2 जी घोटाले में जब ए राजा पकड़े गए, तो कांग्रेस के बड़े-बड़े नेता, यहां तक कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह दो साल तक कहते रहे कि कोई घोटाला नहीं हुआ है. कोयला घोटाले में जब मनमोहन सिंह का नाम आया, तो कांग्रेस पार्टी ने कहा कि यह नीतिगत फैसला है. मजेदार बात यह है कि विपक्षी पार्टियों ने भी इन मामलों को जोर-शोर से नहीं उठाया. यह तो अदालत है, जिसकी वजह से इन घोटालों के गुनहगारों को सजा मिल रही है. हकीकत यह है कि राजनीतिक दल लोगों को बरगलाने में लगे हैं. नेता सफेद झूठ बोल रहे हैं. मीडिया भ्रम फैला रहा है. विकल्प का नाटक किया जा रहा है. महंगाई, भ्रष्टाचार, भूख, बेरोज़गारी एवं किसानों की आत्महत्या का मूल कारण मनमोहन सिंह की नव-उदारवादी नीतियां हैं. सवाल यह है कि क्या प्रधानमंत्री का बदल जाना विकल्प है? क्या एक पार्टी की सरकार हटाकर किसी दूसरी पार्टी को सत्ता में बैठा देना विकल्प है? सही मायने में विकल्प का मतलब होता है वैकल्पिक नीतियां. महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी एवं भूख आदि समस्याओं से निजात पाने के लिए नव-उदारवादी नीतियों को ख़त्म करना ज़रूरी है. इसलिए 2014 के चुनाव में नेताओं और पार्टियों को नहीं, देश की जनता को आर्थिक नीति पर फैसला करना होगा. नव-उदारवादी नीतियों को समाधान बताने वाली पार्टियों को सबक सिखाना होगा. 
p-1-hindiलोकसभा चुनाव की तैयारी हो चुकी है. कौन उम्मीदवार कहां से चुनाव लड़ेगा, भारतीय जनता पार्टी हो, कांग्रेस पार्टी हो, वामपंथी हों, क्षेत्रीय दल हों या फिर आम आदमी पार्टी, सबने जातीय समीकरण और हिंदू-मुस्लिम वोटों के जोड़-तोड़ को ध्यान में रखते हुए अपनी सूची तैयार कर ली है. कई उम्मीदवारों की घोषणा हो चुकी है और कई लोगों के नाम आने बाकी हैं. हर तरफ़ होड़ लगी हुई है. रैली, घोषणाएं, मीटिंग, पैसों का लेन-देन, पोस्टर, होर्डिंग, पर्चे एवं सोशल मीडिया, हर तरफ़ चुनाव का माहौल है. इस चुनाव में अरबों रुपये फूंक दिए जाएंगे, लेकिन चुनाव के इस कोलाहल में सबसे बड़ा सवाल अभी भी रहस्यमय तरीके से गुप्त है. यह सवाल लोगों की ज़िंदगी से जुड़ा है. यह सवाल ग़रीबों के शोषण एवं वंचितों के विकास से जुड़ा है. यह सवाल नौज़वानों के रोज़गार से जुड़ा है. देश के जल, जंगल, जमीन के भविष्य से जुड़ा है. यह सवाल देश के प्रजातंत्र के अस्तित्व से जुड़ा है. शर्मनाक बात यह है कि इस सबसे बड़े सवाल पर हर दल ने चुप्पी साध रखी है.
इस देश की सबसे बड़ी मुसीबत तो यह है कि राजनीतिक दलों और देश चलाने वाले नेताओं ने समस्या को ही समाधान समझ लिया है. जिन आर्थिक नीतियों की वजह से इस देश में ग़रीब और ज़्यादा ग़रीब होते जा रहे हैं और अमीर बेतहाशा अमीर, जिन नीतियों की वजह से देश के प्राकृतिक संसाधनों की लूट हो रही है, जिन नीतियों की वजह से विकास स़िर्फ आंकड़ों में नज़र आता है, जिन नीतियों की वजह से देश के नौज़वान बेरोज़गार घूम रहे हैं, जिन नीतियों की वजह से किसान आत्महत्या करने को मजबूर हो गए, जिन नीतियों की वजह से मज़दूरों की हालत बद से बदतर होती जा रही है, उन्हीं नव-उदारवादी नीतियों को देश के अधिकांश दलों ने एकमात्र विकल्प मान लिया है. भारतीय जनता पार्टी हो या कांग्रेस या फिर नई-नई बनी आम आदमी पार्टी, इन सबकी आर्थिक नीतियों में कोई फर्क नहीं है, क्योंकि ये सब एक स्वर में कहते हैं कि रा़ेजगार या नौकरी देना सरकार का काम नहीं है. सरकार का काम व्यापार करना नहीं होता है. यह काम उद्योग जगत का है. समझने वाली बात यह है कि ये लोग देश की अर्थव्यवस्था को बाज़ार के हाथों बंधक बनाने पर तुले हैं. बाज़ारवाद की व्यवस्था का हश्र दुनिया के कई देशों में देखा जा रहा है. यह तो भारत है, जहां के किसान अपनी मेहनत से इतना अनाज पैदा कर देते हैं कि देश में खाने-पीने की किल्लत नहीं है, वरना इन बीस सालों में भारत की हालत भूख से मर रहे अफ्रीकी देशों की तरह हो गई होती.

राजनीतिक सशक्तिकरण के साथ-साथ गांवों से पलायन रोकना भी सरकार की ज़िम्मेदारी है. आज किसान को खेती करने से ज़्यादा फायदा नहीं हो रहा है, उसे उपज की उचित क़ीमत नहीं मिलती है, उसे नुकसान हो रहा है. किसान जमीन बेचकर शहरों में नौकरी करने को मजबूर है.

यूपीए सरकार ने घोर बाज़ारवादी व्यवस्था लागू करने की नीति पर दस साल गुजारे हैं. लोगों में त्राहि-त्राहि मची हुई है. मीडिया भी बाज़ारवादी व्यवस्था का हिस्सा बन चुका है, इसलिए वह असलियत सामने लाने में असमर्थ है. हकीकत यह है कि लोग बाज़ार और पूंजीवाद के इशारे पर नाचने वाली व्यवस्था से निजात पाना चाहते हैं, लेकिन देश के सामने कोई विकल्प नहीं है. भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी का भी तर्क अजीब है. नरेंद्र मोदी कहते हैं कि यूपीए इसलिए विफल हुई, क्योंकि वह बाज़ारवादी व्यवस्था को सही ढंग से लागू नहीं कर सकी. कहने का मतलब यह है कि नरेंद्र मोदी वादा कर रहे हैं कि जब वह आएंगे, तो बाज़ारवादी व्यवस्था को सही ढंग से लागू करेंगे. इसका मतलब साफ़ है कि वही महंगाई, वही भ्रष्टाचार, वही बाज़ारवाद का साम्राज्य फैलेगा. बाकी दलों का जिक्र करना भी बेमानी है, क्योंकि उनकी न तो कोई नीति है और न देश के प्रति कोई ज़िम्मेदारी. समझने वाली बात यह है कि जिस आर्थिक नीति की पैरवी कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी कर रही हैं, वही नीति देश में महंगाई की मुख्य वजह है. सरकार हर महत्वपूर्ण वस्तुओं को अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर कर रही है. जब सरकार का अधिकार ही नहीं रहा, तो महंगाई पर नियंत्रण कौन और कैसे करेगा? मनमोहन सिंह लगातार महंगाई पर रोक लगाने की बात कहते आए, लेकिन सरकार कभी भी इसे रोक नहीं सकी. इसकी वजह भी यही है कि जब सब कुछ बाज़ार के हवाले हो जाता है, तो स़िर्फ टीवी चैनलों की बहस में महंगाई पर लगाम लगाई जा सकती है, लेकिन असलियत यही है कि बाज़ार में क़ीमतें स़िर्फ ऊपर की ओर जाती हैं. अगर नीति ही जनविरोधी हो, तो यह फर्क नहीं पड़ता है कि उसे लागू करने वाला कौन है. राहुल हों या मोदी, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है. यही वजह है कि जब इन अहम मुद्दों को लेकर अन्ना हजारे ने सारी राजनीतिक पार्टियों को खत लिखा, तो किसी ने जवाब नहीं दिया.

भारत यूरोप के देशों से काफी अलग है. भारत अफ्रीकी और अमेरिकी देशों से भी भिन्न है. यहां का आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक परिवेश भी भिन्न है, इसलिए आंख बंद करके दूसरे देशों की नीतियां एवं योजनाएं यहां लागू करना अच्छा ़फैसला नहीं है. इससे नुकसान होता है.

नव-उदारवादी नीतियां न स़िर्फ महंगाई को बेलगाम करती हैं, बल्कि वे भ्रष्टाचार की भी जननी हैं. यूपीए के 10 सालों में इतने घोटाले हुए कि इस चुनाव में भ्रष्टाचार मुद्दा बन गया है. इस दौरान अनगिनत घोटाले इसलिए हुए, क्योंकि इसमें सरकार, नेताओं एवं अधिकारियों ने कॉरपोरेट जगत के साथ मिलकर नीतिगत ़फैसले के जरिये प्राकृतिक संसाधनों की लूट की है. भ्रष्टाचार से निपटने के लिए प्राकृतिक संसाधनों को निजी कंपनियों के हवाले करने पर अविलंब रोक लगनी चाहिए, साथ ही विदेश में जमा कालेधन को राष्ट्रीय संपत्ति घोषित कर उसे वापस लाने की भी प्रक्रिया शुरू होनी चाहिए. 1991 के बाद से जिस तरह भ्रष्टाचार ने पूरी सरकारी व्यवस्था को अपनी गिरफ्त में ले लिया है, उससे संवैधानिक संस्थानों की विश्‍वसनीयता पर सवाल खड़े हो गए. भ्रष्टाचार इसलिए भी मुद्दा बना, क्योंकि अन्ना हजारे ने 2011 से भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ एक देशव्यापी आंदोलन की शुरुआत की. पूरा देश तिरंगा लेकर और मैं अन्ना हूं की गांधी टोपी पहन कर सड़क पर उतर आया. लोगों ने अन्ना का साथ इसलिए दिया, क्योंकि यूपीए शासन में भ्रष्टाचार पहली बार पंचायत और गांवों के स्तर पर जा पहुंचा. अन्ना के आंदोलन और जनतंत्र यात्रा के जरिये जनजागरण ने असर दिखाया और आख़िरकार सरकार को लोकपाल क़ानून बनाना पड़ा. वैसे अभी कई क़ानून बनने बाकी हैं. देश की जनता की बहुत ज़्यादा मांगें नहीं हैं और भ्रष्टाचार पर काफी हद तक लगाम लगाई जा सकती है, अगर सरकारी कामकाज में पारदर्शिता, सिटीजन चार्टर बिल और व्हिसल ब्लोअर की सुरक्षा हेतु क़ानून पास किया जाए. साथ ही देश में चुनाव संबंधी सुधार लाने की आवश्यकता है, जैसे कि राइट टू रिजेक्ट और राइट टू रिकॉल. विदेश और देश की सुरक्षा के मामलों को छोड़कर सरकार के हर ़फैसले की फाइल को 2 साल के बाद सार्वजनिक कर देने से शीर्ष स्तर पर होने वाले भ्रष्टाचार का खात्मा हो सकता है. लेकिन समझने वाली बात यह है कि 2014 के बाद अगर बाज़ार की पैरवी करने वाली सरकार आ गई, तो न कभी पारदर्शिता आएगी और न ही भ्रष्टाचार को ख़त्म किया जा सकेगा.
कांग्रेस और भाजपा, दोनों ही पार्टियां ऐसी आर्थिक नीतियों की पैरवी करती हैं, जिनसे शहर और गांव के विकास में विषमता पैदा होती है. भारत में अभी तक इस विषमता के दुष्परिणामों को नज़रअंदाज किया गया है, लेकिन अगर अब इसे टाला गया, तो देश अराजकता की ओर बढ़ सकता है. वैसे भी आज़ादी के इतने सालों बाद अब वक्त आ गया है कि प्रजातंत्र को जमीनी स्तर पर ले जाया जाए. ग्रामीण भारत के सशक्तिकरण का वक्त आ गया है. गांवों को स्थानीय प्रशासन में स्वायत्ता देने की ज़रूरत है. इसकी शुरुआत पंचायत को ग्रामसभा के प्रति ज़िम्मेदार बनाने से हो सकती है. यह व्यवस्था वैसी हो, जिस तरह से केंद्र और राज्यों में मंत्रिमंडल लोकसभा और विधानसभा के प्रति उत्तरदायी होता है. गांवों के सशक्तिकरण सबसे सशक्त क़दम साबित हो सकता है. इससे भारत में न स़िर्फ प्रजातंत्र को मजबूती मिलेगी, बल्कि सरकार का बोझ भी कम होगा.
राजनीतिक सशक्तिकरण के साथ-साथ गांवों से पलायन रोकना भी सरकार की ज़िम्मेदारी है. आज किसान को खेती करने से ज़्यादा फायदा नहीं हो रहा है, उसे उपज की उचित क़ीमत नहीं मिलती है, उसे नुकसान हो रहा है. किसान जमीन बेचकर शहरों में नौकरी करने को मजबूर है. किसानों की सुरक्षा के लिए सबसे पहले देश में उनकी उपजाऊ जमीनें छीनकर निजी कंपनियों को देने की नीतियों पर प्रतिबंध लगाना होगा, साथ ही कृषि का आधुनिकीकरण और उसे उद्योग से जोड़ना ज़रूरी है. किसानों की सबसे बड़ी समस्या यह है कि उन्हें वक्त पर पानी नहीं मिलता है. इससे निपटने के लिए नदियों एवं जलाशयों के निजीकरण पर रोक और जल संचय की योजनाएं लागू करके शहर के साथ-साथ गांवों में पीने एवं सिंचाई का पानी उपलब्ध कराना आवश्यक है. साथ ही गांव को इकाई मानकर कृषि आधारित उद्योगों की योजना लागू करना भी ज़रूरी है, ताकि गांवों में ही रोज़गार के अवसर मिल सकें. अगर देश के गांव खुशहाल हो गए, लोगों का पलायन रुक गया, तो देश की कई समस्याओं का एक ही झटके में हल हो सकता है. अफसोस इस बात का है कि गांवों को खुशहाल बनाने वाली नीतियों के बारे में राष्ट्रीय दलों के नेता झूठी दिलासा भी नहीं दे रहे हैं.
राजनीतिक दलों की मानसिकता में एक बहुत बड़ी कमी है. उन्हें लगता है कि सब्सिडी या सीधे पैसे देकर जनता को खुश किया जाना ही सबसे सही रास्ता है. राजनीतिक दल नीतियों के अभाव में एक रुपये किलो चावल, तो कभी टीवी सेट या कभी कर्ज माफी का खेल खेलते हैं. इस बार तो सीधे बैंक एकाउंट में पैसे जमा करने की नीति से लोगों को फुसलाने की कोशिश हुई है. अब इन राजनीतिक दलों को कौन समझाए कि इन पैसों का इस्तेमाल अगर अत्याधुनिक मूलभूत ढांचे को बनाने में किया गया होता, तो देश के लोग सरकार की मदद के बगैर खुद ही स्वावलंबी बन गए होते. लोक-लुभावन चुनावी नीतियों के बजाय अगर इन पैसों का इस्तेमाल स्वास्थ्य सेवाओं में किया गया होता, तो देश के हर गांव में स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध हो जातीं, लेकिन सरकार की यह प्राथमिकता नहीं रही. आज हालत यह है कि देश के कई जिला मुख्यालयों में सीटी स्कैन और एक्सरे करने तक की सुविधा उपलब्ध नहीं है. सरकारी संसाधनों का इस्तेमाल व्यवस्था को सुधारने में होना चाहिए. जो पैसा मनरेगा जैसी योजनाओं में बर्बाद हो गया, अगर उससे हर गांव में सौर ऊर्जा के यूनिट लगा दिए गए होते, तो देश के लाखों गांव ऊर्जा के क्षेत्र में काफी हद तक स्वावलंबी हो गए होते और पर्यावरण को भी नुकसान नहीं पहुंचता.

राजनीतिक दलों की मानसिकता में एक बहुत बड़ी कमी है. उन्हें लगता है कि सब्सिडी या सीधे पैसे देकर जनता को खुश किया जाना ही सबसे सही रास्ता है. राजनीतिक दल नीतियों के अभाव में एक रुपये किलो चावल, तो कभी टीवी सेट या कभी कर्ज माफी का खेल खेलते हैं. इस बार तो सीधे बैंक एकाउंट में पैसे जमा करने की नीति से लोगों को फुसलाने की कोशिश हुई है. अब इन राजनीतिक दलों को कौन समझाए कि इन पैसों का इस्तेमाल अगर अत्याधुनिक मूलभूत ढांचे को बनाने में किया गया होता, तो देश के लोग सरकार की मदद के बगैर खुद ही स्वावलंबी बन गए होते.

इन सबके अलावा, देश के दबे-कुचले वर्ग के लिए स्पेशल पैकेज बनाने की ज़रूरत है. देश में मुसलमानों की हालत दलितों से भी बदतर हो गई है. कांग्रेस पार्टी ने हर चुनाव से पहले मुसलमानों को बरगलाने के लिए नौकरी में आरक्षण का झांसा दिया और हर चुनाव के बाद उन्हें भूल गई. वैसे तो धर्म के नाम पर आरक्षण देना संवैधानिक तौर पर गलत है, लेकिन हर समुदाय के ग़रीबों एवं वंचितों की मदद करना सरकार का दायित्व है. बावजूद इसके, कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी ने अब तक इस मामले को ऐसा उलझा कर रखा है कि यह सांप्रदायिक रंग ले लेता है. स़िर्फ अल्पसंख्यकों के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे देश में ऐसी शिक्षा नीति की ज़रूरत है, जो सीधे रोज़गार से जुड़ती हो. पढ़-लिखकर बेरोज़गार बनाने वाली शिक्षा नीति से देश का ज़्यादा फायदा नहीं हो पा रहा है.
प्रजातंत्र में समय-समय पर चुनाव इसलिए होते हैं, ताकि जनता इस बात का ़फैसला कर सके कि सरकार किन नीतियों पर चले. राजनीतिक दलों के शासन का जनता अपने हिसाब से आकलन करती है. जो सरकारें जनता की समस्याओं का समाधान निकालने में सफल नहीं होतीं, उन्हें जनता खारिज कर देती है, सत्ता से बाहर कर देती है. मीडिया का रोल सच्चाई को सामने लाना होता है, ताकि पता चल सके कि सरकार ने असल में क्या-क्या काम किए हैं, लेकिन 2014 के चुनाव में मीडिया और राजनीतिक दल लोगों को बरगलाने का काम कर रहे हैं.
भारत यूरोप के देशों से काफी अलग है. भारत अफ्रीकी और अमेरिकी देशों से भी भिन्न है. यहां का आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक परिवेश भी भिन्न है, इसलिए आंख बंद करके दूसरे देशों की नीतियां एवं योजनाएं यहां लागू करना अच्छा ़फैसला नहीं है. इससे नुकसान होता है. मनमोहन सिंह की वजह से 1991 के बाद से भारत आईएमएफ और वर्ल्ड बैंक जैसे अंतरराष्ट्रीय संगठनों की नीतियों पर अंधाधुंध चल रहा है. कुछ लोगों को यह लगता है कि कई क्षेत्रों में विकास हो रहा है. विकास का यही एकमात्र रास्ता है. ऐसा आकलन गलत है. देश की समस्याएं पहले से जटिल होती जा रही है. हिंदुस्तान आर्थिक एवं सामाजिक संकटों के चक्रव्यूह में फंसता जा रहा है. कुछ तो सामने नज़र आ रहे हैं, कुछ कैंसर की तरह अभी छिपे हैं. 1991 के बाद से नक्सलवादी आंदोलन मजबूत हुआ है. यह 40 जिलों से बढ़कर 250 जिलों तक पहुंच चुका है. देश में युवाओं की संख्या बढ़ रही है, साथ ही बेरोज़गारी बढ़ रही है. अल्पसंख्यक, खासकर मुसलमान देश की मुख्य धारा से तो पहले ही अलग-थलग थे, अब वे आर्थिक रूप से भी कमजोर हो रहे हैं. महिलाओं के ख़िलाफ़ अत्याचार बढ़ रहा है. हिंसा बढ़ रही है. सरकारी तंत्र विफल हो रहा है. राजनीतिक नेताओं की साख ख़त्म हो रही है. इसकी वजह यह है कि देश की जनता की समस्याएं विकराल रूप धारण कर रही हैं और देश चलाने वाले बौने साबित होते जा रहे हैं. न सोच, न विचारधारा, न नीति, न विश्‍वास और न दूरदर्शिता. हर सरकार एक ही नीति चला रही है. समस्याओं को ख़त्म करने की किसी नई सोच का सृजन नहीं हो रहा है. चेहरे बदलने से समस्याएं ख़त्म नहीं होतीं, मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री बदलने से कुछ भी नहीं बदलता है, इसलिए देश की जनता को 2014 के चुनाव में आर्थिक नीतियों के आधार पर ही ़फैसला लेना होगा. देश को अराजकता और गृहयुद्ध से बचाने का यही एकमात्र उपाय है.

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