दिल्ली विधानसभा चुनाव में तेजी से बदलाव दिखाई दे रहा है. सभी पार्टियां आक्रामक नज़र आ रही हैं. प्रचार-प्रसार में कोई किसी से पीछे नहीं है. सभी पार्टियां पानी की तरह पैसा बहा रही हैं. लेकिन, अफ़सोस इस बात का है कि दिल्ली विधानसभा चुनाव मुद्दा विहीन हो गया है. भारतीय जनता पार्टी, आम आदमी पार्टी और कांग्रेस पार्टी दिल्ली की जनता से जुड़े मुद्दों पर चुनाव नहीं लड़ रही हैं. ये तीनों पार्टियां मुद्दों को छोड़कर चेहरे के भरोसे चुनाव लड़ रही हैं. इनके बीच एक-दूसरे को नीचा दिखाने की प्रतियोगिता चल रही है. एक-दूसरे पर आरोप लगाकर बहस जीतने की होड़ लगी है. जनता का दिल जीतने का प्रयास कोई भी नहीं कर रहा है. तीनों पार्टियों ने चुनाव को मुद्दों से भटका कर व्यक्तित्व की लड़ाई बना दिया है. इस बीच आम आदमी पार्टी की उलझनें बढ़ गई हैं. पार्टी को विरोधियों से ज़्यादा अपने ही नेताओं के बयानों से ऩुकसान हो रहा है.
दिल्ली विधानसभा चुनाव की सरगर्मियां पिछले छह महीने से चल रही थीं. इसमें कोई शक नहीं है कि इस चुनाव का एजेंडा आम आदमी पार्टी ने तय किया. सबसे पहले उसने अपने उम्मीदवारों को मैदान में उतारा. सबसे ज़्यादा प्रचार-प्रसार भी आम आदमी पार्टी ने ही किया. चुनाव प्रचार के जितने भी तरीके हैं, जैसे कि पोस्टर, पैम्फलेट, होर्डिंग, रैलियां, सभाएं और रेडियो में आम आदमी पार्टी छाई हुई थी. केजरीवाल दिल्ली के लोगों की पहली पसंद बन चुके थे. कहने का मतलब यह कि आम आदमी पार्टी चुनाव की घोषणा के वक्त सबसे आगे चल रही थी. चुनाव की तैयारियों के लिहाज से भारतीय जनता पार्टी काफी पीछे थी. लेकिन, दिल्ली की राजनीति में सबसे बड़ा भूचाल तब आया, जब भारतीय जनता पार्टी ने देश की पहली महिला आईपीएस अधिकारी और जन-लोकपाल आंदोलन में अन्ना हजारे की सहयोगी रहीं किरण बेदी को अपना मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाकर मैदान में उतार दिया.
अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी इस चुनौती का आकलन सही ढंग से नहीं कर पाए. केजरीवाल और उनके साथी रैलियां कर रहे थे, ज़मीनी स्तर पर मेहनत करने में जुटे थे. वहीं भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेताओं ने स्थिति का जायजा लिया और इस नतीजे पर पहुंचे कि समय की कमी की वजह से ज़मीनी स्तर पर आम आदमी पार्टी से निपटना मुश्किल है. भारतीय जनता पार्टी ने ज़मीन की लड़ाई छोड़कर आम आदमी पार्टी के ख़िलाफ़ मनोवैज्ञानिक युद्ध शुरू कर दिया. आम आदमी पार्टी के नाराज़ नेताओं से संपर्क साधा गया. और, उन्हें एक-एक करके भाजपा में शामिल कराने का सिलसिला शुरू हो गया. पहले छोटे-छोटे नेताओं और कार्यकर्ताओं को पार्टी ने सदस्यता देनी शुरू की. यह सिलसिला तीन-चार दिनों तक चला. फिर आम आदमी पार्टी के तीन मुस्लिम उम्मीदवारों को तोड़कर पार्टी में शामिल किया गया. फिर किरण बेदी को बड़ी धूमधाम से भारतीय जनता पार्टी में शामिल किया गया. उसके एक दिन बाद आम आदमी पार्टी का चेहरा रहीं शाज़िया इल्मी को पार्टी से जोड़ा गया. अगले दिन कांग्रेस पार्टी की पूर्व केंद्रीय मंत्री एवं दलित नेता कृष्णा तीरथ को भी पार्टी ने सदस्यता दी. इसके बाद आम आदमी पार्टी के विधायक रहे विनोद कुमार बिन्नी को भारतीय जनता पार्टी में शामिल किया गया. इस प्रकरण को लगातार मीडिया कवरेज मिल रही थी. हर दिन इन ख़बरों को सुर्खियां मिली. टीवी पर बहस का मुद्दा बनाया गया. भारतीय जनता पार्टी का मकसद सफल होता गया. इस प्रकरण के ज़रिये वह विरोधियों का मनोबल तोड़ने में सफल हुई. हैरानी की बात यह है कि इस सफलता में आम आदमी पार्टी की राजनीतिक अपरिपक्वता ने भी काफी योगदान दिया. हक़ीक़त यह है कि भारतीय जनता पार्टी में शामिल हुए आम आदमी पार्टी के सारे नेता काफी समय से नाराज़ थे. पार्टी की गतिविधियों में वे सक्रिय नहीं थे. इससे पार्टी को खास ऩुकसान भी नहीं होने वाला था, लेकिन भारतीय जनता पार्टी के मनोवैज्ञानिक युद्ध की इस रणनीति को आम आदमी पार्टी की राजनीतिक अपरिपक्वता ने सफल बनाया और वह भाजपा के जाल में फंस गई. वे जितना बोलते गए, पार्टी का समर्थन और कार्यकर्ताओं का मनोबल उतना ही टूटता गया.
आम आदमी पार्टी ने भाजपा में शामिल होने वाले नेताओं के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल दिया. कल तक जो उनकी पार्टी में थे, उन्हें अवसरवादी और दलाल कहना शुरू कर दिया गया. आम आदमी पार्टी के नेताओं की सबसे बड़ी ग़लती यह है कि उन्होंने टीवी डिबेट को जीतने के चक्कर में अपने ही कार्यकर्ताओं का विश्वास खो दिया. नतीजा यह हुआ कि आम आदमी पार्टी का वैचारिक और सांगठनिक विरोधाभास खुलकर सामने आ गया. केजरीवाल पर फिर से दिल्ली का मुख्यमंत्री बनने की ऐसी धुन सवार है कि वह भूल गए कि दिल्ली चुनाव पार्टी के लिए अस्तित्व का सवाल है, इसलिए पार्टी को एकजुट रखना ज़रूरी है. हालात ऐसे बन गए कि केजरीवाल अपनी पार्टी के ही संस्थापकों को संतुष्ट रखने में विफल साबित हुए. और, मुसीबत यह है कि चुनाव से ठीक पहले आम आदमी पार्टी विचारधारा और संगठन के तौर पर बिखरती नज़र आ रही है. कल तक जो पार्टी के चेहरे हुआ करते थे, आज वही लोग या तो पार्टी छोड़ रहे हैं या फिर अपने घर में बैठ गए हैं. कार्यकर्ता नाराज़ हैं. दिल्ली के ज़्यादातर विधानसभा क्षेत्रों में पार्टी के ख़िलाफ़ नारेबाजी हो रही है. कार्यकर्ता केजरीवाल के ख़िलाफ़ नारेबाजी और बयानबाजी कर रहे हैं. आम आदमी पार्टी की हालत ऐसी हो गई है कि नेता रैलियां एवं सभाएं कर रहे होते हैं और मंच के नीचे जनता के बीच आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ता रहे युवा पार्टी और केजरीवाल के ख़िलाफ़ पर्चे बांटते नज़र आते हैं. पार्टी के कई नेता भाजपा में शामिल हो चुके हैं. हैरानी की बात यह है कि इनमें चार मुस्लिम नेता भी थे, जो 2013 के विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार थे. आम आदमी पार्टी इन झटकों से संभल भी नहीं पाई थी कि उसके संरक्षक एवं अति महत्वपूर्ण संस्थापक सदस्य शांति भूषण ने ऐसा बयान दे दिया कि पार्टी चारों खाने चित्त हो गई.
आम आदमी पार्टी के संरक्षक शांति भूषण ने भाजपा की मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवार किरण बेदी की तारीफ़ कर दी. यह ख़बर एक अख़बार में छपी. ख़बर में केवल इतना लिखा था कि शांति भूषण ने कहा कि किरण बेदी केजरीवाल जैसी ही ईमानदार मुख्यमंत्री होंगी. लेकिन, आम आदमी पार्टी के अपरिपक्व प्रवक्ताओं ने राई का पहाड़ बना दिया. अगर केजरीवाल की तरह आम आदमी पार्टी के सारे नेताओं ने इसे नज़रअंदाज कर दिया होता, तो शायद बात आगे नहीं बढ़ती. लेकिन, पार्टी प्रवक्ताओं ने शांति भूषण पर दनादन सवाल दागना शुरू कर दिया. वे यह भूल गए कि वे जिस पार्टी में हैं और जिस आंदोलन की उपज हैं, वे उसी पार्टी और आंदोलन के संस्थापक पर ही सवाल उठा रहे हैं. आम आदमी पार्टी के कच्चे प्रवक्ताओं के जवाब में शांति भूषण ने एक परिपक्व राजनीतिक प्रतिक्रिया दी. टीवी चैनलों पर वह खुलकर सामने आ गए. उन्होंने कहा कि किरण बेदी को सीएम कैंडिडेट बनाना भाजपा का मास्टर स्ट्रोक है. इतना ही नहीं, उन्होंने केजरीवाल को योग्यता के लिहाज से तीसरे नंबर पर रख दिया. उन्होंने कहा कि कांग्रेस के अजय माकन भी केजरीवाल से बेहतर मुख्यमंत्री होंगे. ग़ौरतलब है कि जब आम आदमी पार्टी की स्थापना हुई थी, तब इन्हीं शांति भूषण ने एक करोड़ रुपये देकर पार्टी का कामकाज शुरू करने के लिए आशीर्वाद दिया था. शांति भूषण का केजरीवाल पर यह हमला महज इत्तेफाक नहीं है, बल्कि पार्टी के अंदर चल रही गुटबाजी का नतीजा है. लोकसभा चुनाव से पहले से ही पार्टी के अंदर दो गुट हैं. एक गुट चाहता है कि पार्टी उन मूल्यों को प्राथमिकता दे, जिनके आधार पर पार्टी की शुरुआत हुई. यह पार्टी आंतरिक प्रजातंत्र, शक्ति के विकेंद्रीकरण और व्यवस्था परिवर्तन जैसे मूल्यों को लेकर बनाई गई, जिससे आम आदमी की राजनीति और सत्ता में हिस्सेदारी सुनिश्चित हो. इस गुट को अरविंद केजरीवाल के बर्ताव से परेशानी होती है. इसके सदस्यों का कहना है कि पार्टी बनाते वक्त यह धारणा थी कि इसमें कोई अध्यक्ष नहीं होगा, कोई पार्टी का सुप्रीमो नहीं होगा. यह एक राष्ट्रीय चरित्र वाली कमेटी होगी, जो मुद्दों पर अपनी राय रखेगी और पार्टी का संयोजक होगा, जो कमेटी के सदस्यों की राय के बीच समन्वय करेगा. इस गुट का आरोप है कि केजरीवाल सत्ता के भूखे हो गए हैं और पार्टी में वह संयोजक नहीं, बल्कि किसी सुप्रीमो की तरह बर्ताव करते हैं. वह किसी से संपर्क नहीं रखते, किसी की राय नहीं सुनते. वह स्वयं ़फैसला करते हैं और उसे पार्टी पर थोप देते हैं. इस गुट का यह भी आरोप है कि पार्टी को एक पर्सनालिटी कल्ट में बदल दिया गया है. इस गुट का मानना है कि पार्टी को एक व्यक्ति-एक पद की नीति पर चलना चाहिए. इसकी शिकायत यह भी है कि हर जगह स़िर्फ केजरीवाल नज़र आते हैं और पार्टी के सभी मूल्यों को ताख पर रख दिया गया है. शांति भूषण ने यह कहकर इस गुट की भावनाओं को आवाज़ दी है कि केजरीवाल सत्ता के भूखे हो गए हैं और केजरीवाल पार्टी के अंदर एक डिक्टेटर (तानाशाह) की तरह काम करते हैं. साथ ही शांति भूषण ने यह भी कहा कि कार्यकर्ताओं से शिकायत मिल रही है कि दिल्ली चुनाव में आम आदमी पार्टी ने पैसे लेकर टिकट बेचे हैं. सबसे बड़ी बात शांति भूषण ने यह कही कि अरविंद केजरीवाल पार्टी संयोजक के पद से इस्तीफ़ा दें, पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक बुलाई जाए और नया संयोजक नियुक्त किया जाए. बताया जाता है कि केजरीवाल विरोधी गुट चाहता है कि योगेंद्र यादव को पार्टी का नया संयोजक नियुक्त किया जाना चाहिए.
यह भी समझना ज़रूरी है कि अगर पार्टी में शांति भूषण जैसे लोग संरक्षक होंगे, तो दुश्मनों की ज़रूरत नहीं है. चुनाव में 15 दिन भी नहीं बचे थे, जब शांति भूषण ने अपना ब्रह्मास्त्र चला दिया. शांति भूषण का हमला आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ताओं को निराश करने वाला ज़रूर है, लेकिन इसके लिए ज़िम्मेदार भी आम आदमी पार्टी के कच्चे नेता ही हैं. राजनीति का खेल मानसिक रूप से अपरिपक्व लोगों के लिए नहीं है. यह एक गंभीर काम है और इससे करोड़ों लोगों का भविष्य तय होता है.
यहां यह भी समझना ज़रूरी है कि अगर पार्टी में शांति भूषण जैसे लोग संरक्षक होंगे, तो दुश्मनों की ज़रूरत नहीं है. चुनाव में 15 दिन भी नहीं बचे थे, जब शांति भूषण ने अपना ब्रह्मास्त्र चला दिया. शांति भूषण का हमला आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ताओं को निराश करने वाला ज़रूर है, लेकिन इसके लिए ज़िम्मेदार भी आम आदमी पार्टी के कच्चे नेता ही हैं. राजनीति का खेल मानसिक रूप से अपरिपक्व लोगों के लिए नहीं है. यह एक गंभीर काम है और इससे करोड़ों लोगों का भविष्य तय होता है. आम आदमी पार्टी का उतावलापन और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं ही उसके सबसे बड़े दुश्मन हैं. आम आदमी पार्टी को पिछले लोकसभा चुनाव में 33 फ़ीसद वोट मिले थे. पार्टी नेताओं की रणनीति स़िर्फ यह होनी चाहिए थी कि संगठन को एकजुट रखकर और नाराज़ नेताओं को संतुष्ट करके इसमें दो-तीन फ़ीसद वोटों का इजाफ़ा किया जाए. योगेंद्र यादव जैसे चुनावी विश्लेषक पार्टी में होते हुए भी यह बात केजरीवाल को क्यों समझ में नहीं आई कि दिल्ली में जिस किसी पार्टी को 35 फ़ीसद से ज़्यादा वोट मिलेंगे, वह पार्टी आराम से बहुमत हासिल कर लेगी. जिस तरह की ग़लतियां आम आदमी पार्टी ने पिछले विधानसभा और लोकसभा चुनाव के दौरान कीं, वही ग़लतियां इस दिल्ली चुनाव में भी दोहराई जा रही हैं. परिपक्व नेताओं की यह निशानी होती है कि वे इस बात को समझते हैं कि कब, कहां और कैसे किसी मुद्दे को हाइप देना है और किन मुद्दों पर चुप्पी साधनी है. केजरीवाल और आम आदमी पार्टी के नेता अब तक चुप्पी साधने की कला नहीं सीख पाए हैं.
आम आदमी पार्टी के प्रवक्ताओं और नेताओं में राजनीतिक अपरिपक्वता तो है ही, साथ ही अति उत्साह में वे सच और झूठ का फ़़र्क भी मिटा देते हैं. ऐसा लगता है कि आम आदमी पार्टी उस थ्योरी पर काम करती है कि जनता की याददाश्त कमज़ोर होती है, इसलिए मीडिया में कुछ भी सच-झूठ बोल दो, जनता को पता नहीं चलेगा. यही वजह है कि शांति भूषण के हमले के बाद पार्टी प्रवक्ता इतने परेशान हो गए कि वे एक के बाद एक झूठ बोलते चले गए. सबसे बड़ा झूठ कवि से नेता बने कुमार विश्वास ने टाइम्स नाउ चैनल पर बोला. उन्होंने दावा किया कि भूतपूर्व सेनाध्यक्ष और वर्तमान में केंद्रीय मंत्री जनरल वीके सिंह ने उनके सामने अन्ना हजारे को भारतीय जनता पार्टी के ख़िलाफ़ बयान देने या मोर्चा खोलने से मना किया था. सच्चाई यह है कि अन्ना हजारे, जनरल वीके सिंह और कुमार विश्वास की एक साथ कभी मुलाकात हुई ही नहीं. दरअसल, झूठ बोलने की सारी सीमाएं लांघते हुए विश्वास यह भूल गए कि जब रामलीला मैदान में अन्ना का आंदोलन चल रहा था, तब जनरल वीके सिंह इस आंदोलन का हिस्सा नहीं थे, बल्कि उस वक्त वह देश के थलसेना अध्यक्ष थे. कुमार विश्वास ने जो बयान दिए, वे न स़िर्फ झूठे हैं, बल्कि उनकी पार्टी के लिए नुक़सानदायक भी हैं. मजेदार बात यह है कि कुमार विश्वास की मुलाकात जनरल वीके सिंह से स़िर्फ एक बार हुई, वह भी आधे घंटे की और कुरुक्षेत्र के सर्किट हाउस में. यह उस वक्त की बात है, जब अरविंद केजरीवाल नंदनगरी में बिजली बिल को लेकर भूख हड़ताल कर रहे थे. भूख हड़ताल को जनता का समर्थन नहीं मिल रहा था. उस दौरान अन्ना हजारे और जनरल वीके सिंह हरियाणा में जनतंत्र यात्रा कर रहे थे. केजरीवाल अपनी भूख हड़ताल की साख बचाने के लिए चाहते थे कि अन्ना दिल्ली आकर उनकी भूख हड़ताल को उन्हें पानी पिलाकर ख़त्म करें. उसी दौरान कुमार विश्वास और मनीष सिसौदिया की जनरल वीके सिंह से पहली और आख़िरी बार मुलाकात हुई थी. आम आदमी पार्टी के नेताओं को यह समझना चाहिए कि टीवी चैनलों पर आकर सफेद झूठ बोलना भविष्य के लिए उचित नहीं है. इस तरह की बयानबाजी दो ही वजहों से होती है. एक तो जब नेता जनता को बेवकूफ समझने की ग़लती करते हैं या फिर वे आदतन ऐसा काम करते हैं.
आम आदमी पार्टी का चुनाव प्रचार और भाषा उसके आदर्शों के मुताबिक नहीं है. पार्टी के प्रवक्ता और नेता सरेआम अपने ही नाराज़ कार्यकर्ताओं को बुरा-भला कहने का एक भी मौक़ा नहीं छोड़ते. इसका गहरा असर पार्टी के लिए काम कर रहे कार्यकर्ताओं पर पड़ता है. कई कार्यकर्ता पार्टी की कार्यशैली से परेशान हैं. यही वजह है कि 2013 की तरह इस बार पार्टी कार्यकर्ता दिल्ली की सड़कों पर नज़र नहीं आ रहे हैं. ज़्यादातर कार्यकर्ताओं की शिकायत यह है कि पार्टी में उन लोगों को दरकिनार कर दिया गया है, जिन्होंने अपना खून-पसीना बहाकर जन-लोकपाल आंदोलन को सफल बनाया था और फिर उसके बाद पार्टी को दिल्ली में खड़ा किया था. उनकी शिकायत यह भी है कि पार्टी के शीर्ष पर बाहर के लोग एक गैंग बनाकर स्थापित हो गए हैं. वे कार्यकर्ताओं से बात तक नहीं करते. वही लोग पार्टी के नाम पर हर जगह अपना चेहरा चमकाते हैं. वही लोग टीवी पर भी नज़र आते हैं. बाहर से आए लोगों को पार्टी में जबरदस्त तरजीह दी जाती है, जिससे कार्यकर्ता नाराज़ हैं. सबसे ज़्यादा निराश वे कार्यकर्ता हैं, जो अपनी नौकरी, अपना भविष्य और अपना करियर दांव पर लगाकर इस आंदोलन से जुड़े थे. आम आदमी पार्टी के सामने व्यापक चुनौती है. पार्टी एक चक्रव्यूह में फंसी है. अगर वह दिल्ली चुनाव जीत गई, तो इस चक्रव्यूह से बाहर आने के रास्ते खुल जाएंगे और अगर वह दिल्ली चुनाव हार जाती है, तो इस चक्रव्यूह में और भी ज़्यादा फंस जाएगी. और, तब पार्टी का हश्र वही होगा, जो चक्रव्यूह में फंसे अभिमन्यु का हुआ था.
दलबदलुओं को सबक सिखाने का वक्त
भारतीय राजनीति में दल-बदल का सिलसिला कोई नया नहीं है. आयाराम-गयाराम का मुहावरा भारतीय राजनीति की ही देन है. भारतीय राजनीति का यह पुराना रोग मौजूदा दिल्ली विधानसभा चुनाव में भी देखने को मिल रहा है. लेकिन इस बार चुनौती दिल्ली के मतदाताओं के सामने है कि वे इससे कैसे निपटते हैं. दिल्ली में अधिकांश मतदाता पढ़े-लिखे हैं लेकिन उन्हें मौके की नजाकत को समझते हुए उन सभी मौकापरस्त नेताओं को सबक सिखाना होगा जो चुनाव आते ही गिरगिट की तरह रंग बदलते हैं. दिल्ली के मतदाताओं को पूरे देश के लिए एक संदेश देना होगा कि बहुत हुआ, अब बस… ऐसे दलबदलुओं को नकार कर यह बताना होगा कि जनता हर उस मौकापरस्त नेता को सबक सिखाएगी जो चुनावी मौसम आते ही अपना राजनीतिक चोला बदल लेते हैं. मौजूदा चुनाव में भी कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, बसपा और अन्य दलों से कई नेताओं ने दलों की अदला-बदली की है. यहां सवाल यह है कि भारतीय राजनीति को साफ करने के लिए चुनाव आयोग आचार संहिता लागू होने के बाद राष्ट्रीय और प्रादेशिक दलों के नेताओं के दल-बदल पर कानूनी रूप से रोक लगाने का प्रावधान क्यों नहीं करता?