पिछले दिनों गुजरात में हिन्दीभाषी क्षेत्र के लोगों, खास कर बिहारी मजदूरों और कामगारों पर हुए हमले के बाद यह सवाल फिर से उभर कर सामने आया कि आखिर देश के हर हिस्से में प्रवासी बिहारी ही निशाने पर क्यों रहते है? गुजरात में तो बिहारी कामगारों पर जो हमले हुए, उसमें बिहार के गया जिले के अमरजीत की मौत भी हो गई.
अमरजीत के परिजनों का सीधा आरोप है कि हिन्दी-भाषी प्रवासी मजदूरों के खिलाफ गुजरात में जारी नफ़रत की आंधी ने ही उसकी जान ली है, पर गुजरात के साथ-साथ बिहार के भी सत्ताधारी इससे सहमत नहीं हैं.
बिहार भाजपा के सबसे बड़े नेता सुशील कुमार मोदी ने भी कहा है कि अमरजीत की मौत सड़क हादसा का ही परिणाम है. उनका यह भी दावा है कि गुजरात प्रशासन बिहार-उत्तर प्रदेश के प्रवासी मजदूरों को हरसंभव सुरक्षा प्रदान कर रही है, डरने की कोई बात नहीं है. अमरजीत की मौत का कारण जो भी हो, पर जिस दौर में उसकी मौत हुई और उसकी देह पर जो निशान पाए गए हैं, वे शक तो पैदा करते ही हैं. इस मौत से गुजरात में रह रहे बिहार और उत्तर प्रदेश के प्रवासी मजदूरों में एक बार फिर दहशत का पैदा होना स्वाभाविक ही है.
गांधी की जन्मभूमि और देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लंबे अर्से तक कर्मभूमि रही गुजरात में हिन्दी-भाषी प्रवासियों के खिलाफ जारी नफ़रत की आंधी ने भारतीयता और राष्ट्रवाद को किस कदर आघात पहुंचाया और इससे कितना, क्या-क्या और किस-किस की हानि हुई, फिलहाल इसका लेखा-जोखा तो कठिन है. पर इसके बरअक्स इतना तो कहा ही जा सकता है कि उत्कट क्षेत्रवाद की ऐसी हिंसक अभिव्यक्ति केवल और केवल वोट की राजनीति को ताकत देने की कोशिश है.
इस राजनीति को अबकी कितनी ताकत मिली है, यह कहना भी कठिन है. पर यह कटु सत्य है कि इस राजनीति के कारण ही हालात सामान्य बनाने के लिए जरूरी प्रशासनिक व राजनीतिक कार्रवाई के बदले सत्तारूढ़ भाजपा (एनडीए के घटक दलों के साथ) और विपक्षी कांग्रेस (अपने सहयोगी दलों सहित) सिर्फ बयानात जारी कर एक दूसरे को जिम्मेवार बता रही हैं.