फिरोज़ाबाद लोकसभा क्षेत्र के उपचुनाव के नतीजे ने धरतीपुत्र मुलायम सिंह यादव के क़दमों तले की ज़मीन सरका दी है. बहू डिंपल की शक्ल में ख़ुद सपा प्रमुख को मुंह की खानी प़डी. लेकिन, अभी कुछ ख़ास बिग़डा नहीं है, बल्कि यह तो एक संकेत और संदेश है कि चेत जाओ नेता जी, वरना आगे रसातल इंतज़ार कर रहा है.
उत्तर प्रदेश में एक लोकसभा व ग्यारह विधानसभा के रिक्त स्थानों के लिए चुनाव हो गए. परिणाम भी आ गए. कांग्रेस ने लोकसभा में और बहुजन समाज पार्टी ने विधानसभा में बाजी मार ली, पर यह बाजी कैसे मारी और इसका असर कहां- कहां पड़ने वाला है, इस पर सभी चुप हैं. चुप इसलिए हैं, क्योंकि अभी बताने वालों को ही नहीं मालूम कि बताना क्या है. यहीं पर पत्रकारिता की नई विकसित होने वाली शैली की शक्तिहीनता और उसकी नपुंसकता का पता चलता है. अगर बहुत मेहनत न भी की जाती और केवल दिल्ली से फिरोज़ाबाद और वहां से लखनऊ की यात्रा ही कर ली जाती तो बहुत सारे रहस्यों पर से परदा उठ जाता और जनता को पता चल जाता कि इन चुनावों ने भविष्य के लिए क्या आलेख लिख दिया है. यह भी सा़फ हो जाता कि फिरोज़ाबाद उपचुनाव भारत की राजनीति पर असर डालेगा भी या नहीं.
फिरोज़ाबाद लोकसभा उपचुनाव एक ऐसे रियलिटी शो जैसा था, जिसमें आख़िर तक रहस्य और रोमांच बना रहा. इस उपचुनाव में राजबब्बर का असंभव सपना सच हो गया और मुलायम सिंह के लिए यह चुनाव उनकी ज़िंदगी की पहली ख़तरनाक हार बन गया. हार भी ऐसी, जो संकेत दे कि अब भी न संभलने पर राजनीति की फिसलन की दिशा पतन की ओर ही जाती है. इस चुनाव ने पंचतंत्र की कछुए और खरगोश की कहानी को एक बार फिर से सच कर दिया और साबित कर दिया कि हमारी कहावतें हज़ारों साल के अनुभव से निकल कर गढ़ी गई हैं, वे यूं ही नहीं हैं. पर इस पर बाद में, अभी तो बात मुलायम सिंह से शुरू करते हैं.
मुलायम सिंह उत्तर प्रदेश की राजनीति में जनता पार्टी की सरकार के समय चमके. उस समय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रामनरेश यादव थे. मुलायम सिंह ने सहकारिता मंत्री रहते हुए कांग्रेस के सहकारिता तंत्र को तोड़ दिया और एक नया तंत्र खड़ा कर दिया. मुलायम सिंह उत्तर प्रदेश में सत्ता के केंद्र में पहुंचने वाली वंचित, लेकिन ताक़तवर पिछड़ी जातियों के नेता बन कर उभरे. हालांकि जनता पार्टी की सरकार के मुख्यमंत्री रामनरेश यादव भी पिछड़े थे, उनके मंत्रिमंडल में कल्याण सिंह और ओमप्रकाश सिंह सरीखे पिछड़े नेता मंत्री थे, लेकिन इनके बीच उभरे केवल मुलायम सिंह. मुलायम सिंह सारे प्रदेश में घूमते थे. वे कार्यकर्ताओं में विधान सभाओं के अलावा ज़िला परिषदों, ब्लॉक समितियों और ग्राम सभाओं में जाने का सपना जगाने लगे. दिन भर थक कर रात में सहकारिता मंत्री के बंगले के आंगन में चारपाई पर बैठे मुलायम सिंह को सूखे फुल्के, आलू की सब्ज़ी और काली उड़द की दाल खाते जिन्होंने देखा होगा, उन्हें उस समय लगा होगा कि मुलायम सिंह के रूप में उत्तर प्रदेश की आवाज़ बनने वाला एक नेता आकार ले रहा है.
मुलायम सिंह चौधरी चरण सिंह के साथ राजनीति करते थे और राज नारायण जी उनके दिशा निर्देशक थे. मुलायम सिंह में इसी दौरान मुख्यमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा पैदा हुई, जिसके लिए उन्हें का़फी इंतज़ार करना पड़ा. वे विपक्ष में रहे और मुख्यमंत्री वी पी सिंह को उन्होंने ख़ूब परेशान किया. श्रीपति मिश्र, नारायण दत्त तिवारी, दोनों ही मुलायम सिंह से पनाह मांगते रहे. वीर बहादुर सिंह थे तो मुख्यमंत्री, पर उनकी दोस्ती मुलायम सिंह से का़फी रही. और यह वह दौर था, जब मुलायम सिंह ने ढेरों नौजवानों को सचमुच नेता बना दिया. उन्होंने एक ऐसी टीम खड़ी कर दी, जो वैचारिक हथियार से लैस उनके लिए जीने-मरने का काम करती थी. सन् नवासी के लोकसभा चुनावों के साथ उत्तर प्रदेश में विधानसभा के भी चुनाव हुए. अजीत सिंह और मुलायम सिंह के बीच चुनाव हुआ, जिसमें वी पी सिंह के साथियों के समर्थन के बाद मुलायम सिंह मुख्यमंत्री बने.
मुख्यमंत्री रहते हुए मुलायम सिंह को अनुभव हुआ कि उन्हें अति विश्वस्त साथियों की ज़रूरत है. दरअसल उन्होंने जिन पर भरोसा किया, उन पर से उनका भरोसा टूटा भी जल्दी. उन्हें लगा कि उनका इस्तेमाल लोग करते हैं और अपना क़द बढ़ा लेते हैं. उन्होंने अपनी अध्यक्षता में नई पार्टी बनाई और अपने दो भाइयों को महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी सौंपी. उन्होंने शिवपाल सिंह यादव को उत्तर प्रदेश में और रामगोपाल यादव को दिल्ली में अपने प्रतिनिधि के तौर पर प्रस्तुत किया. अमर सिंह उनके सर्वाधिक विश्वस्त रणनीतिकार, दोस्त और सखा बन कर उभरे.
इन दस सालों में जहां मुलायम सिंह ने कांशीराम और मायावती के साथ राजनैतिक प्रयोग किए, दोस्ती और दुश्मनी की पारी खेली, वहीं उन्होंने अपने उन साथियों से दूरी बना ली या दूरी बनती गई, जिन्होंने उन्हें मुलायम सिंह बनाया था. सन् उन्नीस सौ बयानबे से पहले मुलायम सिंह ने जब पैसा चाहा, उनके साथियों ने लोगों से इकट्ठा कर उम्मीद से ज़्यादा दिया.जब गाड़ी चाही, तब गाड़ियां दीं, पर सन् बयानबे से उनके साथी बदलने लगे. कार्यकर्ताओं को लगने लगा कि मुलायम सिंह उनसे दूर जाने लगे हैं. दो हज़ार आते-आते उनका संवाद भी न केवल कार्यकर्ताओं से, बल्कि पुराने साथियों से भी कम होने लगा. इसका कारण तो मुलायम सिंह ख़ुद तलाश सकते हैं, पर उनके लोगों को लगने लगा कि उनके साथी के रूप में रहने वाले नेताजी अब नेताजी नहीं, अध्यक्ष जी हो गए हैं.
मुलायम सिंह जी ने हल्की राह बदली, पहले अपने बेटे को संसद में भेजा, फिर अपने भतीजे को. उनके दल के लोगों को लगा कि मुलायम सिंह अब और नेताओं से अलग नहीं, बल्कि उन्हीं में से एक हैं. विधानसभा में हार के बाद वे संघर्ष करने, लोगों के बीच जाने, उनके दुखदर्द का हिस्सा बनने की बात ज़रूर करते रहे, पर उनके कार्यकर्ताओं पर उसका असर कम हुआ. होता भी कैसे, मुलायम सिंह की बदली हुई राजनैतिक शैली उनके दल के भीतर आलोचना और शक़ का शिकार हो चुकी थी.
मुलायम सिंह को कैसे पता नहीं चला कि उनके दल के भीतर असंतोष है. उन्हें कैसे पता नहीं चला कि अब उनकी रणनीति पर अमल करने वाले लोग कम हो चुके हैं. नई राह पर चलने के अंतर्विरोधों ने अनदेखी मुश्किलें खड़ी कर दीं. अनिल अंबानी को राज्यसभा से त्यागपत्र देना पड़ा, क्योंकि उन्हें लगा कि वे सभी का निशाना बन रहे हैं. सुब्रत राय से उनकी दूरी बढ़ गई है, ऐसी ख़बरें उन्हीं के यहां से फैलने लगीं. राज बब्बर और अमर सिंह का झगड़ा सरेआम हो गया.
इतना ही नहीं, यह भी ख़बरें फैलीं कि अमर सिंह को मुलायम सिंह का परिवार पसंद नहीं करता है. मुलायम सिंह के राजनैतिक सम्मेलनों में शामिल होने की ख़बरें कम चर्चा में आईं, सिनेमा के कलाकारों के कार्यक्रम ज़्यादा चर्चा में आए. वी पी सिंह के किसान आंदोलन की मांगें क्यों मुलायम सिंह ने नहीं मानीं, आज तक किसी को समझ में नहीं आया. उनके मुख्यमंत्री रहते हुए उनके दोस्त उनसे दूर हो गए और मायावती ने उत्तर प्रदेश में उनके मुक़ाबले में खड़ी अकेली ताक़त के रूप में अपने को जनता के सामने प्रस्तुत कर दिया. मायावती मुख्यमंत्री बन गईं.
लोकसभा चुनाव में अखिलेश यादव से इस्ती़फा दिलवाया गया. यह इसलिए, क्योंकि मुलायम सिंह को लगा कि तीन लाख यादव मतदाताओं और एक लाख लोधी मतदाताओं की मदद से वे फिरोज़ाबाद आसानी से जीत लेंगे. आख़िर उनके साथ लोधियों के सबसे बड़े नेता कल्याण सिंह थे. मुलायम सिंह ने लोकसभा चुनावों में जातीय सीटों के परिणामों से कोई सबक ही नहीं लिया. फर्रुखाबाद लोकसभा सीट पर यादव, ठाकुर और लोधी मतदाताओं की संख्या उनके उम्मीदवार को दो लाख वोटों से जिताने की ताक़त रखती थी, पर फर्रुखाबाद के यादवों ने मुलायम सिंह की, लोधियों ने कल्याण सिंह की और ठाकुरों ने अमर सिंह की बात नहीं मानी. उनका उम्मीदवार चौथे नंबर पर चला गया.
मुलायम सिंह ने शायद सोचा होगा कि वे अपनी बहू को जैसे ही लोकसभा का उम्मीदवार घोषित करेंगे, यादवों में बिजली दौड़ जाएगी. पर अब फिरोज़ाबाद जाने पर पता चलता है कि अपनी बहू को उम्मीदवार बनाना ही मुलायम सिंह को जीवन की तीखी हार का सामना करा गया. जिस तरह बिहार में लालू यादव का अपने परिवार के लोगों को लोकसभा और राज्यसभा में भेजना यादवों में गुस्से का और उनसे दूर जाने का कारण बन गया, वैसा ही मुलायम सिंह के साथ अब उत्तर प्रदेश में हो गया है. फिरोज़ाबाद के लोगों का, विशेषकर यादवों का कहना है कि मुलायम सिंह राजनैतिक लड़ाई नहीं, परिवार के स्थापन की लड़ाई लड़ रहे थे. वे यादवों के सम्मान के नाम पर अपने परिवार के हर सदस्य को राजनीति में लाना चाहते हैं. उन्हीं के दल के यादवों के एक गुट ने कहा कि पहले नेता जी इंटरव्यू लेते थे और पूछते थे कि तुम्हें क्यों विधानसभा या लोकसभा का टिकट दिया जाए, तुमने किया क्या है, पर अब वे नहीं पूछते.
मुलायम सिंह ने अपने दल के कई नेताओं के बेटों को टिकट दिए, उनके परिवार के लोगों को आगे ब़ढाया, पर लोगों ने अनदेखा कर दिया. अब जब उन्हें केवल परिवार के संरक्षक के रूप में उनके दल के लोग देख रहे हैं तो ख़तरनाक प्रतिक्रिया हो रही है. उनके समर्थक वर्ग ने, उनके मतदाताओं ने उनसे विद्रोह कर एक संकेत भेजा है. मुलायम सिंह इस संकेत को कितना समझते हैं और अपने को पुन: अपने दल और जनता के नज़दीक ले जाने के लिए क्या क़दम उठाते हैं, यह देखना दिलचस्प होगा. इसका एक उदाहरण उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी का अध्यक्ष पद है. एक रात में मुलायम सिंह यादव ने अपने बेटे को उत्तर प्रदेश में पार्टी का अध्यक्ष बना दिया. पार्टी सहित समस्त समर्थक वर्ग में सवाल खड़ा हो गया कि क्या संगठन क्षमता है अखिलेश यादव की, पार्टी को ब़ढाने के लिए क्या संघर्ष किया है. जितनी उम्र अखिलेश यादव की है, उससे ज़्यादा बार जेल गए हैं उनकी पार्टी के बहुत से नेता. क्यों उनमें से किसी को अध्यक्ष नहीं बनाया. अखिलेश यादव की अकेली योग्यता मुलायम सिंह यादव का बेटा होना है. मुलायम सिंह को चाहिए था किसी और को अध्यक्ष बनाते और अखिलेश यादव को उत्तर प्रदेश में पांच साल उसके साथ दौड़ाते, तब लोगों के दिमाग़ में सवाल नहीं खड़े होते. यह न करने के कारण प्रदेश में समाजवादी पार्टी का ताना-बाना चरमरा गया.
मुलायम सिंह को अतिविश्वास था, इसलिए उन्होंने फिरोज़ाबाद में अपनी बहू का नाम भी काफी बाद में खोला. लेकिन उन्हें अंदाज़ा हो गया कि लड़ाई उनके हाथ से निकल रही है तो आनन-़फानन में उन्होंने अजीत सिंह से हाथ मिलाया. लोधी वोट को दूर जाने से बचाने का उनके पास कोई उपाय नहीं था, इसलिए उन्होंने अजीत सिंह के बेटे जयंत चौधरी को बुलवाया. राजनीतिक तौर पर फिरोज़ाबाद ऐसी बालू की तरह साबित हुआ कि जितनी मुलायम सिंह ने मुट्ठी कसी, उतनी बालू उनकी मुट्ठी से बाहर निकली.
पिछड़े तबके के लोग मुलायम सिंह से निराश नहीं हैं, लेकिन नाराज़ ज़रूर हैं. वे अस्सी के दशक वाले मुलायम सिंह की तलाश में हैं. उन्हें लगता है कि मुलायम सिंह शायद अभी भी संभल जाएं, क्योंकि मुलायम सिंह सामंती परंपरा के नहीं हैं, जो ग़लतियों से सीख न लें. फिरोज़ाबाद उपचुनाव ने मुलायम सिंह के सामने सोचने के लिए बहुत कुछ रख दिया है, जिनमें पहला विषय है कि क्या लोग जातियों की सीमा से ऊपर उठने लगे हैं? क्या अब जातीय समीकरण से ऊपर उठकर ऐसे उम्मीदवार तलाशने होंगे, जिन्होंने पार्टी के लिए संघर्ष किया हो? क्या परिवार को बाद में और पार्टी कार्यकर्ता को पहले रखने का समय आ गया है?
मुलायम सिंह के सामने एक राजनीतिक ख़तरा भी खड़ा हो गया है. उन्होंने इन चुनावों में अजीत सिंह और कल्याण सिंह के साथ मिलकर जातीय समीकरण बनाने की कोशिश की थी. कल्याण सिंह ने कभी अजीत सिंह को पसंद नहीं किया. कल्याण सिंह, अजीत सिंह को साथ लाने के विरोधी थे, इसलिए उन्होंने लोधियों के बीच गहराई से काम नहीं किया. मुलायम सिंह को लगा कि कल्याण सिंह की लोधियों में पूछ कम हो गई है और अब वे वोट ट्रांसफर की वजह से मुलायम सिंह से दूरी बना भी ली और इसे दिखा भी दिया. मुलायम सिंह ने कल्याण सिंह को समाजवादी पार्टी में न लेने की बात कह अपना रुख़ सा़फ कर दिया कि अब वे कल्याण सिंह के साथ नहीं हैं, लेकिन नुक़सान तो हो चुका है. पिछले चार सालों से उनकी भाषा में मुसलमानों के लिए कोई एजेंडा सुनाई नहीं देता. इसलिए मुसलमानों ने उत्तर प्रदेश में खामोशी से अपना वोट मायावती की ओर मोड़ दिया. मज़े की बात इस वोट के लिए मायावती ने कोई कोशिश ही नहीं की थी, पर अपने लिए समाजवादी पार्टी में कोई सम्मान न देख वे तात्कालिक तौर पर बसपा की ओर चले गए.
मुलायम सिंह के लिए ख़तरा केवल मायावती हैं, जिन्होंने दिखा दिया कि रणनीति कैसे अच्छी बनाई जाती है. चुनावों में वे कहीं नहीं गईं, लेकिन हर जगह उनकी उपस्थिति नज़र आई. ग्यारह विधानसभा सीटों में से नौ का जीतना उन्हें एक नया कद दे गया. मायावती ने भाजपा और कांग्रेस को एक छोटे दायरे में समेट दिया, केंद्रीय मंत्रियों को अपने क्षेत्र में उभरने नहीं दिया और फिलहाल बता दिया है कि उत्तर प्रदेश में अभी भाजपा या कांग्रेस के लिए कोई संभावना नहीं है. लखनऊ पश्चिम की सीट कांग्रेस को मिलना भाजपा की अंदरूनी लड़ाई का परिणाम है, इसे सभी मानते हैं.
मायावती के लिए भी अगर कोई राजनीतिक ख़तरा बन सकते हैं तो वे दो लोग हैं. एक तो स्वयं मायावती, दूसरे मुलायम सिंह. मायावती की राजनैतिक शैली से उनके दल में भी छुटपुट आवाज़ें उठने लगी हैं. और अगर मुलायम सिंह ने अपने को अपने समर्थकों की इच्छानुसार पहले वाला रुख अख्तियार कर लिया, तो वे मायावती को सशक्त चुनौती देने की स्थिति में आ जाएंगे.
मुलायम सिंह को गांवों की, जहां उनका समर्थक वर्ग रहता है, एक मानसिकता याद रखनी चाहिए. गांव में शोहदे और मनचले होते हैं. गांव वाले उन्हें बर्दाश्त करते हैं, क्योंकि वे उनके आदी हो चुके होते हैं. लेकिन अगर कोई साधू गांव में आ जाए और गांव के लोगों को लगे कि वह भी शोहदापन कर रहा है तो बर्दाश्त नहीं करते. मुलायम सिंह को उत्तर प्रदेश के उनके समर्थक वर्ग ने साधू और लीक से हटकर चलने वाले नेता के रूप में देखा था. उन्हें मुलायम सिंह का कांग्रेस की शैली अपनाना अखर रहा है. वे चाहते हैं कि मुलायम सिंह, लोहिया और जयप्रकाश की शैली अपनाएं. इसके बाद भी अगर वे अपनी शैली नहीं बदलते तो इसकी ज़िम्मेदारी स़िर्फ और स़िर्फ उनकी होगी. इसका पहला क़दम होगा कि उन्हें उनकी बातें सुननी होंगी, जो उनके साथ सालों से लगे हैं. उनके हैं, लेकिन उनकी आलोचना उनकी भलाई के लिए करते हैं. पहला कदम कब उठाएंगे मुलायम सिंह जी!