चुनाव प्रचार की अनौपचारिक रणभेरी बजने के बाद ही बसपा प्रमुख मायावती उत्तर प्रदेश की ओर रुख करती हैं. सत्ता में होती हैं, तो बात अलग. वह यहीं पर रहती हैं लेकिन सत्ता से हटने के साथ ही जैसे उनका उत्तर प्रदेश से मोहभंग हो जाता है. तब उनका अधिकांश समय नई दिल्ली में व्यतीत होता है. यदा-कदा वह लखनऊ आती हैं. लेकिन विधानसभा चुनाव से कुछ महीने पहले उनकी सक्रियता एकदम से बढ़ जाती है. साढ़े चार वर्षों में वह जितनी बार लखनऊ न आई होंगी, उससे अधिक बार पिछले कुछ महीनों में आ चुकीं. यहां वह पार्टी नेताओं की बैठक व प्रेस कॉन्फ्रेंस करती हैं. शायद यह उनके चुनाव प्रचार का प्रथम चरण होता है. दूसरे चरण में वह जनसभाएं करती हैं. आगामी चुनाव के मद्देनजर उनकी पहली रैली आगरा में संपन्न हुई.
सपा के पहले पांच वर्षों तक बसपा को पूर्ण बहुमत के साथ सरकार चलाने का अवसर मिला था. दूसरी ओर सपा की बहुमत सरकार भी अपना कार्यकाल पूरा करने जा रही है. ऐसे में बसपा प्रमुख से यह अपेक्षा थी कि वह दोनों सरकारों के बीच तुलना करतीं, अपनी उपलब्धियां गिनातीं, सपा सरकार की नाकामी बतातीं और अन्त में यह बतातीं कि पुनः बसपा की सरकार क्यों बननी चाहिए. केंद्र सरकार पर निशाना लगाना उनका अधिकार है. इस समय ऐसा करना उनकी आवश्यकता भी है. पिछले लोकसभा चुनाव ने उत्तर प्रदेश के राजनीतिक परिदृश्य को पूरी तरह बदल कर रख दिया था. इसमें बसपा का खाता नहीं खुला था. उनके वोट बैंक में भी सेंधमारी हुई थी. ऐसे में उनका भाजपा पर हमला स्वाभाविक है.
यह अजीब लगता है कि मायावती अपने पांच वर्षीय शासन के आधार पर वोट नहीं मांगतीं. वह उस दौर की खास चर्चा नहीं करतीं. सपा की कमियों को दूर करने का विश्वास नहीं दिलातीं. इसके विपरीत उनका पूरा फोकस केंद्र की दो वर्ष पुरानी सरकार पर रहता है. जब कोई नेता अपने पांच वर्ष के शासन की चर्चा से बचना चाहे, दूसरे के दो वर्षीय शासन पर जमीन आसमान एक कर दे तो इससे उसकी अपनी ही कमजोरी उजागर होती है. वस्तुतः यह उसके विश्वास के संकट की अभिव्यक्ति होती है. उसमें अपनी उपलब्धियों के आधार पर वोट मांगने का साहस नहीं होता. इसलिए चुनाव प्रचार को नकारात्मक दिशा में चलाने का प्रयास होता है.
2007 के विधान सभा चुनाव में मायावती के प्रचार को याद कीजिए. वह तब सपा शासन पर गुंडागर्दी का आरोप लगाती थीं. कानून व्यवस्था को बदहाल बताती थीं. लोग इस अनुभव से अपने को जोड़ते थे. फिर जब मायावती कहती थीं कि वह कानून व्यवस्था ठीक कर देंगी, लोग विश्वास करते थे. मायावती भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाती थीं. आरोपित को जेल भेजने की बात करती थीं, लोग विश्वास करते थे. इसी विश्वास ने बसपा को पूर्ण बहुमत में पहुंचाया था लेकिन पांच वर्षों में ही यह अविश्वास में बदल गया. भ्रष्टाचार के आरोप में जांच या जेल भेजने की बात दूर, बसपा सरकार खुद इन्हीं आरोपों से दागदार हो चुकी थी. माफिया, बाहुबली प्रवृत्ति के लोगों के लिए बसपा के दरवाजे खोल दिए गए. ऐसे लोग किसी भी सरकार के कानून व्यवस्था संबंधी इकबाल को कमजोर बना देते हैं. यही बसपा सरकार के साथ हुआ.
मतलब जिन दावों के बल पर बसपा सत्ता में पहुंची थी, उन्हीं के प्रति अविश्वसनीय होकर उसे सत्ता से हटना पड़ा था. आज मायावती इसी कठिनाई से गुजर रही हैं. वह अपनी उपलब्धियों को बताकर लोगों का विश्वास जीतने की स्थिति में नहीं हैं. कई दिग्गज व विश्वासपात्र उनका साथ छोड़ चुके हैं, चुनाव तक कई अन्य नाम भी इसमें जुड़ सकते है. वे चुनाव पर कितना असर डालेंगे, यह तो भविष्य में पता चलेगा किन्तु इतना तय है कि पुराने विश्वासपात्र मायावती की छवि को नुकसान अवश्य पहुंचा रहे हैं. सभी एक स्वर में उनपर टिकट बेचने का आरोप लगा रहे हैं. चुनाव प्रचार आगे बढ़ने के साथ आरोपों के स्वर भी तेज होंगे. इनसे यह प्रतिध्वनि अवश्य निकलती है कि बसपा में कुछ भी नहीं बदला है. टिकट बेचने के आरोप पहले भी लगते थे, तब इन्हें विरोधियों का प्रचार बताया जाता था. अब बसपा की स्थापना के समय से साथ रहे लोग यही बात कह रहे है. ऐसे में आरोप पहले से ज्यादा गहरे हुए हैं. इससे यह सन्देश जा रहा है कि बसपा भ्रष्टाचार के खिलाफ नहीं लड़ सकती. महंगे टिकट लेने वाले लोग कभी ईमानदारी से अपना काम नहीं कर सकते. मायावती को लोगों को यह विश्वास दिलाना कठिन हो रहा है कि वह धन लेकर टिकट नहीं देती हैं. इस आरोप के प्रमाण भले न हों, लेकिन मायावती के विरोधी इसे दोहराते रहेंगे. यह मुद्दा भावी शासन से जुड़ा है, ऐसे में इसका दूरगामी प्रभाव होगा.
यदि मायावती ने अपने पांच वर्षीय शासन में बेहतर कार्य किया होता तो आज वह विश्वास से भरी होतीं. तब वह यह कहने की स्थिति में होतीं कि पिछले विधानसभा चुनाव में सपा को सत्ता देने का जो फैसला हुआ, मतदाता उसे सुधार सकते हैं लेकिन मायावती अब नकारात्मक चुनाव प्रचार को विवश हैं. वह अपने शासन की जगह केंद्र, भाजपा व संघ पर निशाना लगा रही हैं. मायावती आरोप लगाती हैं कि केंद्र सरकार आरक्षण छीनना चाहती है. ऐसा कह कर वह बिहार चुनाव जैसी पटरी पर लौटना चाहती हैं जबकि यह आरोप काठ की हांडी जैसा है, दोबारा नहीं चढ़ने वाला. कोई आरक्षण नहीं छीन रहा है. चुनाव के समय ऐसी बातें करने वाले समाज को बांटना चाहते हैं. ऐसे लोगों को सत्ता में आने के बाद अपने सगे-संबंधी व चुनिंदा लोग दिखाई देते हैं. चुनाव के समय जातिवाद, आरक्षण सर्वजन आदि याद आता है, जबकि सकारात्मक मुद्दों पर चुनाव से ही उत्तर प्रदेश का भला होगा.