालांकि बहुत से लोग आज भी इस क्रांतिकारी विचार से सहमत नहीं है।
हाल के वर्षों में कई वैज्ञानिक शोधों में यह बात सामने आई है कि पशुओं में भी मनुष्य सी संवेदना, करूणा, और ममता होती है। इसी के मद्देनजर पशु क्रूरता विरोधी कानून बने। क्योंकि जानवर भी जीव हैं। इस नाते उन्हें भी सम्मान के साथ जीने का पूरा अधिकार है। स्विटजरलैंड ने 1992 में अपने संविधान में संशोधन किया कि पशुओं को प्राणी माना जाए न कि वस्तु। जर्मनी ने भी पशुओं के अधिकारों को मान्यता दी है। न्यूयाॅर्क की अदालत ने माना था कि वहां पाला गया कि एक चिम्पांजी ‘चिम्पस’ एक ‘लीगल पर्सन’ है। हमारे यहां भी कुछ ऐसे कानून बने हैं। अगर संवेदनशीलता की बात करें तो मनुष्येतर प्राणी भी एक दूसरे से संभाषण करते हैं, पशु भी अपने बच्चों की केयर करते हैं। वो अपनी मूक भाषा में अपनी इच्छाएं अभिव्यक्त करते हैं। लेकिन मनुष्य से उसकी इच्छा के बगैर कुछ नहीं कराया जा सकता, जबकि पशुओं को कुछ भी करने पर विवश किया जा सकता है।
प्रसिद्ध दार्शनिक इमेन्युएल कांट के मुताबिक मनुष्य और जानवर के बीच सबसे बड़ा फर्क स्वायत्तता और स्वचलन का है। मनुष्य के लिए स्वचलन का महत्व इसलिए है कि क्योंकि वह स्वतंत्र चेता है तथा आत्म चेतना के साथ अपना कर्म कर सकता है। पशु भी स्वचालित होते हैं, लेकिन उनका स्वचलन निर्मम होता है। कांट यह भी कहते हैं कि पशुओं के प्रति हमारा कर्तव्य परोक्ष है। हम उन्हें पालते हैं तो उनकी उपयोगिता के कारण। लेकिन पशुओं के प्रति क्रूरता मानवता के प्रति क्रूरता है। दरअसल मानवता का हित भी इसी में है कि पशुओं के साथ मानवीय तरीके से व्यवहार किया जाए। एक और पश्चिमी दार्शनिक कार्ल कोहेन के मुताबिक अधिकार एक दावा है, जो कोई किसी दूसरे पर जताता है। यानी अधिकार केवल उनके ही हो सकते हैं, जो एक-दूसरे पर नैतिक दावा कर सकते हों। लेकिन इसके लिए बुद्धि, नैतिक सिद्धांतों की समझ तथा किसी भी कृत्य को निर्देशित करने की क्षमता चाहिए। इस आधार पर जानवर एक-दूसरे पर कोई नैतिक दावा नहीं कर सकते।
हालांकि यह सवाल भी जटिल है, क्योंकि पूरी दुनिया में कोरोना वैक्सीन के लिए प्राणियों पर वैज्ञानिक प्रयोग किए जा रहे हैं। इन प्रयोगों में प्राणियों की हत्या या उनका मर जाना आम बात है। ये प्रयोग मानवता की रक्षा के लिए हैं, मनुष्य को बचाने के लिए दवा की खोज के लिए हैं। इसे पशु क्रूरता या हिंसा के दायरे में नहीं माना जा सकता। क्योंकि सवाल मनुष्य को बचाने का है। अर्थात जानवरों का जीने या मरने का अधिकार मनुष्य की सुविधा और जरूरतों के हिसाब से तय होता है। इस मामले में मनुष्य की नैतिकता अलग-अलग है। यहां सवाल यह भी हो सकता है कि अगर शेर हिरन को मार कर खा ले तो क्या शेर की यह ‘हिंसा’ नैतिक रूप से गलत होगी? क्या शेर को शिकार की जगह घास खाना सीख लेना चाहिए? उसी तरह क्या हिरन का यह अधिकार नहीं होना चाहिए कि वह शेर के शिकार से बच सके। इस पर प्रति तर्क हो सकता है कि जंगल के कानून और मानव समाज के कानून में बुनियादी फर्क है। क्योंकि जंगल का अलिखित कानून वास्तव में उपयोगितावाद पर आधारित है। यहां हिरन उस फूड चेन का हिस्सा है, जो नैसर्गिक है। क्योंकि शेर का जीवन ही दूसरे प्राणी के जीवन के अंत पर निर्भर है। मानव समाज का सात्विक आग्रह ‘जीयो और जीने दो’, उस पर लागू नहीं होता। अगर लागू होगा तो शेर अपना नैसर्गिक स्वभाव ही खो देगा। यह बात अलग है कि सर्कस के पिंजरे में रहकर भी शेर घास-फूस नहीं चरता। वह मांस ही खाता है, लेकिन टुकड़ों के रूप में दिया हुआ।
यही फर्क है जानवर और इंसान में। जंगल में जानवर को हिंसा की आजादी मुख्य रूप से क्षुधापूर्ति अथवा क्षेत्राधिकार के औचित्य से मिलती है। जबकि मनुष्य ‘हिंसा का अधिकार’ अपनी स्वार्थ पूर्ति, वैचारिक दुराग्रह या फिर दंबगई को सही ठहराने के लिए ओढ़ लेता है। यह विचार भी उसकी उस नैतिकता के कारण ही जन्मता है, जिसकी व्याख्या मनुष्य अपनी सुविधा और नीयत के हिसाब से करता है। जानवर संवेदनशील होते हुए भी नैतिकता की व्याख्या और उसका एप्लीकेशन मनुष्य-सी कुटिलता के साथ नहीं कर सकते। यानी कुत्ता वफादारी में मनुष्य को मात देता हो, लेकिन बेवफाई और विश्वासघात में वह मनुष्य के कान नहीं काट सकता। क्योंकि उसकी चेतना का स्तर मनुष्य जैसी बहुआयामी और अनैतिक नहीं है। लिहाजा कुत्ता मनुष्य का मित्र तो हो सकता है, उसका प्रतिस्पर्द्धी नहीं हो सकता। मनुष्य उसे इसकी इजाजत भी नहीं देगा। इसके अलावा चेतना के साथ मनुष्य में एक अंतश्चेतना भी होती है, जो सही-गलत का फर्क करती है और चाहे तो इसके अदल-बदल भी सकती है। क्योंकि हमारी नैतिकता श्वेत-श्याम सी पारदर्शी न होकर नीयत से तय होती है। कुत्ते की नैतिकता कुल इतनी है कि उसका पालक ही सर्वस्व है। इस मर्यादा को वह क्वचित ही लांघता है। लेकिन मनुष्य स्वनिर्मित मर्यादाओं का उल्लंघन करने और कई बार उसे ही नीतिमत्ता बताने से गुरेज नहीं करता। यही मानव समाज के विभाजन, टकराव और बिखराव का कारण भी है। हम सामाजिक प्राणी होकर भी समाज को सतत तोड़ना चाहते हैं, जबकि जानवर असामाजिक होकर भी नैसर्गिक मर्यादाओं को अमूमन नहीं लांघते। इसीलिए मनुष्य और कुत्ता बराबर नहीं हो सकते। अगर जानवरों को मनुष्य के समान अधिकार दे भी दिए गए तो उनका प्रयोग भी मनुष्य ही तय करेगा। इसमें संदेह नहीं होना चाहिए !
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