किसी सरकार के लिए पिछला समय प्रस्तावना की तरह होता है. यह समय बताता है कि कौन-कौन से कार्य हो चुके हैं और कितने काम किए जाने हैं. यह समय प्रधानमंत्री को उनके कमज़ोर और मज़बूत पक्ष से भी अवगत कराता है. विदेशों में भारत की एक बेहतर छवि के निर्माण में कामयाबी मिली है. लुक ईस्ट पॉलिसी, पाकिस्तान के साथ संबंध, चाबहार की चुनौती, इन सभी मोर्चों पर मोदी की छाप नज़र आती है. लगातार दो वर्ष के सूखे के बावजूद अर्थव्यवस्था मज़बूत है. यहां तक कि महंगाई दर, खास तौर पर प्याज और दालों की कीमतों ने हेडलाइंस नहीं बटोरा है.
दिल्ली में अति आत्मविश्वास और बिहार में गलत रणनीति के कारण मिली हार के बाद असम की जीत पार्टी के उत्साह को बहाल करेगी. मोदी एक विजेता हैं. असम में अमित शाह ने पार्टी के अंदर के सांस्कृतिक योद्धाओं को व्यवस्थित रखा जिसने उनकी जीत सुनिश्चित कर दी. इस पूरी प्रक्रिया में बहुत कुछ सीखने कोेेे था. बहरहाल नवनिर्वाचित सरकार को एक विश्वास है कि लोकसभा में बहुमत कानून निर्माण की गारंटी है. लेकिन कानून निर्माण राज्यसभा के सदस्यों की मर्ज़ी पर निर्भर हो जाता है. सरकार को यह समझने में थोड़ा समय लगा कि बहुत अच्छी स्थिति में भी 2019 से पहले राज्यसभा में भाजपा कोे बहुमत नहीं मिलने वाला है. दिल्ली की राजनीति में प्रधानमंत्री की अनुभवहीनता साफ दिखती है. एक आउटसाइडर की हैसियत से उन्होंने संसदीय प्रक्रिया को अक्षरशः अपना लिया. भारत में संसद संख्या बल पर नहीं बल्कि सौदेबाजी करने की क्षमता पर चलती है. वर्ष 1989 के बाद की चार सरकारें जिन्होंने अपने पांच साल के कार्यकाल पूरे किए और जिनके पास बहुमत नहीं था, उन सरकारों ने समझौता करके ही अपना अस्तित्व बचाया. लेकिन मोदी को समझौता करने में भ्रष्टाचार की बू आती है. लिहाज़ा अनुभवी खिलाड़ियों के दांव-पेंच सीखने में बहुत सारा कीमती वक़्त खर्च हो गया.
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यही बात कार्यपालिका के लिए भी कही जा सकती है. किसी सूबे का मुख्यमंत्री तानाशाह हो सकता है, जबकि एक प्रधानमंत्री को उसकी कैबिनेट के समर्थन की आवश्यकता होती है. मोदी ने अपनी नीतियों के कार्यान्वयन के लिए नौकरशाहों पर बहुत अधिक भरोसा कर लिया. भारत में नौकरशाही कार्यकुशल तो ज़रूर है, लेकिन सुस्त है. सरकार को यह समझने में दो साल लग गए कि पब्लिक सेक्टर बैंक्स को मज़बूत करने की ज़रूरत है और इसके लिए निजीकरण बेहतर विकल्प है. लेकिन मोदी एक मॉडरेट कंज़र्वेटिव (मध्यम श्रेणी के अपरिवर्तनवादी) हैं. कीमतों में मंद गति से वृद्धि हो रही है और उत्पादन क्षेत्र में स्थिरता बनी हुई है, जिसका कारण यह है कि सरकार ने लेबर लॉ में बदलाव करने की हिम्मत नहीं दिखाई है.
जहां तक लोकप्रियता का सवाल है मोदी अब भी पहले पायदान पर हैं, इसके बावजूद बदलाव की सुस्त रफ़्तार के कारण चारों ओर निराशा है. प्रधानमंत्री ने कई पहल की है, लेकिन इसके बावजूद उन्हें विरासत में मिली व्यवस्था में अभी भी क्रांतिकारी बदलाव की आवश्यकता है जिससे इंकार नहीं किया जा सकता है.
मोदी सरकार के पास अब केवल 1092 दिन शेष हैं. अगर सूखे की स्थिति से छुटकारा हासिल कर लिया जाता है, तो उससे अर्थव्यवस्था को मजबूती मिलेगी. सुरेश प्रभु और नितिन गडकरी बुनियादी ढांचे के क्षेत्र में बड़े निवेश को आकर्षित कर रहे हैं. वहीं पीयूष गोयल को बिजली की समस्या और रविशंकर प्रसाद कोे संचार क्षेत्र की समस्याओं का समाधान एक साल के भीतर ही कर लेना चाहिए था. मेक इन इंडिया, स्टार्ट-अप इंडिया, स्वच्छ भारत और सरकार द्वारा शुरू किए गए दूसरे सामाजिक पहल जल्द परिणाम देना शुरू कर देंगे. अनुमान है कि विकास का दर अगले तीन वर्षों में 9 प्रतिशत से ऊपर होगा.
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सरकार को अब यह ज़रूर अहसास हो जाना चाहिए कि कानून पारित कराने के लिए केवल बहुमत ही नहीं बल्कि सदिच्छा (गुडविल) की भी ज़रूरत होती है. उसे कांग्रेस को लेकर बेवजह चिंतित होने की ज़रूरत नहीं है. ज़रूरत है अन्य दलों से समर्थन हासिल करने की. रघुराम राजन कोे हटाने के लिए जो ख़तरनाक आवाजें उठ रही हैं उनसे भी घबराने की आवश्यकता नहीं है. स्थानीय व्यक्ति उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना सामर्थ्य और वैश्विक बाजार का अर्थव्यवस्था में विश्वास. आप उन्हें एक्सटेंशन का प्रस्ताव दें और वह उसे स्वीकार कर लें. उसके बाद एक बड़े बहुमत के साथ आपका पुनर्निर्वाचित होना तय है.