भाजपा के 15 सालों के शासन काल में एक के बाद एक उजागर हुए घोटालों की फेहरिस्त देखें, तो मध्य प्रदेश की पहचान घोटाला प्रदेश के रूप में बनती दिख रही है. पिछले साल नवंबर में पूर्व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अरुण यादव ने 12 सालों में हुए 156 प्रमुख घोटालों की सूची भी जारी की थी इन सब में सबसे कुख्यात व्यापम घोटाला है. व्यापम घोटाले को देश के सबसे बड़े भर्ती घोटाले के रूप में जाना जाता है.
घोटालों के लिए बदनाम रहे मध्य प्रदेश में इन दिनों ई-टेंडर घोटाले की चर्चा जोरों पर है. यह अपने तरह का अनोखा घोटाला है, जिसमें घोटाला रोकने के लिए बनाई गई व्यवस्था को ही घोटाले का जरिया बना दिया गया. जिस तरह से इस पूरे खेल को अंजाम दिया गया, वह डिजिटल इंडिया पर भी गंभीर सवाल खड़े कर रहा है. व्यापम की व्यापकता को भी बौना करने वाला यह घोटाला मध्यप्रदेश का अब तक का सबसे बड़ा घोटाला हो सकता है. अनुमान लगाया जा रहा है कि यह करीब 3 लाख करोड़ रुपए का घोटाला है, जिसमें से अभी तक 1500 करोड़ रुपए का घपला पकड़ा जा चुका है. इस पूरे मामले के तार सत्ता के शीर्ष से जुड़े हुए दिखाई पड़ रहे हैं. इसमें पांच आईएएस अधिकारियों की संलिप्तता सामने आई है और गौर करने वाली बात यह है कि ये अधिकारी मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के करीबी माने जाते हैं.
चुनाव से कुछ ही महीने पहले उजागर हुए इस घोटाले ने सूबे की सियासत में उबाल ला दिया है. विपक्ष को एक बड़ा मुद्दा मिल गया है और उसने इस मामले में सरकार की घेराबंदी तेज कर दी है. वहीं हर मामले पर बढ़-चढ़ कर बोलने वाले शिवराज सिंह चौहान इस घोटाले को लेकर पूरी तरह से खामोश हैं. उल्टे उनकी सरकार के इस ई-टेंडरिंग के घपले को उजागर करने वाले अधिकारी मनीष रस्तोगी को जबरन छुट्टी पर भेज दिया गया है, साथ ही उन्हें संबंधित विभाग से भी हटा दिया गया है.
उल्टी कार्रवाई
ई-टेंडरिंग में बड़े पैमाने पर होने वाले घपले का खुलासा सबसे पहले लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी (पीएचई) में हुआ, जहां एक सजग अधिकारी द्वारा पाया गया कि ई-प्रोक्योंरमेंट पोर्टल में टेम्परिंग करके हजार करोड़ रुपए मूल्य के तीन टेंडरों के रेट बदल दिए गए थे. इस मामले में गड़बड़ी को लेकर विज्ञान व प्रौद्योगिकी विभाग के प्रमुख सचिव मनीष रस्तोगी ने पीएचई के प्रमुख सचिव प्रमोद अग्रवाल को पत्र लिखा. इसके बाद, तीनों टेंडर निरस्त कर दिए गए. खास बात यह है कि इनमें से दो टेंडर उन पेयजल परियोजनाओं के हैं, जिनका शिलान्यास प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 23 जून को करने वाले थे. दरअसल, इस पूरे खेल में ई-पोर्टल में टेंपरिंग से दरें संशोधित करके टेंडर प्रक्रिया में बाहर होने वाली कंपनियों को टेंडर दिलवा दिया जाता था.
इस तरह से मनचाही कंपनियों को कॉन्ट्रैक्ट दिलवाने का काम बहुत ही सुव्यवस्थित तरीके से अंजाम दिया जाता था. इस खुलासे ने एक तरह से मध्यप्रदेश में ई-टेंडरिंग व्यवस्था की पोल खोल कर रख दी है और इसके बाद एक के बाद एक कई विभागों में ई-प्रोक्योरमेंट सिस्टम में हुए घपलों के मामले सामने आ रहे हैं. अभी तक अलग-अलग विभागों के 1500 करोड़ रुपए से ज्यादा के टेंडरों में गड़बड़ी सामने आ चुकी है, जिसमें मध्य प्रदेश रोड डेवलपमेंट कॉरपोरेशन (एमपीआरडीसी), लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी, जल निगम, महिला बाल विकास, लोक निर्माण, नगरीय विकास एवं आवास विभाग, नर्मदा घाटी विकास जल संसाधन सहित कई अन्य विभाग शामिल हैं.
इस घोटालों को लेकर मुख्यमंत्री शिवराज के नजदीकी माने जाने वाले करीब आधा दर्जन आईएएस शक के दायरे में हैं. इनमें पीडब्ल्यूडी के प्रमुख सचिव मोहम्मद सुलेमान का नाम प्रमुखता से उभर कर सामने आ रहा है, जिनके बारे में कहा जाता है कि इन्होंने अपनी लाबिंग से मंत्री यशोधरा राजे सिंधिया को उद्योग मंत्रालय से बाहर करवा दिया था. मोहम्मद सुलेमान पर नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह ने भी आरोप लगाया है. उन्होंने कहा है कि मामला सामने आने के बाद मोहम्मद सुलेमान पीडब्ल्यूडी मुख्यालय के परियोजना क्रियान्वयन यूनिट से वहां के संचालक की अनुपस्थिति में दो बस्ते फाइलें बंधवाकर ले गए थे, जबकि वहां से फाइलें लेने के लिए एक निर्धारित प्रक्रिया का पालन करना होता है और इसके लिए जिम्मेदारी तय है. अजय सिंह ने सवाल उठाया है कि आखिर फाइलों में ऐसा क्या था, जो सुलेमान खुद अपने वल्लभ भवन से निकलकर निर्माण भवन गए? उन्होंने इसे लेकर भी सवाल किया है कि मोहम्मद सुलेमान आखिर वो फाइलें कहां लेकर गए?
सरकारी लीपापोती
इधर, इस पूरे मामले में शिवराज सरकार लीपापोती वाला रवैया अपना रही है. सरकार की तरफ से प्रयास किया जा रहा है कि किसी तरह से इस मामले पर पर्दा डाल दिया जाय. सरकार इस पूरे मामले को तकनीकी खामी कहकर बच निकलने का प्रयास कर रही है. वेबसाइट हैक होने को कारण बताकर सरकार इस मामले से अपना पीछा छुड़ाना चाहती है. सरकार की यह भी कोशिश है कि इस मामले को लेकर सवालों के कठघरे में खड़े खास अधिकारियों को बचाया जा सके.
एक तरफ सरकार दोषी अधिकारियों को शह दे रही है, वहीं दूसरी तरफ इस घोटाले को उजागर करने वाले अधिकारी मनीष रस्तोगी को ही उनके पद से हटाते हुए छुट्टी पर भेज दिया गया है. ऐसा होने से, उनके द्वारा इस घोटालों को लेकर जुटाए गए सबूतों से छेड़छाड़ की पूरी संभावना है. एक तरफ तो मध्य प्रदेश सरकार के प्रवक्ता और जनसंपर्क मंत्री नरोत्तम कहते हैं कि चवन्नी का घोटाला नहीं हुआ है, तो वहीं दूसरी तरफ इसकी जांच आर्थिक अपराध प्रकोष्ठ (ईओडब्लू) को सौंप दिया जाता है. ऐसे में स्वाभाविक सवाल उठता है कि अगर कोई घोटाला ही नहीं हुआ, तो फिर जांच किस बात की कराई जा रही है.
इस पूरे मामले की जांच ईओडब्लू को सौपे जाने को लेकर भी विपक्ष ने सवाल उठाया है. नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह ने आरोप लगाया है कि व्यापम की तरह इस मामले में भी जांच के नाम पर तथ्यों के साथ छेड़छाड़ किया जा रहा है. दरअसल, मध्य प्रदेश में ईओडब्ल्यू किसी भी जांच प्रक्रिया को अत्यंत धीमी कर देने और ठंडे बस्ते में डाल देने के लिए बदनाम रही है. इसलिए शिवराज सरकार द्वारा इस घोटाले को उजागर करने वाले अधिकारी को छुट्टी पर भेजना और आनन-फानन में इसकी जांच ईओडब्ल्यू को सौंपना, उनकी मंशा पर गंभीर सवाल खड़ा करते हैं.
15 साल, घोटालों के नाम
भाजपा के 15 सालों के शासन काल में एक के बाद एक उजागर हुए घोटालों की फेहरिस्त देखें, तो मध्य प्रदेश की पहचान घोटाला प्रदेश के रूप में बनती दिख रही है. पिछले साल नवंबर में पूर्व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अरुण यादव ने 12 सालों में हुए 156 प्रमुख घोटालों की सूची भी जारी की थी इन सब में सबसे कुख्यात व्यापम घोटाला है. व्यापम घोटाले को देश के सबसे बड़े भर्ती घोटाले के रूप में जाना जाता है. जानकार इसे केवल एक घोटाले के रूप में नहीं, बल्कि राज्य समर्थित नकल उद्योग के रूप में देखते हैं, जिसने हजारों नौजवानों का भविष्य खराब कर दिया है. कैग ने भी अपनी रिपोर्ट में व्यापम की कार्यप्रणाली को लेकर मध्य प्रदेश सरकार की कड़ी आलोचना की थी.
कैग की उस रिपोर्ट में बताया गया था कि कैसे व्यापम की पूरी प्रक्रिया अपारदर्शी थी और बहुत ही सुनियोजित तरीके से नियमों को ताक पर रख दिया गया था. व्यापम घोटाले का खुलासा 2013 में तब हुआ, जब पुलिस ने एमबीबीएस की भर्ती परीक्षा में बैठे कुछ फर्जी छात्रों को गिरफ्तार किया था. ये छात्र दूसरे छात्रों के नाम पर परीक्षा दे रहे थे, बाद में पता चला कि प्रदेश में सालों से एक बड़ा रैकेट चल रहा है, जिसके अंतर्गत फर्जीवाड़ा करके सरकारी नौकरियां रेवड़ियों की तरह बांटी गई हैं.
यह मामला उजागर होने के बाद व्यापमं मामले से जुड़े 50 से ज्यादा अभियुक्तों और गवाहों की रहस्यमय ढंग से मौत हो गई थी, जो इसकी भयावहता को दर्शाता है. इस मामले में जो गिरफ्तारियां हुई थीं, उनमें ज्यादातर या तो छात्र शामिल हैं या उनके अभिभावक या बिचौलिए. इस मामले से जुड़ी बड़ी मछलियां तो पूरी तरह से बची रह गईं. हालांकि 2014 में मध्य प्रदेश के पूर्व शिक्षा मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा जरूर गिरफ्तार हुए थे, जिनपर व्यापम के मुखिया के तौर पर इस पूरे खेल में सीधे तौर पर शामिल होने का आरोप था, लेकिन दिसंबर 2015 में वे रिहा भी हो गए थे. उसके बाद, तमाम हंगामों के बावजूद, अभी तक इस महाघोटाले के पीछे की असली ताकतों के बारे में कुछ भी पता नहीं चल सका है.
बहरहाल, एक के बाद एक कई विभागों के टेंडरों में टेंपरिंग उजागर होने के बाद भी मध्य प्रदेश की राजनीति में वो उबाल नहीं है, जो चुनावी साल में ऐसे मामले को लेकर होना चाहिए था. कांग्रेस का रवैया इस मामले को लेकर बहुत ढीला-ढाला सा है. केवल अजय सिंह जैसे नेता ही इस मामले को लेकर शिवराज सरकार पर राजनीतिक हमला करते हुए नजर आ रहे हैं. जबकि कुछ ही महीने होने वाले चुनाव के मद्देदजर, कांग्रेस इसे बड़ा मुद्दा बना सकती थी.
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह भी इस घोटाले को लेकर मौनी मामा बने हुए हैं और उनकी सरकार ख़ामोशी से इस मामले को रफा-दफा करने में जुट गई है. जबकि सरकार और सिस्टम के लिहाज से यह घोटाला बहुत गंभीर है. यह सिर्फ एक नहीं, बल्कि कई विभागों का मामला है, जो बताता है कि किस तरह से मध्य प्रदेश में ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार की एक पूरी व्यवस्था बन चुकी है और यह इसे ख़त्म करने के किसी भी उपाय को खुद ही दीमक की तरह निगल जाती है.