दशहरा हमारा धार्मिक पर्व तो है ही, वह विजय पर्व भी है। इसे हम अधर्म पर धर्म की और असत्य पर सत्य के पर्व के रूप में भी मनाते आये है। असलियत में देखा जाये तो इसका प्रकृति से अटूट सम्बंध है। धर्मशास्त्रों में इसका स्पष्ट उल्लेख है।कारण हमारे सभी पर्व ऋतु परिवर्तन से जुडे़ हुए हैं। सनातन संस्कृति के अनुसार हमारे सभी पर्व प्रकृति पूजा के ही तो पर्व हैं। इसलिए प्रकृति से इसके सम्बंध को नकारा नहीं जा सकता। प्रकृति प्रदत्त यह सभी पर्व असलियत में प्रकृति के प्रति प्रेम, सम्मान और प्रसन्नता के ही प्रतीक हैं।
दशहरे का शाब्दिक अर्थ है दस को हरने वाला। रावण को दशानन भी कहा जाता है। दशहरे पर हम दशानन रावण के पुतले का दहन कर गर्वोन्नत होते हैं। अधर्म पर धर्म की विजय से मदमत्त हो उठते हैं। लेकिन क्या इतने भर से दशहरे की सार्थकता सिद्ध होती है। जबाव है नहीं। तात्पर्य यह कि विजय वही पूजित है, सर्वमान्य है,आदरणीय है जो सर्वहितकारी, धर्म,सदाचार, सच्चरित्रता की प्रतीक हो और न्याय व नीति सम्मत भी हो। यह कहना है वरिष्ठ पत्रकार, लेखक एवं पर्यावरणविद ज्ञानेन्द्र रावत का।
उनके अनुसार असलियत में यह पर्व हमें अपने अंदर के दशानन को पहचानने, उसका दमन करने का संदेश देता है। अहम सवाल तो यही है कि क्या उसका दमन किये विजयादशमी सार्थक हो सकती है। विडम्बना है कि देश में सर्वत्र बुराई का बोलबाला है, भ्रष्टाचार हम सबके दिमाग में बैठा सबसे बडा़ रावण है। जातपांत,छुआछूत, भेदभाव, असमानता, सांप्रदायिकता, संकीर्णता, आतंकवाद, गरीबी, जनसंख्या विस्फोट, वर्णभेद और ऊंचनीच जैसे रावण का दमन करने में, रोकने में कामयाब हो सके हैं। दुख इस बात का है कि रावण रूपी इन बुराइयों के कारण देश विघटन के कगार पर है। एकता-अखंडता खतरे में है।स्वार्थ सर्वोपरि है। प्रेम, सदभाव, बंधुत्व, सहिष्णुता सपना हो गयी है। जाति की अहन्मन्यता के चलते देश पुनः गुलामी की ओर अग्रसर है। इसे देख यह सवाल मन में कौंधता है कि क्या यही भरत का देश भारत है जिसकी सर्वत्र ख्याति थी। इसलिए इस पर्व की सार्थकता तभी संभव है जबकि हम इस पर्व के परिप्रेक्ष्य में छिपे संदेशों पर चिंतन-मनन करें ,सत्य के मार्ग का अवलम्बन करें और उनका पालन व निर्वाह अपने जीवन में करें।