बोंडा विकास के लिए किए गए सरकारी वादे के 41 वर्षों के बाद भी बोंडा जनजाति की किस्मत नहीं बदली. यह रिपोर्ट आ़ेडीशा के उन विकास कार्यक्रमों की असलियत उजागर करती है, जो बोंडा जनजाति के लिए बनाए गए थे. आखिर, वे विकास कार्यक्रम कहां गए? क्यों आज भी बोंडा जनजाति के लोगों का जीवन नारकीय बना हुआ है? पढ़िए ये एक्सक्लूसिव रिपोर्ट :
बोंडा घाट से बिभूतिपति की रिपोर्ट
27 वर्षीय बोंडा गर्भवती महिला, लछमा गदनायक का नामांकन ममता योजना में हुआ था. ममता योजना एक सरकारी योजना है, जिसका नारा सुरक्षित मातृत्व और स्वस्थ प्रसव है. इस योजना में लछमा की पहचान जोखिम वाली श्रेणी में हुई थी और उसे ‘रेड कार्ड’ दिया गया था. ‘रेड कार्ड’ पहचान पत्र लेकर वह सरकारी मदद प्राप्त करने की कोशिश कर रही थी. बिना सड़कों वाले जंगल के रास्ते गर्भवती लछमा 15 किलोमीटर पैदल चलकर अनुसूचित जाति कल्याण विभाग के कार्यालय पहुंची थी. ऐसी कहानी सिर्फ एक गर्भवती औरत लछमा की नहीं है. इससे पहले, आदिबारी (24) और सुकुरी बदनायक (31) जैसी कई आदिवासी गर्भवती महिलाएं ममता योजना का लाभ न मिलने के कारण असमय काल के गाल में समा गईं.
चार दशक से अधिक समय से आ़ेडीशा सरकार अनुसूचित जनजाति और अनुसूचित जाति विभाग के माध्यम से बोंडा विकास एजेंसी कार्यक्रम चला रही है. मुदुलीपारा और कुछ पास के गांवों के भूगोल में बदलाव आया है.
मुदुलीपारा में विकास के संकेत कुछ हद तक दिख रहे हैं. लेकिन सरकारी घोषणाओं की रंगीन तस्वीर, वास्तविकता से अभी बहुत दूर हैं. यहां परिवहन, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं की दुखद स्थिति है. यहां की असलियत ने विकास और प्रगति से जुड़े सरकारी घोषणाओं को गलत साबित किया है. आज तक इन क्षेत्रों में लोगों को पीने का साफ पानी तक नहीं मिला है. प्रसव के दौरान कितनी महिलाओं की मौत हुई, कितने नवजात मौत की नींद सो गए, इस सबका कोई रिकॉर्ड ही नहीं है. बोंडा आदिवासी क्षेत्रों के गांवों में कोई सड़क नहीं है. परिवहन सुविधाओं की कमी के कारण, दूरस्थ क्षेत्रों के कई बोंडा गांवों ने अपनी पहचान खो दी है.
सौर जल की टंकी लगी, पर कभी पानी नहीं मिला
किशापरा, तमबादे, रासबादा और रमिलिगुडा जैसे कई गांव विकास कार्यक्रम से कोसों दूर हैं. इन गांवों में न सड़क है और न ही पीने का पानी उपलब्ध है. महामुलापदा में बना नया प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र अक्सर बंद रहता है और यह कई समस्याओं से जूझता स्वास्थ्य केंद्र अक्सर स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करने में विफल रहता है. इन गांवों के लोग सालों से जंगल में बहने वाली जल धाराओं से अपनी प्यास बुझाते हैं. इस वजह से बरसात के मौसम में, वे घातक रोगों से पीड़ित हो जाते हैं और असामयिक मृत्यु के शिकार हो जाते हैं. इस क्षेत्र में कुछ साल पहले एनएचआईसी लिमिटेड नामक एक संगठन ने पीने योग्य पानी उपलब्ध कराने के लिए सौर जल टैंक परियोजना पर काम किया था. एक पानी की टंकी लगाई गई थी. लेकिन, आज भी इस दुर्गम क्षेत्र के लोग इंतजार कर रहे हैं कि इस सौर जल की टंकी से पानी कब निकलेगा? जाहिर है, 1977 में स्थापित सरकार की बोंडा विकास एजेंसी (ओड़ीशा सरकार की अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति विभाग) 41 साल बाद भी, अपने लक्ष्य को हासिल करने में असफल रही है.
बीमार हैं प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र
सुरक्षित और स्वस्थ डिलिवरी के लिए, गांवों में मां गृह यानि मैटरनिटी होम बने हैं. दूरदराज के क्षेत्रों की गर्भवती महिलाओं को प्रसव से एक महीने पहले से यहां रखने की सुविधा है. लेकिन बोंडा आदिवासी गांवों जैसे तबाबादे, रसगुदा और रामिलिगुडा स्थित इन मैटरनिटी होम्स की स्थिति नारकीय है. 1977 में स्थापित बोंडा विकास एजेंसी, अपनी स्वर्ण जयंती मनाने की तैयारी कर रही है. लेकिन, बोंडा जनजातीय क्षेत्र में नेशनल सेंट्रल हेल्थ मिशन कार्यक्रम खुद मृत अवस्था में पहुंच चुका है. उधर, राज्य सरकार का प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र भी अस्वस्थ है और केंद्र से सहायता मिलने का इंतजार कर रहा है. बच्चों को पीने का पानी तक नहीं मिल पा रहा है.
बोंडा जनजाति के जीवन की नारकीय स्थिति और सरकारी विकास योजना में भेदभाव के बारे में बताते हुए कन्दुगुदा के हडी किरसानी बताते हैं कि विकास के लिए कुछ विशिष्ट क्षेत्रों की पहचान प्रशासन द्वारा बांडा विकास क्षेत्र के रूप में की गई थी. हालांकि, बोंडा विकास एजेंसी अपनी विकास योजना में दूरदराज के क्षेत्रों में स्थित बोंडा जनजातियों को शामिल करना भूल गई. मैं भी बोंडा जनजाति से हूं, लेकिन हमारे इलाके को आधिकारिक तौर पर विकास योजना में शामिल नहीं किया गया था, क्योंकि हम दूरस्थ और दुर्गम क्षेत्रों में स्थित हैं. हमारी सरकार द्वारा अनदेखी की गई.
1977 के बाद से कई सरकारें आईं और चली गईं, कई प्रशासनिक अधिकारी आए-गए, लेकिन कोई भी हमारी बात नहीं सुन रहा है. सरकारी कार्यक्रम के मुताबिक कुछ भाग्यशाली लोगों को पीवीटीजी योजना के तहत एक विशेष कार्ड के माध्यम से 35 किलो चावल दिया जाता है. लेकिन, इस योजना का लाभ भी समस्त बोंडा जनजाति के लोगों को नहीं मिल पा रहा है. राज्य की बीजू जनता दल सरकार इन क्षेत्रों में पोस्टरबाजी और नारेबाजी के जरिए विकास पहुंचाना चाहती है. लेकिन, ये पोस्टर और नारेबाजी बोंडा क्षेत्र के लोगों के साथ एक भद्दा मजाक हैं.