armyएक साल पहले, यानि अक्टूबर 2016 में कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था कि एक साल के भीतर देश की स्थिति में इतना बदलाव आ जाएगा. इसका कोई कारण नहीं था क्योंकि मई 2014 में सरकार पूर्ण बहुमत से आई थी. अस्थिरता का कोई सवाल ही नहीं था और आर्थिक स्थिति भी इनके पक्ष में थी. विश्व में तेल के दाम काफी घट गए थे. उससे बजट में कई लाख करोड़ का फायदा हो गया और मुद्रास्फीति वगैरह भी करीब-करीब सामान्य थी. प्रधानमंत्री ने बड़े-बड़े एलान किए जिससे लगा कि नए उद्योग लगेंगे, लोगों को रोजगार मिलेगा. कुल मिलाकर ऐसा लगा कि देश धीरे-धीरे प्रगति की ओर बढ़ेगा.

दुर्भाग्यवश एक साल में स्थिति पूरी तरह से बदल गई. क्यों? प्रधानमंत्री ने विमुद्रीकरण का एक कदम उठाया, बिना किसी अर्थशास्त्री से पूछे, बिना कोई स्टडी किए, बिना किसी समझ के कि इसका क्या असर होगा, अच्छा या बुरा. इसके क्या नतीजे होंगे, बिना किसी कैलकुलेशन के, प्रधानमंत्री ने एक तरह से इतिहास रचने के लिए स्वयं एक कदम की घोषणा कर दी, विमुद्रीकरण. 8 नवंबर 2016 को उन्होंने घोषणा की और 31 दिसंबर तक का समय दिया कि आप नए नोटों की जगह पुराने नोट बदल लीजिए. बैंकों में जो रुपए जमा नहीं करेंगे, वो रुपए बाद में खारिज हो जाएंगे. उस समय लोगों को यह समझ में नहीं आया कि इसके क्या दूरगामी परिणाम हो सकते हैं. अफरा-तफरी मच गयी. छोटे लोग, किसान, गरीब, मजदूर, जिनकी आदत ही रोकड़े में रोज का काम करने की थी, वो असमंजस में पड़ गए कि क्या करें? नए नोट उपलब्ध नहीं थे, एटीएम खाली थे, लोगों में अफरातफरी मच गयी. कई लोग कतार में खड़े होकर बेहोश हो गए, कई हादसे हुए.

खैर किसी तरह वो समय धीरे-धीरे निकल गया. यह भारत है, 5000 साल पुराना देश है. यहां गुलामी का लंबा दौर रहा. 1947 में महात्मा गांधी के अथक प्रयासों से आजादी मिली और स्वतंत्रता सेनानी नेताजी सुभाष चंद्र बोस, मौलाना आजाद, पंडित नेहरू, सरदार पटेल सब मिलकर आजादी लाए. वैसे देखा जाए तो आजादी का इतिहास अपना सिर्फ 70 साल पुराना है, लेकिन देश बहुत पुराना है. इन दोनों बातों को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए. जो देश का व्यक्तित्व है, जो यहां के लोगों की मानसिकता है, जो सोच है, वो पांच हजार साल पुरानी है. हमारा पांच हजार साल पुराना इतिहास रामायण, महाभारत, भगवद्गीता, कुरान, बाइबिल, गुरुग्रंथ साहेब का सम्मिश्रण है. कोई ये समझे कि 1947 से यहां का इतिहास शुरू हुआ, तो यह एक माखौल है. 1947 में आजादी मिली, 1950 में संविधान मिला, 1952 से चुनाव की प्रक्रिया शुरू हुई, ये सब ठीक है, लेकिन देश उससे पुराना है.

ज़िंदा रहने और आज़ादी का हक़ हमें पहले से है

इंदिरा गांधी ने 1975 में इमर्जेंसी लाकर एक गलती की थी. इमरर्जेंसी के तहत उन्होंने लोगों के फंडामेंटल राइट्‌स सस्पेंड कर दिए थे. लोगों को गिरफ्तार करके जेल में डाल देते थे, कारण भी नहीं बताते थे. सुप्रीम कोर्ट में जब ये मामला आया, तो उस समय के अटॉर्नी जनरल नीरेन डे से सुप्रीम कोर्ट ने पूछा कि ये बताईए कि जिंदा रहने और आजाद रहने का जो हक है, वो आप सस्पेंड कैसे कर सकते हो? जो जनता के वकील थे, उन्होंने सवाल उठाया कि सरकार कोई चीज वापस भी ले सकती है. लेकिन वही ले सकती है, जो उन्होंने दी है. जिंदा रहने और आजाद घूमने का हक तो हमें पहले भी था. 1950 का संविधान आया, उसमें आपने ये अधिकार लिखे. लेेकिन, उसके पहले भी हम आजाद थे, जिंदा थे, सांस लेते थे. आप कौन होते हैं हक वापस लेने वाले? खैर सुप्रीम कोर्ट कुछ ज्यादा कर नहीं पाई. 19 महीने के उस अंधेरे के बाद जनता ने फैसला कर दिया. जब चुनाव हुआ, तब जनता ने कहा कि आपने अपने अधिकारों का अतिक्रमण किया है.

एक दिन में इतिहास नहीं बदलता 

नरेंद्र मोदी को हमने इसलिए नहीं चुना था. आप अपनी सीमाओं में रहकर हमारे लिए जो भला कर सकते थे, करिए, नहीं कर सकते तो पांच साल के बाद नई सरकार आएगी. शायद आपको वापस चुन लिया जाएगा. पांच हजार साल पुराना देश है, आप समझते हैं कि पांच साल में इसे बदल देंगे, तो यह नहीं हो सकता. यह तर्कसंगत बात नहीं है. इंदिरा जी ने वो भूल की, उसकी उनको सजा मिल गयी. 1977 में जनता ने दूसरी सरकार चुन ली. उन्होंने माफी मांगी. 1980 में वो फिर चुन कर आ गयीं. अब इन प्रधानमंत्री को किसी ने यह नहीं बताया कि आप एक दिन में इतिहास नहीं बदल सकते. इस पूरे देश में सवा सौ करोड़ लोग हैं. इनकम टैक्स पेयर हैं ढाई करोड़. यानि दो प्रतिशत. ये समझना चाहिए कि यह एक गरीब देश है. किसानों की इनकम, इनकम टैक्स फ्री है. ये जो आप ब्लैक मनी और करप्शन की बात करते हैं, जो विदशों में रुपया पड़ा है, किसका पड़ा है? इन दो प्रतिशत लोगों का ही पड़ा है और दो प्रतिशत में से 10 प्रतिशत का ही पड़ा होगा. इसके लिए आप पूरे देश में गरीबों, मजदूरों और मजलूमों की रोज की जिंदगी अस्त व्यस्त कर दें, सिर्फ इसलिए कि हम चोर पकड़ेंगे, इसलिए तो आपको नहीं चुना था. लोगों ने जब आपको वोट दिया था तो आपको ये सोच कर वोट दिया था कि नए रोजगार लाएंगे, आधुनिकीकरण करेंगे, नए रोड बनेंगे, नई रेल की पटरियां बिछेंगी, नए शिक्षण संस्थान खुलेंगे, नए अस्पताल खुलेंगे. आम आदमी रोजमर्रा की जीवन की चीजें उपलब्ध करना चाहता है, उसने उस उम्मीद से आपको बनाया था. मैं तो प्रधानमंत्री को जानता नहीं हूं. एक साल पहले अचानक जो भी हुआ, उन्होंने समझा इससे बहुत बड़ा चमत्कार हो जाएगा, लेकिन वो उल्टा पड़ गया.

पुराने टैक्स का सुधार मात्र है जीएसटी

एक त्रुटि और है इस सरकार में कि वे अपनी गलती जल्दी मानते नहीं हैं. यह सब सरकारों में है. उस गलती को सुधारने की भी कोशिश नहीं करते हैं. एक पुराना टैक्स का सुधार है जीएसटी. इस देश में बीस साल से इस पर चर्चा हो रही है. उसको एक जुलाई से अचानक लागू कर दिया. यह दूसरी भूल थी. होना चाहिए, नहीं होना चाहिए मैं ये नहीं कह रहा हूं, लेकिन जिस ढंग से, जिस जल्दबाजी में, बिना उसके परिणाम सोचे-समझे लागू कर दिया, तो वो जले पर नमक छिड़कने की बात हो गयी. आम आदमी जो पहले विमुद्रीकरण से त्रस्त था, आम आदमी से मेरा मतलब है जो किराना दुकान, छोटा उद्योग या बहुत छोटा व्यवसाय करता है, अचानक उसपर ये मुसीबत और आ पड़ी. बड़े कारखानों की बात मैं नहीं कर रहा हूं. उनको कोई असर नहीं है. इसलिए नहीं है, क्योंकि उनके पास कंप्यूटर है, सब सुविधाएं हैं. लेकिन जो एक किराने की दुकान चला रहा है, अगर उसको भी आप 37 फॉर्म भरने के लिए कहें, तो पांच हजार रुपया महीना तो उसको कंप्यूटर का खर्चा लगेगा. अगर वह अपना कंप्यूटर न खरीदे, तो भी वो नहीं कर सकता. शायद उतनी क्षमता उसकी नहीं है, एक मुसीबत और आ गयी. कुल मिलाकर एक साल में आर्थिक स्थिति बेवजह चरमरा सी गयी है. इस बीच कोई ऐसी बात नहीं हुयी है. कोई विश्व में तेल के दाम नहीं बढ़े, कोई घाटे का कारण नहीं पैदा हुआ, सिर्फ सरकार की दूरगामी सोच नहीं होने के कारण उन्होंने जल्दबाजी में कदम उठा लिए और उसके परिणामों को वो नियंत्रित नहीं कर सके. अब हालत इतनी खराब हो गयी है कि विजयादशमी के दिन आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत ने भी अपने भाषण में कह दिया कि छोटे व्यापारियों के साथ आप ऐसा नहीं कर सकते. अब आरएसएस इनकी पार्टी की रीढ़ की हड्‌डी है और उनकी बात को वे नजरअंदाज नहीं कर सकते. उन्होंने कुछ सही कदम उठाए. छोटे उद्योगों और छोटी व्यवसायों के लिए रिटर्न के फॉर्म कम कर दिए, कुछ सीमा भी बढ़ा दी, लेकिन ये बहुत छोटे कदम हैं. बीमारी बहुत गहरी हो गयी है, कदम बहुत छोटे हैं. उसका हल कम समय में नहीं निकल सकता है.

सरकार वो ग़लतियां कर रही, जिससे अब तक बची थी

इनसे एक और जल्दी हो गयी, गुजरात इलेक्शन आ गया. सूबे के इलेक्शन तो होते रहते हैं. इतना बड़ा देश है 29-30 स्टेट हैं, लेकिन गुजरात इनके लिए महत्वपूर्ण है. क्योंकि ये जो अभी प्रधानमंत्री हैं, कभी वहां के मुख्यमंत्री थे. आरएसएस ने कोई आंतरिक सर्वे कराया है,  जिसमें यह आया कि उनको शायद बहुमत न मिले, इससे उनको थोड़ी चिंता और हो गयी है. लेकिन ये सब करने से मामला हल नहीं होगा. पहले दो साल यानि मई 2014 से अक्टूबर 2016 तक जो मैं कह रहा था, मुझे कभी नहीं लगा था कि देश में इस तरह से कोई बदलाव आ जाएगा. अब ये दो कदम उल्टे पड़ गए. उसका परिणाम देखिए, अब उन्होंने वो गलतियां करनी शुरू कर दीं, जिससे वो अब तक बचकर चले. राजनीतिक तौर पर कोई मापदंड तोड़ने की जरूरत नहीं थी. अब इलेक्शन कमीशन जो कम से कम 20-25 साल से अपने अधिकार का भरपूर इस्तेमाल कर रही थी, जिससे पॉलिटिकल पार्टी को भी डर लगने लगा. अधिक खर्च करने से कैंडिडेट भी डरने लगे. अचानक उस इलेक्शन कमीशन को क्या हो गया? गुजरात में राज्यसभा का इलेक्शन था. सिर्फ दो वोटों की बात थी. उसके लिए छह कैबिनेट मंत्री अपने पक्ष में ऑर्डर दिलाने के लिए रात भर चीफ इलेक्शन कमिश्नर के पास बैठे रहे. लेकिन मैं कहूंगा कि चीफ इलेक्शन कमिश्नर ने बुद्धिमत्ता दिखायी. उन्होंने उनकी नहीं सुनी और फैसला उनके खिलाफ चला गया. उसके बाद ये थोड़ा डर गए. इनको थोड़ा और गुस्सा आ गया. इसके बाद तीसरा इलेक्शन कमिश्नर जो इन्होंने चुना, वो काफी सोच-समझकर ऐसे आदमी को चुना, जो 2019 चुनाव के समय में चीफ इलेक्शन कमिश्नर बनेगा. पहले तो 2014 से शुरू हुए थे कि हम देश को प्रगति के रास्ते पर ले जाएंगे. कांग्रेस ने करप्शन किया, स्कैम किया, हम नहीं करेंगे. दो ढाई साल तक एकदम ठीक चला. उस पर बहस हो सकती है कि आपने कितनी प्रगति की, कितनी नहीं की. लेकिन कोई आक्षेप नहीं लगा पा रहा है कि इन्होंने कोई स्कैम किया, कोई गलत काम किया. दो स्टेप उल्टे पड़ने से अब राजनीतिक तौर पर भी हर काम गलत कर रहे हैं. इलेक्शन कमीशन से छेड़खानी करने से तो लोगों का चुनाव प्रक्रिया से ही भरोसा उठ जाएगा, फिर क्या होगा?

डेमोक्रेसी से छेड़खानी मत करिए

2019 के इलेक्शन का जो भी नतीजा आए, लेकिन पब्लिक को अगर ये बात लग गयी कि फेयर इलेक्शन नहीं था, तो यह उचित नहीं होगा. अफ्रीका का एक देश है. वहां 25 साल से एक आदमी राज कर रहा है. हर पांच साल में वहां इलेक्शन होते हैं. इलेक्शन का रिजल्ट उनके खिलाफ जाता है, तब भी वे राज करते रहते हैं, क्यों? क्योंकि वे एनाउंस करवा देते हैं कि मैं जीत गया. यूएन और फॉरेन से जो भी आते हैं, वो कहते हैं कि इलेक्शन विश्वसनीय नहीं था, लेकिन वहां की सरकार कहती है कि विश्वसनीय था. आर्मी भी उसको सपोर्ट करती है, क्योंकि वहां आर्मी सिविलियन अथॉरिटी के अंडर में है. असल में वहां जनता की चुनी हुई सरकार नहीं है, वो नॉन रिप्रजेंटेटिव सरकार वहां चल रही है. वहां तो नाम के वास्ते लोकतंत्र है, यह ढकोसला है. यह सरकार को समझना चाहिए. मैंने पहले कहा कि हमारा पांच हजार साल पुराना देश है. यहां 70 साल से डेमोक्रेसी है, छेड़खानी मत करिए. इसके परिणाम बहुत गंभीर होंगे. पाकिस्तान और हम एक ही दिन आजाद हुए थे. पाकिस्तान में 1947 से 1958 के बीच 11 साल में सात प्रधानमंत्री बदल गए. लोकतांत्रिक व्यवस्था जम नहीं पायी. जनरल अयूब खान ने 1958 में टेक ओवर कर लिया, आर्मी रूल ले आए. पाकिस्तान आज तक उसका परिणाम भुगत रहा है. डेमोक्रेसी आती है, जाती है, उनके प्रशासन में आर्मी का बड़ा दखल है. लोग तो यहां तक कहते हैं कि पाकिस्तान की सुप्रीम कोर्ट भी उनसे प्रभावित है. मैं नहीं जानता और मेरा सब्जेक्ट भी नहीं है पाकिस्तान, कुछ भी करे. सवाल है कि हमको पाकिस्तान बनना है क्या? हमें पाकिस्तान बनने से बचना है कि नहीं. चाहे ये जवाहरलाल नेहरू को जितना बुरा बोलें. पहले सत्रह साल उन्होंने लोकतांत्रिक संस्थाओं को स्थापित कर दिया. चाहे वो आर्मी हो जो सिविलियन रूल के अंडर में रहेगी, चाहे सुप्रीम कोर्ट हो, सरकार सुप्रीम कोर्ट की सुनेगी, चाहे वो प्रेस हो जिससे कोई छेड़खानी नहीं करेगा. जैसा मैंने कहा कि इंदिरा जी उसके बाद आयीं, वो भी रहीं. उन्होंने थोड़ा सा गड़बड़ किया. उसका जवाब जनता ने तुरंत दे दिया. उसके बाद ईश्वर की कृपा से सब ठीक चल रहा है.

आर्थिक सुधारों के लिए इंजेक्शन ज़रूरी था

1991 में नरसिम्हा राव जी के दौरान मनमोहन सिंह वित्त मंत्री थे. देश की आर्थिक स्थिति बहुत खराब हो गयी थी. उन्होंने आर्थिक नीतियों में एक बड़ा बदलाव किया. समाजवादी लोग उससे सहमत नहीं हैं, लेकिन उस समय यह जरूरी था. एक इंजेक्शन जरूरी था. 1991 से 2014 तक 23 साल में पांच साल नरसिम्हा राव, एक साल देवेगौड़ा, एक साल गुजराल, छह साल अटलबिहारी वाजपेयी और दस साल मनमोहन सिंह, तेईस साल करीब-करीब देश की व्यवस्था ठीक चल रही थी. ऐसा नहीं कि देश बहुत तरक्की कर रहा था. गरीबी थी, विश्व में तेल की कीमत भी बहुत ऊंची थी, लेकिन उस स्थिति में भी कोई ऐसी बात नहीं आयी कि कुछ अस्त-व्यस्त हो जाएगा. 2010 और 2013 के बीच कांग्रेस के खिलाफ बहुत शिकायतें आ गयी थीं, कई स्कैम आ गए. एक सीएजी साहब ने एक रिपोर्ट दे दी, हालांकि जिसकी विश्वसनीयता शक के दायरे में है. एक स्थिति पैदा हो गयी, जब जनता को लगा कि ये सरकार हमसे ठीक व्यवहार नहीं कर रही है. उसमें बड़े उत्साह और उम्मीद के साथ नरेन्द्र मोदी को जनता ने बहुमत दे दिया. तीन साल में जो उत्साह, पॉपुलैरिटी और विश्वास उन्होंने पैदा किया था, वो तीन साल में इतनी जल्दी गिर जाएगा, ये पता नहीं था. ये बहुत अफसोस की बात है. पहले भी एक बार ये हुआ है. जब राजीव गांधी 1985 के चुनाव में 400 सीट जीत गए. हिन्दुस्तान के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ. इंदिरा जी की हत्या हो गयी थी, चलिए जीत गए. ढाई साल लगा उनको अपनी गुडविल, अपनी सद्भावना खत्म करने में. एक बोफोर्स का छोटा सा सौदा, मैं कहूंगा पूरे भारत के इतिहास में वो कुछ मायने नहीं रखता, इससे उनकी इमेज खत्म हो गयी. आज भी कुछ ऐसा ही हुआ है

2014 में, जिस सद्भावना से मोदी का चुनाव हुआ था, लोगों ने उनको गले लगाया था, आज वो स्थिति नहीं है. अब चिंता की बात  यह है कि वे और गलत कदम उठा रहे हैं, जो उनको नहीं उठाने चाहिए. गुजरात का इलेक्शन उनको फेयर कराना चाहिए, हारें या जीतें. इलेक्शन हर पांच साल में होता है. हिमाचल और गुजरात का इलेक्शन साथ में एनाउंस करना था. इलेक्शन कमीशन की ये हालत कर दी कि उन्होंने केवल हिमाचल की तारीख एनाउंस की और गुजरात की उसके साथ नहीं की, क्यों? क्योंकि मोदी जी को और पांच प्रोजेक्ट एनाउंस करने थे. ये तो जनता का अपमान है. आप क्या समझते हैं, जनता आपको इसलिए वोट देती है कि आप एक पुल और बना देंगे, एक और डैम बना देंगे. यह गलत है, मिथ्या है. जो भी मोदी जी को गाइड कर रहा है, दरअसल वो मिसगाइड कर रहा है.

सेना को निमंत्रण दे रहे हैं!

देश का तो ये जितना अभी नुकसान कर रहे हैं, वो डरावना है. सेना भी सोचती है, आर्मी में मशीनें तो नहीं हैं, इंसान हैं वहां. पाकिस्तान में जो हुआ, आप धीरे-धीरे भारत में उसी चीज को निमंत्रण दे रहे हैं. आर्मी को ये संदेश दे रहे हैं कि हम जो देश के नेता हैं, अलग-अलग पार्टियों के राजनेता हैं, अब हमारी क्षमता खत्म हो रही है. अब हम सरकारी तंत्र का इस्तेमाल करके विपक्ष को दबाएंगे. चाहे वो सीबीआई हो, चाहे इनफोर्समेंट डायरेक्टोरेट हो, चाहे इंटेलिजेंस ब्यूरो हो, चाहे लोकल पुलिस हो, ये अच्छा ट्रेंड नहीं है. राजस्थान ने एक ऑर्डिनेंस पास कर दिया कि बिना सरकार के परमिशन के आप इन्क्वायरी नहीं कर सकते, इनवेस्टिगेशन नहीं कर सकते. कोर्ट को उसे खारिज करने में पांच मिनट का समय नहीं लगेगा. ये अच्छा हुआ कि जनता के दबाव में सरकार ने अब इसे सेलेक्ट कमिटी को सौंप दिया है. सवाल है कि इस तरह का बिल लाने की हिमाकत कैसे की भाजपा ने? एक बात मैं स्पष्ट करना चाहता हूं कि मैं कांग्रेस में नहीं हूं. एक मानसिकता इन लोगों की है कि जो इनके खिलाफ बोले तो समझते हैं कि वो कांग्रेसी है. मैं समाजवादी आंदोलन का हिस्सा हूं. कांग्रेस जीते, उसमें मुझे कोई दिलचस्पी नहीं है. भाजपा रहे या हारे, उसमें मुझे कोई दिलचस्पी नहीं है, लेकिन देश की अस्मिता रहनी चाहिए. आपने देश की जो संस्थाएं बनाई हैं, उनकी विश्वसनीयता अक्षुण्ण रहनी चाहिए. इलेक्शन कमीशन में यदि आपने सेंध लगा दी, तो इस देश के लिए यह सबसे खराब काम होगा. इलेक्शन कमीशन को बचाइए. उन्होंने हिमाचल और गुजरात की तारीख एक साथ क्यों एनाउंस नहीं की. यह बहुत गलत किया. यह तो उनपर एक कलंक है.

15-20 साल राज करने के लिए धैर्य चाहिए

पांच साल के लिए इतनी गुडविल के साथ आप पावर में आए हैं. 15-20 साल आपको राज करना चाहिए. लेकिन 15-20 साल राज करने के लिए बहुत धैर्य चाहिए. बहुत समझ-बूझ चाहिए. उतावलापना नहीं चलेगा. एक दिन में दुनिया बदलने का आपका इरादा है, एक दिन में तो सरकार ही बदलती है, दुनिया नहीं बदलती. आप समझते हैं कि एक दिन में सब लोग हिन्दुत्व में ढल जाएंगे. ये मैं स्पष्ट कर दूं, हिन्दुत्व एक सांस्कृतिक शब्द है. सावरकर जी ने कहा था कि कल्चरल नेशनलिज्म. उसका धर्म, मजहब और सनातन धर्म से कोई वास्ता नहीं था. अब आज जो आपके समर्थक हैं, वो अल्पसंख्यकों के प्रति व्यवहार की बात पर कहते हैं कि पाकिस्तान में अल्पसंख्यक हिन्दुओं के साथ कैसा व्यवहार हो रहा है? कहीं न कहीं उनके मन में है कि हमें पाकिस्तान का अनुसरण करना है. हमको पाकिस्तान बनना है. पाकिस्तान बनने में ब़डे खतरे हैं. कानून-व्यवस्था अपनी जगह है. वहां मौलवी हैं, यहां पंडित होंगे. वहां सेना है, यहां भी सेना होगी. सवाल है, जो हमने बनाया है, संजोया है, गलतियों या त्रुटियों के साथ, उसका नाश करना है क्या? अगर हां, तब तो ठीक है, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी जी जो भाषण देते हैं कि यहां सब समान हैं, प्रगति होगी, नौकरी मिलेगी, तब फिर यह आचरण नहीं चलेगा. इलेक्शन कमीशन से तुरंत बात कर उनको स्वतंत्रता दीजिए, उनको अपना काम करने दीजिए. ये चिंता मत करिए कि 2019 में चीफ इलेक्शन कमिश्नर कौन होगा? इलेक्शन कमिश्नर के हाथ में क्या है? वो पब्लिक को तो नहीं बता सकता कि इसको वोट दो या न दो. छोटी-छोटी मदद से सरकार को कोई खास फायदा होने वाला नहीं है. इससे सरकार और इलेक्शन कमीशन की विश्वसनीयता कम होती है और जनता में भी रोष पैदा होता है. एक आम आदमी कबड्‌डी या क्रिकेट के खेल में गड़बड़ी होने पर तुरंत कहता है कि यह अनफेयर हुआ. एलबीडब्ल्यू गलत दे दिया या ये बॉल गलत फेंक दी. आज आम जनता समझ गयी है कि हिमाचल के साथ गुजरात चुनाव की तारीख एनाउंस नहीं करने का मतलब यह है कि आप कमजोर विकेट पर हैं.

अर्थशास्त्रियों का काम उनके ऊपर छोड़ दीजिए

राजस्थान सरकार के ऑर्डिनेंस लाने का मतलब भी यही है कि इनको कहीं न कहीं कोई डर है, कोई न कोई इनक्वायरी फिर उनके खिलाफ चली जाएगी. जय अमित शाह का जो मामला है, वो तो पार्टी के मेंबर नहीं हैं, जैसे रॉबर्ट वाड्रा नहीं थे. कांग्रेस ने कभी रॉबर्ट वाड्रा का पक्ष नहीं लिया. वे तो बिजनेसमैन हैं, अपना खुद देखेंगे. यहां तो अमित भाई शाह बयान दे रहे हैं, कैबिनेट मिनिस्टर पीयूष गोयल प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाकर कह रहे हैं कि जय अमित शाह की कोई गलती नहीं है. अरे भाई, तुम सरकार हो, ये क्यों भूल रहे हो? ऑल इन ऑल मोदी जी के लिए ये अलार्म बेल है. आप अपना मामला साफ करिए, आप जिस सद्भावना के साथ पावर में आए हैं, उसको बरकरार रखिए.   इंडिविजुअल्स की परवाह मत करिए. जो आपने प्रॉमिस की थी. उनमें कुछ पूरे हुए, कुछ नहीं हुए. सब वादे पूरे भी नहीं हो सकते. आपने कहा था कि रुपया विदेश से आएगा, लेकिन नहीं आया. वहां के कानून हैं, उसमें आप क्या करेंगे? आपने कोशिश की, आप कोशिश चालू रखिए, लेकिन दुर्भावना फैलाना, लोगों में दुराव बढ़ाना और मजहब के आधार पर हिन्दू-मुसलमान में दुराव बढ़ाना, इससे देश का फायदा नहीं होगा. आज भी मोदी जी इंडिया के लीडर हैं और डेढ़ साल तो हैं ही. जाग जाइए, अर्थशास्त्रियों का काम उनके ऊपर छोड़ दीजिए. आपने फाइनेंस में लीडरशिप दिखाई, जहां जरूरत नहीं थी, वो आपका सब्जेक्ट नहीं है. विमुद्रीकरण हो, चाहे जीएसटी हो, वो अर्थशास्त्रियों का काम है.

आप राजनीतिक लीडरशिप दिखाइए. हार-जीत छोड़िए. जैसे कांग्रेस राज करती आयी है, कभी राज में थी, कभी राज में नहीं थी, फिर आ जाती है. 2004 में किसी ने नहीं सोचा था कि अटल जी हारेंगे और कांग्रेस पावर में आ जाएगी और दस साल रहेगी. हमारे जैसे ऑब्जर्वर ने भी नहीं सोचा था. लेकिन लोकतंत्र में ऐसा होता है. यही डेमोक्रेसी का मज़ा है.

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