फूहड़ शब्द उत्तर भारत या हिंदी बेल्ट को छोड़ शायद कहीं समझा नहीं जाता। महाराष्ट्र में भी यह शब्द परिचित नहीं है। कम से कम विदर्भ में तो नहीं। आज पूरे भारत को इससे परिचित होना चाहिए। क्योंकि यह किसी शासक से आ जुड़ा है। मोटे अर्थों में जो व्यक्ति संस्कार विहीन हो, अपने आचरण में अशिष्ट और असभ्य हो , अपने रहन सहन में उजड्ड ,गंवार और अनुशासन हीन हो , बोलचाल में बद – दिमाग सरीखा हो उसे आप फूहड़ शब्द से नवाज सकते हैं। इस प्रकार दूसरी भाषाओं में भी दूसरे अर्थों में यह समानार्थी शब्द होगा ही । बहुत समय से हम अपने शासक को खंड खंड पहचान रहे थे।
जब यह फूहड़ शब्द किसी चालाक, धूर्त, क्रूर और पाखंडी व्यक्तित्व के साथ आ जुड़े तब उसके असली रूप की पहचान करना उतना आसान नहीं होता। लेकिन पारखी लोग पहचान सकते हैं। याद कीजिए 2002 के दंगों के बाद जब भारत के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई ने गुजरात जाकर वहां के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को राजधर्म का पाठ सीखने की सलाह दी थी। वह दृश्य याद कीजिए। मोदी जी का चेहरा और उस चेहरे के पीछे की तल्खी । दंगों के बाद कुटिल मुस्कान के साथ कोई मुख्यमंत्री यह दोहराए कि हम भी तो वही (राजधर्म) कर रहे हैं साहब । ऐसे (!!) राजधर्म पर किसी शर्म का कैसा भी इज़हार नहीं। इन बीते नौ सालों में आपने सिर्फ चालाकी देखी होगी या पाखंड या फिर क्रूरता। जिसका एक भयानक रूप हमने कल देखा जब यही व्यक्तित्व एक राजदंड के साथ तमाम पाखंडों के बीच अपने घमंड के सपनों को बो रहा था और बाहर देश की प्रतिभाशाली बेटियों को पुलिस बर्बरता से घसीट रही थी। इन बेटियों की मांगों का परोक्ष सरोकार इसी एक व्यक्तित्व से था जिसे हम दुर्भाग्य से अपना प्रधानमंत्री कहते हैं। कल के पूरे तामझाम, नाटक और प्रहसन के बाद क्या नहीं कहा जा सकता कि हमारा संविधान, लोकतंत्र सब हवा हवाई होता दिख रहा है। एक रूपांतरण हो रहा है लोकतंत्र का राजशाही में और एक लोकतांत्रिक (!!) शासक का राजा के रूप में। संसद में धार्मिक अनुष्ठान किस बात की गवाही दे रहे हैं, इसे देश देख रहा है। अब यह हमारे (विवेकहीन !!) समाज पर निर्भर है कि वह इसे किस रूप में स्वीकारे या स्पष्ट अस्वीकार कर दिखाए । एक अनपढ़ और फूहड़ शख्स खुद को देश पर थोप रहा है। हमें यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि फिलहाल का समय और आने वाला शायद कुछ समय नरेंद्र मोदी का है। आप स्वयं देखें कि भारतीय जनता पार्टी के भीतर लोकतांत्रिक आवाज उठाने वाली शख्सियतें स्वयं ही समाप्त हो चुकी हैं। सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, अटल बिहारी वाजपेई जैसे लोग स्वर्ग सिधार चुके हैं। आडवाणी और दूसरे लोग कोप भवन में विराजमान हैं। इसलिए दूर दूर तक एक और सिर्फ एक व्यक्ति की दुंदुभी सी बज रही है। वक्त समय दे रहा है। अब सब कुछ 2024 के लोकसभा चुनावों पर निर्भर है। वहां भी हमें मोदी की पताका पुनः लहराती दिख रही है कुछ चमत्कार हो जाए तो अलग है। आगे का पाठ सबके सामने है। देखते हैं क्या होता है लेकिन कल हमने देखा एक फूहड़ शासक ने स्वयं को हिंदू राजा में रूपांतरित कर लिया। कोई स्वीकार करे न करे।
अब कुछ बात इधर की भी। यूट्यूब पर चैनलों की बाढ़ आई हुई है। लेकिन उसकी प्रोग्रामिंग कुछ ऐसी है कि आप जो चैनल देखें उसके बाद उसी चैनल की लाइन लग जाती है। हम सबसे ज्यादा बीबीसी को देखते हैं। ‘सत्य हिंदी’ पर ज्यादा उपयोगी सुबह विजय विद्रोही का अखबारों का कार्यक्रम है। लेकिन विजय जी अखबारों को उठा उठा कर क्यों दिखाते हैं। क्या वे समझते हैं कि श्रोता को आपकी बताई खबर पर यकीन नहीं होगा। कोई रोचक तस्वीर हो तो उसे दिखाना समझ आता है। हमें तो बड़ा भद्दा सा लगता है जब अखबार के पीछे से वे अपना चेहरा दिखाते हैं । यह उसी तरह है जैसे शनिवार के सवाल जवाब के कार्यक्रम में अंकुर के फ्रेम में भी वही चेहरे होते हैं जो उसी कार्यक्रम में लाइव भी हैं। यह कुछ कुछ फूहड़ और उजड्डपन है। विजय जी इस ओर गौर करें। वरना उनकी यह प्रस्तुति सुबह सुबह बहुत अच्छी होती है शायद उन लोगों के लिए भी जिन्हें बाद में वे अखबार पढ़ने हैं या जिन्होंने अखबार लेने ही बंद कर दिए हैं। दिल्ली में पत्रकारों या बड़े बड़े लोगों के यहां जो दस दस अखबार आते हैं उन्हें जान लेना चाहिए कि छोटे शहरों में असंख्य लोग हैं जिन्होंने अखबार लेना ही बंद कर दिया है।
मुकेश कुमार इन दिनों सत्यपाल मलिक से इंटरव्यू लेते हैं। कई लोगों से बात की मैंने सबकी राय लगभग सरीखी जान पड़ी कि बड़े हास्यास्पद से होते हैं। मलिक छोटे जवाब देकर शांत हो जाते हैं फिर एक चुप्पी। सवालों में ही जब दम नहीं होगा तो मलिक भी क्या करेंगे। ‘सेंथोल’ पर लिया उनका कार्यक्रम रोचक था क्योंकि विषय नया था और पैनलिस्ट नये थे। अपूर्वानंद ने जो कुछ कहा वह काबिले गौर है। ऐसे ही अलग से कार्यक्रमों की उनसे दरकार रहती है। उनको भूलना नहीं चाहिए कि वे प्राइम टाइम पर होते हैं। इस बार अभय दुबे शो नहीं आया। हमें पहले से ही लग रहा था। शायद न आए क्योंकि दिन भर एक नौटंकी चल रही है। वैसे हमें बताया गया कि संतोष जी दिल्ली से बाहर हैं।
‘सिनेमा संवाद’ में विषय अच्छा था – ‘अच्छे सिनेमा के दर्शक कम क्यों हैं ‘ । अच्छे और गम्भीर लोगों के साथ गम्भीर चर्चा। जवरीमल पारेख की राय ‘भीड़’ फिल्म के संदर्भ में एकदम सही लगी। ‘अफवाह’ और ‘कटहल’ पर उनकी और धनंजय की राय हमें तो सही लगी। ये फिल्में इसीलिए नहीं चल पायीं कि इनमें उठाये गये जरूरी मुद्दों के साथ ‘ट्रीटमेंट’ सही नहीं हुआ। एक और बात भी है जो आजकल प्रायः दिख रही है और जो ‘कॉरपोरेट’ जगत की देन है कि सेक्स और संभोग क्रियाओं का जरूरत हो न हो, प्रदर्शन। आजकल लगभग हर वेबसीरीज में यही मिलेगा। बल्कि कहिए कि इसके बिना हर वेबसीरीज अधूरी है। पंचायत, गुल्लक और कटहल जैसों को छोड़ दीजिए। ‘भीड़’ में ही कोई बताए राजकुमार राव और भूमि पेडनेकर के बीच संभोग का दृश्य क्यों अनिवार्य था। जातीय समस्या आधारित प्रेम के लिए क्या सेक्स अथवा सेक्स क्रिया का प्रदर्शन अनिवार्य है ? ‘भीड़’ में तो कारपोरेट का भी कोई जवाब नहीं था। पारेख साहब की राय इस फिल्म के संबंध में हमें तो सही लगी। अजय ब्रह्मात्मज ने कम और ज्यादा दर्शक पर श्याम बेनेगल के साथ का किस्सा सुनाया । सच है कि जिनके जो दर्शक हैं वो हैं। बेनेगल के दर्शक मनमोहन देसाई के नहीं हो सकते और ऐसे ही देसाई के दर्शक बेनेगल साहब के नहीं हो सकते । बहरहाल, इस कार्यक्रम के लिए अमिताभ को बधाई।
कल एक कार्यक्रम में आशुतोष रामकृपाल सिंह से भिड़ गए। अपने कार्यक्रमों में कोई बीच में भी बोल दे तो उन्हें नसीहत देने लगते हैं और बाहर के कार्यक्रमों में अक्सर आशुतोष को तू तू मैं मैं करते आप देखेंगे। चीखते चिल्लाते भी । तो खुद के कार्यक्रमों में ऐसे भोलेपन का दिखावा क्यों। इसे आप उनके चिल्ला कर नमस्कार करने वाली क्रिया से समझ सकते हैं। यह भी एक अनसुलझा सा व्यक्तित्व है । सबसे शीतल हैं शीतल पी सिंह। इसीलिए उन्हें सुनना भाता है कभी उनकी और आलोक जोशी की उपस्थिति उबाऊ नहीं लगती। हां, कभी कभी शीतल जी विषय से सरकते से दिखते भी हैं। पर उबाऊ नहीं।
बहरहाल, कल से नये राज का बीजारोपण हुआ है। इसका मुखर स्वरूप आप 2024 में देखेंगे यदि मोदी को जीत मिली तो। मोदी को संविधान की तो छोड़िए संस्कार, परंपराओं , नियम और मान्यताओं से कोई लेना देना नहीं। उनके हिसाब से तो कहिए हाथी मस्त चाल चलता है और कुत्ते अब भौंकते नहीं, रोते हैं । आगे के कुछ साल और रोएंगे। कल नयी संसद पर 75 रु का सिक्का चलाया गया। इसी तरह मोदी का सिक्का चलेगा। तब हिंदू राष्ट्र की जिद के लिए क्या कुछ नहीं होगा या जबरन किया जाएगा, इसे देखने के लिए भी तैयार रहिए।
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