उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में अब कुछ ही महीने बाकी हैं. लेकिन अभी तक राज्य में सरकार बनाने के दावेदार सभी राजनीतिक दल चुनाव एजेंडे और जनसमस्याओं को लेकर दिशाहीन है. कानून व्यवस्था सुधारने और विकास के दावे अवश्य राजनीतिक रैलियों में किये जा रहे हैं परन्तु राजनेताओं के इन दावों में सच्चाई का पुट तक नहीं है. यही वजह है कि नेताओं के भाषणों में जनता को प्रभावित करने वाले शब्दों का जोर नहीं है. कुछ देर तक उपहार बांटने तथा कर्ज माफी आदि तरह-तरह के लुभावने वादे करने में भी जुटे हैं लेकिन इनके वादों पर जनता का भरोसा नहीं जम पा रहा है. चुनावी वादों से सभी दल राज्य के चुनावी गणित को देखते हुए जातीय समीकरण साधने में लगे हुए हैं. प्रदेश में दर्जनों राजनीतिक दलों के पंजीकरण के बाद भी केवल चार ही दल सत्ता संघर्ष में चल रहे हैं. फिलहाल चुनावी संग्राम में इन दलों की स्थिति देखने लायक है.
सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी की सरकार के खिलाफ कानून-व्यवस्था ध्वस्त होने, सपाई कार्यकर्ताओं की राज्य में चल रही गुंडागर्दी तथा जमीन कब्जाने की घटनाएं सरकार की छवि को प्रभावित कर रही हैं तो मुख्यमंत्री अखिलेश यादव लगातार विकास के दावे के साथ ही सभी चुनावी वादे पूरे करने की भी घोषणा कर रहे हैं. साढ़े चार वर्ष की सरकार में अखिलेश सरकार कानून-व्यवस्था और गुंडागर्दी के आरोपों से मुक्त नहीं हो पाए. अखिलेश सरकार पर यह आरोप विपक्ष से ज्यादा उनके पिता तथा सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव ज्यादातर सार्वजनिक सभाओं में करते रहे. मुलायम सिंह प्रदेश की राजनीति के वह नेता हैं जिनकी सरकार के खिलाफ 2007 में खराब कानून-व्यवस्था के आरोपों से ही बसपा पूर्ण बहुमत की सरकार बना पाई थी. मुख्यमंत्री अखिलेश यादव सपा के चुनावी वादे पूरे करने के जो भी वादे करें लेकिन कई महत्वपूर्ण वादों को शायद वह भूल ही गए. पहले मुलायम सरकार ने बेरोजगारी भत्ते की शुरुआत की और 2012 के चुनाव में यह भत्ता बढ़ाकर 1000 रुपये प्रतिमाह करने का वादा किया गया जिसका चुनाव में लुभावना असर हुआ, परन्तु सरकार बनने के बाद सपा सरकार ने हाथ पीछे खींच लिए. छात्रों को लैपटॉप और आईपैड देने का वादा भी आधा-अधूरा ही रहा. इसी प्रकार बेसिक छात्रों को मुफ्त किताबें और ड्रेस देने का हर वर्ष का वादा अभी तक कभी पूरा ही नहीं हुआ.
अखिलेश सरकार के चार साल के शासन में हुआ, वह यादव कुल के जवानों को सरकारी नौकरी में किसी भी तरह से पहुंचाने का प्रयास सफल रहा. इसके लिए भर्ती करने वाली सारी संवैधानिक संस्थाओं का क्रियाकलाप भी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया. इसके साथ ही सभी कमाऊ पदों तथा पुलिस थानों पर यादव कुल के लोगों को ही प्रमुख जिम्मेदारी दी गई. मुस्लिम हितों के संरक्षण की बात अवश्य की गई परन्तु कानून-व्यवस्था और दंगों के मामलों में ही उनके अपराधिक तत्वों को संरक्षण दिया गया. शिक्षा तथा रोजगार के लिए कोई पहल नहीं की गई.
मुख्यमंत्री अखिलेश यादव लगातार विकास के वादे करते रहे, जिसमें लखनऊ मेट्रो उनकी उपलब्धि रही परन्तु आगरा-लखनऊ एक्सप्रेस के पीछे की कहानी कुछ और ही कहती है. प्रदेश में तमाम दावों के बाद भी सड़कों और नहरों की हालत अत्यन्त खराब है. इन तमाम ऊंच-नीच के बीच चुनाव से कुछ माह पूर्व सैफई के यादव कुल में सत्ता को लेकर जो संघर्ष शुरू हुआ है, उसने पूरे राजनीतिक समीकरण को बदल दिया है. यदुवंश एकता का जो भी दावा करे परन्तु इस घटना ने सपा के राजनीतिक भविष्य की पटकथा लिख दी है. यह संघर्ष और बढ़ने के ही आसार हैं. चुनाव बाद ही इसका पटाक्षेप होने की संभावना है. ऐसे में सपा के पास भी यादव समर्थकों के अलावा मुस्लिमों के ही साथ का विश्वास है. नौकरियों में यादवों को जिस प्रकार तरजीह दी गई है तथा अन्य वर्गों के योग्य छात्रों की उपेक्षा की गई है, उसका सपा सरकार के खिलाफ प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है. अखिलेश सरकार ने चुनाव से पहले किसानों को स्मार्ट फोन देने का भी वादा किया है, परन्तु बेरोजगारी भत्ता तथा लैपटॉप से वंचित युवा किसान इस वादे पर कितना विश्वास करेगा, यह समय बताएगा.
बहुजन समाज पार्टी वर्ष- 2007 में सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाय के नारे के साथ राज्य में पहली बार पूर्ण बहुमत की सरकार बना पाई थी. इसके पीछे तत्कालीन मुलायम सरकार में खराब कानून-व्यवस्था को लेकर जनता के आक्रोश का भी प्रभाव रहा. उस समय तक भाजपा तथा कांग्रेस विपक्षी दल सपा का पुरजोर विरोध करने में अपना पक्ष नहीं रख सके और बसपा की आक्रामक नीति ने जनता के विश्वास को अपने पक्ष में कर लिया. मुख्यमंत्री मायावती के 5 वर्ष के शासनकाल में भ्रष्टाचार और सर्वजन हितों को छोड़कर हर हाल में निजी हितों को साधने की प्रवृत्ति ने जनता के बीच बसपा के मूल चरित्र का पर्दाफाश कर दिया. वर्ष 2012 में चुनाव हारने के बाद भी बसपा मुखिया द्वारा सांसदों, विधायकों तथा अन्य पार्टी पदाधिकारियों से चल रही वसूली की चर्चाओं ने पार्टी में आक्रोश पैदा कर दिया. लोकसभा चुनाव में इसका बसपा के खिलाफ माहौल बना जिससे पार्टी का एक भी सांसद जीत नहीं सका. लगातार धन उगाही से परेशान पार्टी के कई बड़े नेता दल छोड़ गए. हालात यहां तक पहुंच गए हैं कि अब बसपा के समर्थन में दलितों के साथ अन्य वर्गों का समर्थन हासिल नहीं हो पा रहा है. मायावती ने मुसलमानों को लुभाने के लिए 130 से ज्यादा सीटों में मुस्लिम प्रत्याशी खड़ा किया है. अब दलित-मुस्लिम गठबंधन ही बसपा का भविष्य तय करेगा.
भारतीय जनता पार्टी वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में केंद्र में नरेन्द्र मोदी की बहुमत की सरकार बनने के बाद से अपना पलड़ा भारी मान कर चल रही है परन्तु जनता को तमाम मुद्दों पर जिस प्रकार अपेक्षा थी, उस पर सरकार खरी नहीं उतरी है. भ्रष्टाचार कम हुआ है, परन्तु महंगाई ने जनता की कमर तोड़ दी है. ढाई वर्ष के मोदी सरकार के कामकाज से भाजपा कार्यकर्ता दुखी हैं और सरकार से संगठन स्तर पर वह उपेक्षित महसूस कर रहा है. मंत्री से पार्टी के नेता तक कार्यकर्ताओं से नहीं मिलते. भाजपा संगठन अब राजनीतिक दल से ज्यादा मैनेजमेंट की भेंट चढ़ गया है. अब पैसे और मैनेजमेंट से बड़ी सभाएं कर भाजपा नेता गदगद हो रहे हैं. वोटर लिस्ट से कागजी बूथ लिस्ट तैयार कर पदाधिकारी वरिष्ठ नेताओं से अपनी पीठ ठुकवा रहे हैं. पार्टी में दूसरे दलों से आए नेताओं की बाढ़ से भाजपा कार्यकर्ता दुखी हैं और इनके साथ सामन्जस्य बैठाना संभव नहीं लगता. ऐसे में पार्टी को चुनाव के समय प्रतिकूल परिस्थिति का सामना करना पड़ सकता है. प्रदेश में भाजपा के खिलाफ यादव और मुस्लिम मतदाता एकतरफा खिलाफ है. भाजपा के लिए अनुकूल यह है कि दलित-यादव को छोड़ ज्यादातर सवर्ण एवं पिछड़ी जातियां उसके समर्थन में खड़ी हैं. भाजपा के पक्ष में रहने के लिए इन वर्गों के सामने विकल्प हीनता भी है, जिनका सपा एवं बसपा में अपना हित सधता नहीं दिख रहा है. प्रदेश में भाजपा का कोई सर्वमान्य नेता भी नहीं है. इसके कारण विधानसभा चुनाव में भी भाजपा को मोदी के नाम का ही सहारा है. यह मोदी मंत्र बिहार एवं दिल्ली में फेल हो चुका है. ऐसे में सही चुनावी रणनीति नहीं अपनाई गई और प्रत्याशी चयन में भाई-भतीजावाद होने पर पार्टी को भारी खामियाजा भुगतना पड़ सकता है.
कांग्रेस तो उत्तर प्रदेश में अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है. इसके लिए कांग्रेस ने अपने राजनीतिक सिपहसालारों पर विश्वास न कर पॉलिटिक्ल इवेन्ट मैनेजर के रूप में उभरे प्रशान्त किशोर की सेवाएं ली हैं. प्रदेश की चुनावी तैयारियों के लिए कांग्रेस ने भी जातीय समीकरण आजमाया है परन्तु पहले फेज़ में ही इसकी कलई खुल गई है. फिल्मी दुनिया के राज बब्बर को कांग्रेस ने जिस प्रकार प्रदेश अध्यक्ष की कमान सौंपी उससे साफ हो गया है कि कांग्रेस के पास अब कोई राजनीतिक चेहरा नहीं है. यही नहीं दिल्ली से लाकर शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री का दावेदार घोषित किया गया जो उम्र एवं राजनीतिक दृष्टिकोण से चार दशक पीछे चली गई हैं. ऐसे चेहरों के बल पर कांग्रेस कैसे चुनाव लड़ेगी, यह तो समय बताएगा परन्तु यह साफ है कि इनके नाम से जातीय वोट कांग्रेस को मिलना मुश्किल होगा. चुनावी तैयारियों के बीच कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की खाट पंचायत चली. यह खाट पंचायत पश्चिम की देन है, परन्तु इसे पूरब, मध्य एवं बुन्देलखंड में भी आजमाया जा रहा है. इस पंचायत के नाम से चल रही राहुल की यात्रा में राज्य विधानसभा चुनाव की झलक ही नहीं मिल रही है. पूरा भाषण केन्द्र एवं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के विरोध पर टिका है. इससे यह जन प्रतिक्रिया आ रही है कि कांग्रेस विधानसभा चुनाव न लड़कर अगले 2019 के लोक सभा चुनाव की तैयारी कर रही है.
प्रदेश में इन चार प्रमुख दलों की चल रही चुनावी तैयारियों एवं राजनीतिक स्थितियों से साफ है कि अभी तक किसी के भी पक्ष की हवा खुलकर नहीं चल रही है. हालांकि चुनावी समीकरणों से यह तो साफ है कि इस बार छोटे दलों की भूमिका वोट काटने की नहीं होगी और चुनाव तक जनता पूर्ण बहुमत की सरकार का मन बना लेगी. इसमें जो भी दल पिछड़ेगा, वह बहुत पीछे हो जाएगा. ऐसे में प्रत्याशी चयन से लेकर चुनावी रणनीति की ठोस कार्रवाई करनी होगी. राजनीतिक दलों को अपने चुनावी वादों पर भी जनता को विश्वास दिलाना होगा.