हाल में हरियाणा में हुए जाट आंदोलन ने समाज, देश एवं अर्थव्यवस्था की रीढ़ व्यापार और व्यापारियों के लिए एक ऐसी चुनौती पेश की है, जिसे नज़रअंदाज़ करना बहुत महंगा साबित हो सकता है. आरक्षण की मांग को लेकर शुरू हुआ उक्त आंदोलन उस समय आक्रामक हो गया, जब उसमें कुछ उग्र तत्व शामिल हो गए, जो सरकार तक अपनी बात तुरंत पहुंचाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते थे. नतीजा यह हुआ कि अनगिनत दुकानों, गोदामों एवं व्यापारिक प्रतिष्ठानों में आग लगा दी गई या फिर उन्हें नष्ट कर दिया गया. उक्त आंदोलन के चलते व्यापारियों एवं अर्थव्यवस्था के नुक़सान का सही आकलन नामुमकिन है, लेकिन फिर भी इतना तो निश्चित है कि यह ऩुकसान हज़ारों करोड़ रुपये का है. इस नुक़सान की भरपाई के लिए कितना और खर्च करना होगा, उसके बारे में तो कल्पना करना ही बेमानी है. अनेक व्यापारियों की जीवन भर की पूंजी नष्ट हो गई, व्यापार तबाह हो गया, दुकानों एवं गोदामों में भरा माल ख़ाक हो गया. बहुत सारे व्यापारी ऐसे होंगे, जिनके लिए यह आघात झेलना आसान नहीं होगा और वे पूरी ज़िंदगी इसके प्रभाव से मुक्त नहीं हो सकेंगे. कुछ ऐसे भी होंगे, जिनके लिए यह आघात हार्ट अटैक, स्ट्रोक या जीवन भर की कोई बीमारी बनकर सामने आएगा. इन हालात के बावजूद कोई भी ऐसा नहीं है, जो उनकी सुध ले और मदद करे. व्यापारियों को स्वयं यह आघात झेलना होगा. हो सकता है कि जिन्होंने दुकान में आग लगाई, उनमें से कोई कल वहीं सामान खरीदने की लाइन में खड़ा हो.
ऐसा पहली बार नहीं है. कोई भी प्राकृतिक आपदा हो या आंदोलन, उसके नतीजे में अर्थव्यवस्था ही थरथराती है. और, जब भी अर्थव्यवस्था थरथराती है, तो उसका सबसे भीषण प्रहार व्यापारी पर होता है. अभी ज़्यादा दिन नहीं हुए, जब पिछले वर्ष नवंबर-दिसंबर में बारिश ने तमिलनाडु में जमकर कहर ढाया था. गोदाम, दुकानें, शोरूम एवं फैक्ट्रियां आदि कुछ भी नहीं बचा. हर जगह 10-15 फुट तक पानी भर गया, जिससे माल और फर्नीचर बर्बाद हो गया. दशकों की मेहनत से खड़े हुए व्यापारिक प्रतिष्ठान एवं कारखाने काम के लायक नहीं बचे. तबाही के बाद स़िर्फ व्यापारी बचा, मंजर देखता और यह सोचता हुआ कि वह कहां से संभलना शुरू करे. कहना मुश्किल है कि हरियाणा में हुई बर्बादी से उबरने में किसे कितना समय लगेगा और कितने लोग उसके चलते अस्पताल पहुंच जाएंगे या ताज़िंदगी उसके असर में रहेंगे. अगर पिछले एक-डेढ़ दशक के दौरान सामने आए कुछ बड़े आंदोलनों एवं प्राकृतिक आपदाओं के चलते हुई आर्थिक तबाही के व्यापार पर असर संबंधी आंकड़ों पर निगाह डालें, तो एक भयावह तस्वीर उभर कर सामने आती है (देखें बॉक्स). जबकि छोटे-मोटे दंगों, आपदाओं एवं आंदोलनों के चलते व्यापारियों को होने वाले ऩुकसान का अनुमान लगाना लगभग नामुमकिन है. तमाम सरकारी-ग़ैर सरकारी उपायों के बावजूद आपदाओं का ख़तरा हमेशा मंडराता रहता है. इन प्रत्यक्ष कारणों के अतिरिक्त कुछ अप्रत्यक्ष कारण भी होते हैं, जो समस्या की विकरालता बढ़ा देते हैं. अगर किसी वजह से व्यापार नहीं होता और बाज़ार लंबे समय तक बंद रहते हैं, तब भी व्यापारियों पर मार पड़ती है. पृथक तेलंगाना राज्य की मांग के लिए हुए आंदोलन के चलते लगभग डेढ़-दो वर्षों तक बाज़ार नहीं खुल सके. नतीजतन, व्यापारी लगातार घाटा उठाते रहे. आपदा हो या आंदोलन, अगर उनके चलते बाज़ार न खुल सकें या व्यापारिक गतिविधियां थम जाएं, तो व्यापारियों के सामने विषम परिस्थितियां खड़ी हो जाती हैं.
जिस तरह पर्यावरण, वर्षा, हवा एवं समुद्र यानी सबके व्यवहार में बदलाव देखने को मिल रहा है, उससे यह बिल्कुल साफ़ है कि आने वाले समय में प्राकृतिक आपदाओं जैसे बाढ़, अतिवृष्टि, भूकंप आदि का ख़तरा हमेशा बना रहेगा. जिस तरह आएदिन आंदोलन देखने को मिल रहे हैं, उससे लगता है कि जल्द ही कुछ अन्य राज्यों में भी आंदोलन ज़ोर पकड़ेंगे. कहीं गुर्जर अपनी मांगें सरकार तक पहुंचाने के लिए आंदोलन का सहारा लेंगे, तो कहीं राजपूत. कुल मिला व्यापार और व्यापारियों पर आसन्न ख़तरा टलना नहीं है, बल्कि बढ़ने की आशंका है. आज ज़रूरत इस बात की है कि व्यापारी बार-बार की तबाही से निबटने के लिए स्वयं कमर कसें. यह एक तीखा सच है कि कोई भी ऐसी व्यवस्था, एजेंसी या विभाग नहीं है, जिसके पास जाकर व्यापारी गुहार लगा सकें और उनकी सुनवाई हो सके. इन हालात में व्यापारियों को स्वयं अपना सहारा बनना होगा और आपसी सहयोग के लिए मजबूत संगठन बनाने होंगे. जहां तक संभव हो, हर चीज का बीमा कराना होगा जैसे मकान, दुकान, माल, वाहन, गोदाम, फैक्ट्री यानी सबका. साथ ही खुद का भी, क्योंकि व्यापार की सबसे महत्वपूर्ण कड़ी व्यापारी है. सरकार एवं संबंधित एजेंसियों को भी समझना होगा कि व्यापारी अर्थव्यवस्था की धुरी है, अगर उसका व्यापार ख़तरे में पड़ता है, तो पूरी अर्थव्यवस्था ख़तरे में पड़ती है. इसलिए बहुत ज़रूरी है कि क़ानून व्यवस्था एवं आपदा प्रबंधन पर विशेष ध्यान दिया जाए. आंदोलनों एवं आपदाओं के व्यापार और व्यापारियों पर पड़ने वाले असर से निबटने के लिए एक प्रभावी रणनीति बनाई जाए, अन्यथा भारत की अर्थव्यवस्था के विकास का सपना स़िर्फ एक सपना बनकर रह जाएगा.
घटनाएं वर्ष अनुमानित नुक़सान (रुपये में)
जाट आंदोलन 2016 35,000 करोड़ से ज़्यादा
चेन्नई की बाढ़ 2015 50,000 करोड़ से ज़्यादा
पटेल आंदोलन 2015 …
उत्तराखंड की बाढ़ 2013 12,000 करोड़ से ज़्यादा
मुंबई की बाढ़ 2005 550 करोड़ से ज़्यादा
गुजरात भूकंप 2001 9,900 करोड़ से ज़्यादा