राहुल बजाज एकमात्र उद्योगपति हैं, जिन्होंने कहा है कि यह सरकार क्या चाहती है? अगर सरकार चाहती है कि हिन्दुस्तानी अपने रुपए वापस ले आएं, तो उसे ऐसी स्थिति बनानी चाहिए थी कि लोग खुद अपना पैसा ले आएं. अब दारोगा की धमकी से कोई डरता नहीं है. सरकार ने धमकी दी, इसके बावजूद कोई अपने रुपए लेकर यहां नहीं आया. सरकार को फिक्की, एसोचैम, ब्यूरोक्रेट और इनकम टैक्स अधिकारियों से सलाह लेनी चाहिए. ये अधिकारी रोज इन मसलों को डील करते हैं. वे सरकार को बता सकते हैं कि ऐसा कानूनी मसौदा बनाइए, जिससे सभी रुपए देश में आ जाएं. लेकिन मोदी जी और अमित शाह ऐसा कोई ढांचा नहीं बनाएंगे. रुपया स्विट्जरलैंड क्यों गया? वहां इसलिए गया, क्योंकि सरकार ने सेफ्टी को लेकर लोगों को डरा दिया.
अब चार साल में सरकार ने और डरा दिया. यहां से अच्छे-अच्छे आंत्रप्रन्योर देश छोड़ कर भाग रहे हैं. सरकार की क्या पॉलिसी है? लगता है मोदी जी अपने कमरे में अकेले सोचते रहते हैं, जबकि उन्हें दूसरों से सलाह लेनी चाहिए. वर्ल्ड बैंक ने इज ऑफ डूईंग बिजनेस कह दिया, तो सरकार ढिंढोरा पीटने लगी. यह सच नहीं है. सच यह है कि विकासशील देशों में हिन्दुस्तान की सबसे बड़ी ताकत उद्यमीकरण थी. भारत का छोटे से छोटा आदमी भी दुकानदार बनने को तैयार है. आज जो हिन्दुस्तानी देश में पचास साल से फैक्ट्रियां चला रहे हैं, उनकी फैक्ट्री अगर आप छीन रहे हैं या रुपए लेकर बंद कर रहे हैं या गिरफ्तार करने की धमकी देते हैं, तो वे देश छोड़कर भाग जाएंगे. पता नहीं, सरकार क्या चाहती है? सरकार के पास एक साल है. इसमें सरकार ज्यादा कुछ नहीं कर पाएगी, लेकिन कम-से-कम जो ट्रेन डिरेल हो गई है, उसे वापस ट्रैक पर लाने का प्रयास तो कर सकती है.
एनपीए क्या है? जिनकी ब्याज की रकम बकाया हो गई, उसे चुका नहीं पा रहे हैं. बैंकों ने उद्योगों को जो रुपए दे रखे हैं, उनके बोर्ड में बैंक के नुमाइंदे भी बैठते हैं. जहां बैंक को ये लगे कि किसी कंपनी का मालिक रुपए खा रहा है, लेकिन बैंक को नहीं दे रहा है, वहां सख्त कार्रवाई करनी चाहिए. उन्हें रुपए देना बंद कर दीजिए, कंपनी बंद कर दीजिए, लेकिन जहां बैंक के नुमाइंदे को भी मालूम है कि मार्केट के हालात खराब हैं, इसलिए नहीं दे पा रहे हैं, तो इन मामलों में कोई बीच का रास्ता निकालिए. बैंकिंग तो धंधा है. बैंक गवर्नमेंट नहीं है, टैक्स नहीं है. इंटरेस्ट टैक्स नहीं होता है.
टैक्स अलग है. बैंकों ने जो पूंजी दी है, कुछ समय के लिए इंटरेस्ट कम कर दीजिए. इससे हो सकता है कि कमाई थोड़ी कम हो जाएगी, लेकिन अगर सोना देने वाली मुर्गी को ही मार देंगे, तो फिर आपको सोने का अंडा कैसे मिलेगा? सरकार ने बैंकों को डरा दिया, हरेक के खिलाफ सीबीआई और पुलिस को लगा दिया. सरकार चाहती क्या है? बैंक बंद हो जाएं, छोटे उद्योग बंद हो जाएं, बड़े उद्योग नीलाम कर दें और इन्हें विदेशी लोग खरीद लें. मोदी जी, हमें नहीं पता कि आपके सलाहकार अरुण जेटली हैं या हंसमुख अधिया, लेकिन हम किस दिशा में जा रहे हैं.
मैं देश की बात कर रहा हूं, भाजपा या कांग्रेस की बात नहीं कर रहा हूं. जितनी इंडस्ट्रियां लगी हैं, उनको तो संजो कर रखिए. हो सकता है दस प्रतिशत कंपनियां अनवायएबल हो गई हों, यह बैंकों को मालूम है. बैंक ने जो लोन दूसरों को दिया है, उनके पास सभी की फाइल है. कंपनियों के बोर्ड में बैंक का नुमाइंदा बैठता है. जिन कंपनियों ने घपला किया है, तो उनका पैसा वसूल लीजिए. वो दस प्रतिशत भी नहीं, मात्र पांच प्रतिशत होंगे. 95 प्रतिशत उद्योगपति साधारण लोग हैं. सरकार उनको चुन-चुन कर निशाना बना रही है, क्योंकि मोदी जी की किसी से बनती नहीं है. जलन, द्वेष और गुस्सा ये सब मानवीय स्वभाव हैं, लेकिन प्रधानमंत्री में नहीं होने चाहिए. क्रोध से आप गलत निर्णय लेंगे.
यहां बहुत सारे विदेशी एजेंट हैं. एक विदेशी एजेंट कहता है कि पब्लिक सेक्टर के बैंकों का टाइम आ गया है. वे चाहते हैं कि ये बैंक उनके हवाले कर दिए जाएं. सरकार को भी पता है कि वे लोग क्या कह रहे हैं, जबकि सरकार को बैंकों का राष्ट्रीयकरण करना चाहिए, इंश्योरेंस का राष्ट्रीयकरण करना चाहिए और माइनिंग का भी राष्ट्रीयकरण करना चाहिए. माइनिंग में सबसे बड़ी चोरी है. कोल पर कांग्रेस ने भी गलत किया, लेकिन भाजपा और कांग्रेस का रास्ता एक ही है. अब रिजर्व बैंक के गवर्नर कहते हैं कि उनके पास पावर होना चाहिए. पहले रिजर्व बैंक पावरफुल था. सभी बैंक उनके अंडर थे. इंदिरा गांधी ने 19 जुलाई 1969 को 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया. 1980 में छह बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया.
19 जुलाई 1969 को जब राष्ट्रीयकरण किया गया, तब सरकार ने डिपार्टमेंट ऑफ बैंकिंग बनाया, जो पहले नहीं था. वित्त मंत्रालय में डिपार्टमेंट ऑफ रेवेन्यू, डिपार्टमेंट ऑफ इकोनॉमिक अफेयर्स, डिपार्टमेंट ऑफ बैंकिंग कर दिया. इसके बाद एक एडिशनल सेक्रेटरी बना दिया, जो सब बैंकों पर निगरानी रखे. ये तो रिजर्व बैंक के समानांतर एक अथॉरिटी बना दिया. अटल जी की सरकार ने डिपार्टमेंट ऑफ बैंकिंग से डिपार्टमेंट ऑफ फाइनेंशियल सर्विसेज नाम रख दिया. चाहे कांग्रेस सरकार हो या भाजपा, काम करने के तरीके नहीं बदले हैं. प्रधानमंत्री चाहता है कि फलना को लोन दिया जाए, तो वित्त मंत्री बैंक चेयरमैन को फोन कर देता है. फोन से काम हो जाता है, क्योंकि उसकी नौकरी मंत्री जी के हाथ में है. लोन देता है, फिर वही एनपीए हो जाता है.
पंजाब नेशनल बैंक ने लोन बैंकिंग डिपार्टमेंट के कहने से दिया है. वो बैंकिंग डिपार्टमेंट चिदंबरम के हाथ में था या जेटली के अंडर में, सवाल ये नहीं है, सवाल सिस्टम का है. यह सिस्टम गलत है. अगर आप चाहते हैं कि आगे ऐसा न हो, तो पहले इस डिपार्टमेंट को खत्म कीजिए. सारा पावर केवल रिजर्व बैंक के पास हो, अपने आप सब ठीक हो जाएगा. रिजर्व बैंक के लॉ में है. ऑडिट में भी कुछ नहीं होता है. रिजर्व बैंक के ऑडिट में वो बोल देंगे कि क्या करें साहब ऊपर से फोन आ गया, मुझे लोन देना पड़ा. ये ऊपर से फोन आने का सिस्टम बंद कीजिए. ऊपर से फोन आना है, तो रिजर्व बैंक को फोन करें. रिजर्व बैंक एहतियात बरत कर काम करेगी.
ये डिपार्टमेंट ऑफ बैंकिंग को हटाइए. हटाने में काफी देर हो चुकी है. मनमोहन सिंह के दौर में जब 1991 में नियो लिबरल इकोनॉमिक शुरू हुआ, तभी यह हो जाना चाहिए था. डिपार्टमेंट ऑफ बैंकिंग का यही मतलब था कि लोन उन्हीं को मिलेगा, जो समय पर लोन वापस दे. टैक्सी वालों, ठेले वालों, ट्रक वालों को भी लोन मिला और इसका फायदा भी हुआ है. मैं इसके खिलाफ नहीं हूं, लेकिन दोनों बातें चल सकती हैं. अगर एक लोन खराब होता है, तो क्या उसे फांसी पर चढ़ा देंगे? जैसे आप बच्चा पैदा करते हैं. अगर उसमें कोई बच्चा मर जाए, तो क्या बाप को फांसी चढ़ा देंगे? ऐसे में कोई बच्चा पैदा नहीं करेगा. इंडस्ट्री और इंटरप्राइज में भी कुछ गलती हो सकती है. सरकार को इन मामलों में इंक्वायरी करनी चाहिए.
मैं उद्योग क्षेत्र में पैदा हुआ हूं. मैं यह मानने को तैयार नहीं हूं कि कोई जान-बूझ कर अपनी इंडस्ट्री खराब करेगा. यह तो पत्रकार लोगों की भाषा है. कोई जान-बूझ कर अपनी इंडस्ट्री क्यों खराब करेगा? हिन्दुस्तान की पद्धति है कि हर आदमी अपनी इंडस्ट्री से जुड़ा पैसा निकालता है. अमेरिका और इंग्लैंड में ऐसा नहीं है. यहां के मैनेजमेंट को ही देख लीजिए. आप किसी को अप्वाइंट करते हैं. उसे कंपनी की कार देते हैं, लेकिन कंपनी पर्सनल काम के लिए भी कार यूज करती है. यहां की रवायत है. रवायत बदलने में सालों लगेंगे. उस चक्कर में पड़ने की जरूरत नहीं है.
लेकिन जो लोन आपने नीरव मोदी को दिया, तो फिर डराने की क्या जरूरत है? विजय माल्या को डराने की क्या जरूरत है? उनसे कहिए कि आपको कोई गिरफ्तार नहीं करेगा. आपने कोई मर्डर नहीं किया है. आपने रुपया लिया है, वो हमें वापस चाहिए. उनके नुमाइंदों के साथ बैठ कर बात कीजिए. कोई रास्ता निकालिए. ये तो गांव का मनी लैंडर भी समझता है कि जिसके पास रुपया अटक गया है, वहां होशियारी करने की जरूरत है. लेकिन ये सरकार है, अपनी ताकत दिखाना चाहती है. सब जाकर लंदन में बैठ गए. इससे क्या हासिल हो गया? वे डरकर लंदन में बैठ गए हैं, लेकिन सरकार ने मखौल बना दिया.
चार साल में सरकार ने वो कर दिया, जो स्वतंत्र भारत में कभी नहीं हुआ. इंदिरा गांधी की इमर्जेंसी में भी ये नहीं हुआ. इमर्जेंसी में राजनीतिक विरोधियों को जेल में डाल दिया गया था. जो राजनीति में थे और आज भी हैं, उन्हें तो इससे एतराज हो सकता है, लेकिन इससे आम आदमी को एतराज नहीं था. उनकी जिंदगी को सरकार ने तबाह नहीं किया. हालांकि लोगों ने उनके खिलाफ वोट दिया, क्योंकि उनको आजादी पसंद है.
सरकार के हाथ में चार साल थे, वो सब खत्म कर दिया. सत्रह हजार किसान पैदल चलकर मुंबई तक आए. किसी को पदयात्रा करने का शौक नहीं है. मर रहे हैं, अब क्या करें? बच्चे भूखे मर जाएंगे. उनकी पढ़ाई नहीं हो रही है. दवा का पैसा नहीं है. अब सरकार क्या करेगी, सवाल ये नहीं है. सवाल यह है कि सरकार कुछ मत करे, पुरानी व्यवस्था ही लौटा दे. जैसे देश मोदी जी के सत्ता में आने से पहले चल रहा था, वापस वैसे चले, तो वही अच्छे दिन थे. मोदी जी ने जब कहा था कि अच्छे दिन लाएंगे, तो इससे मतलब यह था कि पहले से अच्छे दिन लाएंगे. अब तो हम बहुत खराब दिन में आ गए. छोटा व्यापारी तकलीफ में है. छोटा उद्योगपति तकलीफ में है. बड़े उद्योगपति तकलीफ में हैं. किसान तकलीफ में है, तो फिर अच्छे दिन में खुश कौन है?