अस्सी के दशक में एक नाटक प्रसिद्ध हुआ था – ‘एक रुका हुआ फैसला’ । दिल्ली के नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा की रेपेट्री के दिग्गज कलाकारों के द्वारा इसका मंचन हुआ था। तीन घंटे के नाटक में बारह लोगों की एक ज्यूरी को बंद कमरे में इस बात का फैसला करना है कि एक मुजरिम लड़के ने खून किया है कि नहीं। बारह लोगों में से ग्यारह लोग इस बात पर राजी हैं कि खून लड़के ने ही किया है। लोकतंत्र कहता है कि अगर एक व्यक्ति भी बहुमत के खिलाफ खड़ा है तो उसकी बात या दलील पर गौर किया जाए। अब बारह में से ग्यारह लोग इस पूरी बहस को ही बेकार समझते हैं और इसे वक्त की बरबादी कहते हैं कि जब सब कह रहे हैं कि खून लड़के ने किया है तो किया है इस पर बहस क्या करनी। पूरे नाटक में तथ्य से ज्यादा ग्यारह लोगों की मानसिकता पर गौर करना जरूरी है, जो वक्त की बरबादी समझ कर बंद कमरे में ही इधर उधर टहल रहे हैं। क्योंकि वे फैसला जानते हैं। यह उनका गुरूर भी है। अंत में ज्यूरी इस नतीजे पर पहुंचती है कि लड़का बेकसूर है।
इस नाटक के पात्रों को मैं विपक्षी दलों के नेताओं के समान मानता हूं जो किसी कंपनी बाग में एक फैसले को मूर्त रूप देने के लिए कभी कभी आकर बैठते हैं, टहलते हैं, चाय पीते हैं और यह मान कर चलते ही हैं कि हम मोदी को टक्कर देंगे और परास्त कर ही देंगे। कंपनी बाग और विपक्ष की यह सटीक कल्पना वरिष्ठ पत्रकार अभय दुबे की है जो कहीं से भी हमें गलत नहीं लगती। हम आप और लोकतंत्र में आस्था रखने वाले सब चिंतित हैं कि जिस तरह से आज देश की आत्मा को तार तार किया जा रहा है उसके परिणाम हमारी आंखों के सामने ही, क्या होंगे। मोदी की सत्ता यदि तीसरी बार भी आ गई, जो स्पष्ट नजर आ रहा है, तो क्या होगा विपक्ष का, क्या होगा सोशल मीडिया के विरोधी चैनलों का, सिविल सोसायटी के लोगों का, बुद्धिजीवियों का, वामपंथियों का, सत्य की कलम के पहरेदारों का । सब मारे जाएंगे। घसीटे जाएंगे। जेलों में ठूंसे जाएंगे।‌ कोई नहीं बचने वाला। यह सरकार न आज दुनिया के ह्यूमन राइट्स की सुन रही है, न तब सुनेगी। यह तो अपने विरोध में उठने वाली दुनिया की हर आवाज को देश के विरुद्ध एक षड़यंत्र कह कर खारिज करती रही है। लोकतंत्र के नाम पर चुने जाने के बाद एक निरंकुश सत्ता में तब्दील हो चुकी सरकार से हर किसी को भयभीत होना चाहिए। लेकिन अपने विपक्ष के आचरण और गतिविधियों को देख कर कौन कह सकता है कि वह हमारे, आपके और देश के लोगों के लिए चिंतित है।
वरिष्ठ पत्रकार श्रवण गर्ग कहते हैं कि उनके पसंदीदा सोशल मीडिया के चैनल ही विपक्ष का विरोध करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ते। कोई श्रवण गर्ग साहब से पूछे कि विपक्ष जो आपस में ही उलझा हुआ है और इसके नेता आये दिन एक दूसरे पर टिप्पणी किये जाते हैं क्या देश उन्हें नहीं देखता, उन्हें नहीं सुनता। विपक्ष के सामने सबसे बड़ी चुनौती एक होने की है। एक कैमिस्ट्री बनाने की है। एक विचारधारा तय करने की है। एक वरिष्ठ और जिम्मेदार नेता की छत्रछाया में अनुशासित होने की है। अगर यह सब न हुआ और सिर्फ सीट शेयरिंग पर ही अटके रहे तो सिर्फ और सिर्फ एक ही संदेश जनता में जाएगा कि ये लोग मोदी को हटाने के लिए इकठ्ठे हुए हैं। सत्ता में आते ही बिखरेंगे, टूटेंगे। अपने कार्यक्रम ‘अभय दुबे शो’ के अंत में अभय दुबे कहते हैं कि ‘हम आप जो चाहे समीक्षा करते रहें हालात पूरी तरह से हाथ से निकल चुके हैं। जो लोग लोकतंत्र की क्वालिटी सुनिश्चित करना चाहते हैं उनके हाथ निराशा लगने वाली है। भारत का लोकतंत्र कुछ का कुछ हो चुका है और यह जो संचार क्रांति मीडिया में हुई है उसे विचारधारात्मक तरीके से भाजपा ने अपने पक्ष में कर लिया है। यह सब करके इन्होंने ऐसा घटाटोप पैदा किया है कि उसके पार कुछ दिखता ही नहीं। अब तो कहीं कोई ईश्वर है तो वही हम लोगों को बचा सकता है।’ यानी एक बड़े पत्रकार की आस्था भी विपक्ष के नेताओं से हट कर ईश्वर पर टिक जाए तो आप क्या कहेंगे। जब साल भर पहले विपक्ष के एक होकर मोदी सरकार से लड़ने की चर्चा छिड़ी थी तो एक विश्वास बना था। जैसे जैसे समय गुजरा और लंबे लंबे अंतराल पर हमने विपक्ष की औपचारिकता भरी बैठकों को होते देखा तो यह विश्वास धीरे धीरे एक कुढ़न में बदलता गया। और इनकी सोच ! ‘सत्य हिंदी’ के मुकेश कुमार के साथ बात करते हुए माकपा के सीताराम येचुरी को सुनिए । संदर्भ था 2004 और 2024 यानी वाजपेई और मोदी के बीच के फर्क का । मुकेश कुमार ने कहा कि आपको चार और चौबीस में कोई फर्क नहीं दिखता। वे बोले, दिखता है न । बीस साल का फर्क है। येचुरी की इस समझ पर आप क्या कहेंगे।
राहुल गांधी ने मणिपुर से अपनी न्याय यात्रा शुरु कर दी है। अब आपको चाहिए कि इस यात्रा से बनी उम्मीद पर आप बैठे रहें। एक सवाल बराबर उठ रहा है कि कांग्रेस गठबंधन में सबसे बड़ी और अग्रणी पार्टी होने के बावजूद गठबंधन के दलों को अपने हर कार्यक्रम से क्यों नहीं जोड़ रही । इसका जवाब किसी ओर से नहीं आ रहा।
हमने पिछले हफ्ते लेख का शीर्षक दिया था – बौने समय का बौना समाज। बौने इंसान की बुद्धि भी अर्धविकसित होती है। विपक्ष के साथ कुछ ऐसा ही लग रहा है। उसे अपने सामने के दुश्मन को पहचानने में दिक्कत हो रही है। उसे लगता है चमत्कार होगा और यह दुष्ट सत्ता खुद ब खुद ढह जाएगी। वह शायद इस गफलत में भी है कि वोट किसे डालना है। विपक्ष का एक स्वरूप जब तक स्थायी और मजबूत होकर नीचे से नीचे तक के वोटर तक नहीं पहुंचता तब तक कोई चमत्कार नहीं होने वाला। इसके लिए सबसे पहली शर्त एक कैमिस्ट्री का बनना है।
इस बार पुलवामा की जगह राम मंदिर निर्माण ने ले ली है। उत्तर भारत या हिंदी बेल्ट और इस नजरिए से आप कह सकते हैं कि लगभग पूरा देश राम नाम की अफीम चाटा हुआ है। उसका नशा धीरे धीरे दिमाग पर गहराता जा रहा है। बुद्धि कुंद हो चली है। कुछ और सोचने की कोई जगह दिमाग में शेष नहीं रह गई। चारों शंकराचार्य मंदिर में राम मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा के विरोध में आ गए हैं लेकिन देश के बहुतायत जन-मानस तक उनकी तूती नहीं पहुंचने दी जा रही। गरीब से गरीब आदमी तक पहुंचने वाला मोदी नियंत्रित मीडिया राम मय होकर अपनी भूमिका निभा रहा है। ऐसे में कौन शंकराचार्य क्या बोल रहा है इसे कौन जानता है। पर इन्हें भी नियंत्रित किया जा रहा है। और लगभग तय है कि 22 जनवरी आते आते ये शंकराचार्य या तो मौन हो जाएंगे या मोदी की तारीफ में उतर आएंगे।
क्या अब भी आपको लगता है कि चौबीस में देश को बचा लिया जाएगा। कोई चमत्कार होगा। लोकतंत्र में कुछ भी हो सकता है ? ऐसा मानना जायज़ है ? यह तो है कि हम जितने आधुनिक सोच के होते जा रहे हैं उतना ही अंधविश्वास हममें और भी पसरता जा रहा है। तो कभी भी कुछ भी हो सकता है, यही मान कर बैठिए । आपके स्वप्न में मल्लिकार्जुन खड़गे अगले पीएम बन जाएं तो चौंकिएगा नहीं। मान ही लीजिएगा। सुखद सोचने में जाता ही क्या है !

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