JOBSऐसा नहीं है कि भारत में बेरोजगारी की समस्या नई है, लेकिन वर्तमान में इसने विकराल रूप धारण कर लिया है. 1991 से 2013 के बीच रोजगार के लिए जरूरतमंद लोगों की संख्या लगभग 30 करोड़ थी, लेकिन नौकरी मिली मात्र 14 करोड़ लोगों को ही. 2013 में एनडीए ने जिन मुद्दों पर यूपीए को कठघरे में खड़ा किया था, उनमें बेरोजगारी प्रमुख मुद्दा थी और विरोध के केंद्र में मुख्य रूप से कांग्रेस थी, क्योंकि देश में सबसे ज्यादा समय तक कांग्रेस ने ही शासन किया है. देश में बेरोजगारों की बड़ी तादाद को भाजपा ने भुनाने का काम किया और कहा गया कि एनडीए के सत्ता में आने पर प्रत्येक साल दो करोड़ नौकरियां पैदा की जाएंगी. लेकिन बीते तीन साल को मिला दें, तो भी मोदी सरकार एक करोड़ भी नौकरी पैदा नहीं कर सकी है. आए दिन आने वाले बेरोजगारी से सम्बन्धित आंकड़े तो इसकी तस्दीक करते ही हैं, लेकिन हाल में सरकार के रोजगार दफ्तरों से भी एक चौंकाने वाली जानकारी सामने आई है.

देशभर के 978 रोजगार दफ्तरों में 4 करोड़ 82 लाख 61 हजार 1 सौ लोग रजिस्टर्ड हैं और इस आस में हैं कि कभी न कभी सरकार की तरफ से उनकी नौकरी की कोई सूचना आएगी. लेकिन अफसोस कि यह इंतजार बढ़ता ही जा रहा है और इसी के साथ रोजगार दफ्तरों में रजिस्टर्ड बेरोजगारों की संख्या में भी इजाफा हो रहा है. यह हाल किसी एक राज्य या शहर का नहीं है. करीब सभी राज्यों में यही स्थिति है. पश्चिम बंगाल में 76 लाख 71 हजार 700 रजिस्टर्ड बेराजगार हैं, जबकि तमिलनाडु में यह संख्या 71 लाख 91 हजार, केरल में 37 लाख 32 हजार 300, महाराष्ट्र में 38 लाख 21 हजार 4 सौ, ओड़ीशा में 10 लाख 83 हजार, असम में 18 लाख 26 हजार 9 सौ और छत्तीसगढ़ में 18 लाख 49 हजार 8 सौ रजिस्टर्ड बेरोजगार हैं. लगभग 5 करोड़ इन बेरोजगारों में से महज 3 लाख 28 हजार 5 सौ लोगों को ही हाल में नौकरी मिल सकी है. किस राज्य में कितने लोगों को नौकरी मिली यह आंकड़ा भी हास्यास्पद है. दिल्ली के 14 रोजगार दफ्तरों में 11 लाख 98 हजार 200 लोगों ने नौकरी के लिए रजिस्ट्रेशन कराया, जिसमें से मात्र 200 लोगों को नौकरी मिल सकी. मध्य प्रदेश में रजिस्टर्ड बेरोजगारों की संख्या लगभग दिल्ली की दोगुनी है, लेकिन वहां भी मात्र 200 लोगों को ही नौकरी नसीब हुई. सबसे बुरा हाल तो मणिपुर का है, जहां 7 लाख 12 हजार 1 सौ लोग रजिस्टर्ड बेराजगार हैं, लेकिन कोई भी नौकरी नहीं पा सका. हालांकि यह अकेला ऐसा राज्य नहीं है, पूरे 10 राज्यों के किसी भी रोजगार दफ्तरों में रजिस्टर्ड किसी भी युवा को नौकरी नहीं मिल सकी. कुल मिलाकर देखें, तो रोजगार दफ्तर मात्र 0.7 फीसदी ही रोजगार दे पाए.

ये आंकड़े राज्य सरकारों की नाकामी के भी सबूत हैं. लेकिन ऐसा भी नहीं है कि रोजगार सृजन के मामले में केंद्र सरकार के कदम सकारात्मक दिशा में बढ़ रहे हैं. आंकड़े इस बात की गवाही देते हैं कि रोजगार सृजन की दृष्टि से मोदी सरकार अब तक के सबसे बुरे दौर से गुजर रही है. इसी साल 30 मार्च को कार्मिक एवं प्रशिक्षण राज्यमंत्री जितेन्द्र सिंह ने लोकसभा को बताया था कि 2013 की तुलना में 2015 में केंद्र सरकार की सीधी भर्तियों में 89 प्रतिशत तक की कमी आई है. गौर करने वाली बात यह भी है कि केंद्र द्वारा सीधी भर्तियों के आंकड़ों में साल दर साल कमी आती जा रही है. साल 2013 में केंद्र द्वारा की गई सीधी भर्तियों में 1,54,841 लोगों को रोजगार मिला था, जो 2014 में घटकर 1,26,261 रह गया. साल 2015 में इसमें जबर्दस्त गिरावट आई और केंद्र की तरफ से की जाने वाली भर्तियों के माध्यम से केवल 15,877 लोग ही रोजगार पा सके. नौकरियों की ये संख्या केंद्र सरकार के 74 विभागों को मिलाकर है. गौर करने वाली बात यह भी है कि हाशिए पर पड़े उन लोगों के रोजगार उत्सर्जन में भी भारी कमी आई है, जिन्हें हर सरकार अपना बताती रही है. इसी दौरान अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछड़ी जातियों को दी जाने वाली नौकरियों में 90 प्रतिशत तक की कमी आई है. साल 2013 में इन जातियों के 92,928 लोगों की केंद्र की तरफ से दी जाने वाली नौकरियों में भर्ती हुई थी, जो 2014 में घटकर 72,077 हो गई, जबकि 2015 में ऐसी नौकरियां धड़ाम से गिरीं और इनकी संख्या केवल 8,436 रह गई.

2015 में तत्कालीन श्रम मंत्री बंडारू दत्तात्रेय ने कहा था कि मोदी सरकार अगले दो साल में एक करोड़ बेरोजगारों को नौकरी देगी, जिसपर काम भी शुरू हो चुका है. लेकिन नौकरियों में बढ़ोतरी की बात कौन कहे, उल्टे बेरोजगारों की संख्या बढ़ गई. आईएलओ की रिपोर्ट के अनुसार, 2016 में देश में 1 करोड़ 77 लाख लोग बेरोजगार थे, जो आंकड़ा 2017 में बढ़कर 1 करोड़ 78 लाख हो गया. वहीं अनुमान है कि 2018 में 1 करोड़ 80 लाख लोग बेरोजगार होंगे. रोजगार सृजन के लिए सरकार ने जो कौशल विकास योजना, स्टार्टअप योजना और मुद्रा योजना शुरू की उनका भी वांछित परिणाम अब तक नहीं दिख सका है.

भारत में बढ़ती बेराज़गारी पर वैश्विक एजेंसियों की मुहर

वर्तमान सरकार जमीनी हकीकत से ज्यादा वैश्विक एजेंसियों के आंकड़ों पर विश्वास करती है. जमीनी स्तर पर लोग नोटबंदी और जीएसटी से हलकान रहे, लेकिन मूडिज की रिपोर्ट ने सरकार को जश्न मनाने का मौका दे दिया और उसी रिपोर्ट के जरिए भारत के विकास की रफ्तार को आंका जाने लगा. लिहाजा, हमें बढ़ती बेरोजगारी के मामले में भी वैश्विक एजेंसियों की रिपोर्ट पर गौर करना चाहिए. संयुक्त राष्ट्र के अंतराष्ट्रीय श्रम संगठन की रिपोर्ट में कहा गया था कि 2017-18 में भारत में बेराजगारी दर में बढ़ोतरी संभव है. वहीं हाल ही में आए निल्सन के सर्वे में भी इसका जिक्र था कि भारत में जॉब सिक्यूरिटी की चिंता 20 फीसदी पर पहुंच गई है, यानि स्पष्ट है कि लोगों में नौकरी जाने की चिंता बढ़ गई है. सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी के मुताबिक, 2017 के पहले चार महीनों में 15 लाख नौकरियां गई हैं. सरकार के अपने आंकड़े की बात करें, तो 2014-15 में जो रोजगार सृजन 3.5 लाख था, वो 2015-16 में घटकर 3.2 लाख हो गया.

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