देश में आर्थिक विषमता की स्थिति क्या है, इसे हम सब जानते हैं, लेकिन इस पर देश के भीतर कोई खास स्टडी नहीं होती. हाल में एक फ्रेंच अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी ने अपनी स्टडी में बताया है कि कैसे साल 1980 से 2014 के बीच, भारत की टॉप 1 फीसदी जनसंख्या और बाकी की कुल आबादी की आय में वृद्धि के बीच सबसे अधिक अंतर रहा. गरीब और अमीर के बीच यह बढ़ती आय असमानता दरअसल अमीर और गरीबों पर सरकारी नीतियों के अलग-अलग प्रभाव को दर्शाती है. 1980 और 2014 के बीच इस तरह की आय में असमानता चीन, अमेरिका और फ्रांस में भी देखी जा रही है, लेकिन भारत में यह अंतर बहुत अधिक है. 1930 में देश की कुल आय का 21 फीसदी शीर्ष कमाई वाले 1 फीसदी लोगों के पास था, जो 1980 की शुरुआत में 6 फीसदी तक गिरा, जो आज बढ़कर 22 फीसदी तक पहुंच गया है. यानी, देश की 22 फीसदी कमाई देश के 1 फीसदी लोगों के पास है. ये डेटा राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय, राष्ट्रीय लेखा आंकड़ों, कर आंकड़ों और भारतीय मानव विकास सर्वेक्षण से ली गई है. 1951 से 1980 के बीच, देश की कुल आय का 28 फीसदी नीचे की 50 फीसदी आबादी के पास था. लेकिन, 1980 से 2014 के बीच यह उल्टा हो गया. टॉप 1 फीसदी के पास 29 फीसदी कमाई आ गई और 40 फीसदी मिडल क्लास के पास 23 फीसदी कमाई आ गई. बढ़ती हुई असमानता का मतलब यह है कि अमीर और गरीब के बीच का अंतर बहुत अधिक हो गया. उदारीकरण के बाद उच्च विकास दर ने भारत में गरीबी को कम किया, लेकिन अमीरी-गरीबी की खाई को और बढ़ा दिया.
सवाल है कि क्या भारत में आर्थिक सुधारों ने असमानता को बढ़ावा दिया है? थॉमस पिकेटी की यह स्टडी तो कम से कम यही बताती है. थॉमस पिकेटी का कहना है कि 1991 से 2012 तक आय बढ़ोतरी में का़फी बढ़ोतरी हुई है, लेकिन 10 फीसदी यानी 8 करोड़ जनता के लिए भारत वास्तव में विकास कर रहा है. इन्हीं लोगों के लिए इंडिया शाइन कर रहा है. कुछ ही समय पहले संयुक्त राष्ट्र ने एक रिपोर्ट दी. इसमें बताया गया है कि भारत की सिर्फ एक फीसदी आबादी के पास पूरे भारत की 53 फीसदी संपत्ति है. इस रिपोर्ट में भारतीयों में आर्थिक दृष्टि से मौजूद इस असमानता को दूर करने के लिए सुझाव के तौर पर एक दूसरे तरह के आर्थिक मॉडल की जरूरत को बताया गया है. रिपोर्ट ‘द बेटर बिजनेस बेटर वर्ल्ड’ में कहा गया है कि आर्थिक विषमता में भारत रूस के बाद दूसरे स्थान पर है, जहां सिर्फ एक फीसदी लोगों के पास देश की 53 फीसदी संपत्ति है. 1991 में जब उदारीकरण लाया जा रहा था, तब ये कहा गया था कि आर्थिक सुधार से विकास दर में वृद्धि होगी. कहा गया कि ऊपर के स्तर पर हो रहे विकास के प्रभाव से ग़रीबी को कम किया जा सकेगा. इसे ट्रिकल डाउन थ्योरी कहा गया. यानी, ऊपर का घड़ा जब भरेगा तो उसमें से रिसते हुए धन नीचे के लोगों तक भी पहुंचेगा. 26 साल बाद, आज क्या हुआ? ग़रीबी बरक़रार है. अमीर और अधिक अमीर हुए. आज विकास दर घटकर 5.7 फीसदी तक पहुंच गया है. कुछ समय पहले, कांग्रेस सरकार के समय ये कहा गया था कि जो भी व्यक्ति प्रतिदिन 32 रुपये से अधिक कमा रहा है, वह ग़रीब नहीं है.
अब ये किसी मजाक से कम नहीं तो और क्या है? क्या कोई आदमी 32 रुपये में रोजाना गुजारा कर सकता है. आज, एक तरफ किसान हैं तो दूसरी तरफ मज़दूर. दोनों परेशान हैं. कृषि क्षेत्र में निवेश होता नहीं दिख रहा है. आए दिन अलग-अलग राज्यों में किसान आन्दोलन कर रहे हैं. दरअसल, कांग्रेस और भाजपा, दोनों एक ही आर्थिक नीति के पैरोकार हैं. ये आर्थिक नीति ही इन आर्थिक विषमताओं को पैदा कर रही है. आज किसान जमीन बेचकर शहर की तरफ पलायन कर रहा है और वहां जाकर मजदूरी कर रहा है. सरकार किसानों की जमीन विकास के नाम पर निजी कंपनियों को दे रही है. ऐसे में जब सरकार समावेशी विकास की बात करती है, तब वह जनता के साथ मजाक ही लगता है. मौजूदा केन्द्र सरकार जापान से 88 हजार करोड़ रुपए कर्ज लेकर देश में बुलेट ट्रेन ला रही है. लेकिन, दूसरी तरफ पिछले तीन महीनों में महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और राजस्थान में किसानों ने जबरदस्त आन्दोलन किए. सरकार आज तक उन्हें स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के अनुसार एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं दे सकी है. किसानों का आलू, प्याज 1 या 2 रुपए किलो खरीद कर कंपनियां उससे मुनाफा कमा रही है. लेकिन किसानों को कुछ नहीं मिल रहा है. क्या सरकार बुलेट ट्रेन की जगह इन किसानों की भलाई के लिए काम नहीं कर सकती? जाहिर है, जब तक सरकार की प्राथमिकता में बुलेट ट्रेन होगा, जब तक सरकार की आर्थिक नीति कॉरपोरेट के लिए होगी, तब तक ऐसी रिपोर्टें भी आती रहेंगी. वैसे इन रिपोर्टों का अंतिम परिणाम क्या होगा, इसका सिर्फ इंतजार किया जा सकता है. लेकिन, निश्चित तौर पर वो परिणाम भयावह ही होगा.