19 वर्षों के इतिहास में सबसे खराब स्थिति से गुज़र रही पीडीपी अपनों की बग़ावत और महबूबा की मुश्किल
भाजपा द्वारा समर्थन वापसी के बाद सरकार गिरने और फिर पीडीपी के अंदर की फूट और बगावत के कारण पार्टी प्रमुख और पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती इन दिनों बेहद परेशान हैं. मायूसी उनके चेहरे से झलकती है. 13 जुलाई को शहीद दिवस पर उन्होंने श्रीनगर के ख्वाजा बाजार में मजार पर हाजरी दी और वहां मौजूद पत्रकारों के सवालों का जवाब भी दिया. उन्होंने कहा कि अगर नई दिल्ली ने उनकी पार्टी तोड़ने की कोशिश की, तो घाटी में 1987 की तरह हालात खराब हो जाएंगे, जब सलाहुद्दीन और मोहम्मद यासीन मलिक जैसे लोग पैदा हो गए थे.
उल्लेखनीय है कि जम्मू-कश्मीर में 1987 के विधानसभा चुनावों के दौरान बड़े पैमाने पर धांधली हुई थी. माना जाता है कि नई दिल्ली ने उस समय कश्मीर के विभिन्न सियासी और धार्मिक दलों वाले मुस्लिम संयुक्त मोर्चा को हराने के लिए नेशनल कॉन्फ्रेंस को खुलेआम धांधली की छूट दे दी थी. आम धारणा है कि अगर ये चुनाव पारदर्शी होते, तो मुस्लिम संयुक्त मोर्चा भारी बहुमत से जीत सकता था और नेशनल कॉन्फ्रेंस को हार से दो-चार होना पड़ता.
क्योंकि उस समय आम कश्मीरियों के साथ-साथ नौजवानों की एक बड़ी संख्या मुस्लिम संयुक्त मोर्चे से जुड़ चुकी थी. चुनाव में हुई खुलेआम धांधली से नौजवान नाराज हो गए और उन्होंने बंदुक का रास्ता अपनाया. दो वर्ष बाद जम्मू-कश्मीर में सशस्त्र आंदोलन प्रारंभ हुआ, जो आज तीस वर्ष गुजरने के बाद भी जारी है. उस समय बंदुक उठाने वाले नौजवानों में यासीन मलिक और सलाहुद्दीन भी थे.
महबूबा मुफ्ती ने 1987 की चर्चा करके शायद यह कहना चाहा कि अगर दिल्ली ने पीडीपी को तोड़ने की कोशिश की, तो जनता का लोकतंत्र से रहा-सहा विश्वास भी उठ जाएगा. महबूबा की इस बात पर एक तरफ जहां नई दिल्ली में भाजपा और न्यूज चैनलों ने गंभीर प्रतिक्रिया देते हुए इसे एक खुली धमकी करार दिया, वहीं कश्मीर में इस बयान की खूब खिल्ली उड़ाई गई. वेबसाइटों पर महबूबा मुफ्ती के इस बयान पर मजाक उड़ाया गया. पीडीपी के बागी विधायकों ने भी इसपर गंभीर प्रतिक्रिया व्यक्त की.
‘चौथी दुनिया’ ने महबूबा के इस बयान पर पीडीपी के संस्थापकों में से एक पार्टी के पूर्व नेता तारिक हमीद कर्रा की प्रतिक्रिया ली. उनका कहना था कि महबूबा मुफ्ती ने इस तरह का बयान देकर खुद को बेइज्जत कर दिया है. महबूबा और उनकी पार्टी से लोगों का विश्वास कुछ हद तक खत्म हो गया है. अगर आज वे कश्मीर में स्वतंत्रता आंदोलन भी चलाएंगी तो लोग उनका साथ नहीं देंगे. पीडीपी के टूटने पर सलाहुद्दीन और यासीन मलिक जैसे लोगों का पैदा होना तो दूर की बात है, लोग तो इस पार्टी की टूट से खुश हैं, क्योंकि इन्होंने जनादेश के साथ धोखा किया है.
2014 में पीडीपी ने यह कहकर वोट लिया था कि वो भाजपा को जम्मू-कश्मीर में सत्ता से दूर रखेगी, लेकिन उन्होंने बाद में भाजपा के साथ ही सरकार बना ली. पार्टी के पांच बागी विधायकों ने श्रीनगर में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस कर महबूबा मुफ्ती को उनके बयान के लिए लताड़ा. उन्होंने कहा कि इस बयान के द्वारा महबूबा मुफ्ती ने हमें दिल्ली का एजेंट करार दिया है. यहां इस आरोप के तहत अब तक बहुत लोग मिलिटेंटों के हाथों मारे जा चुके हैं. महबूबा मुफ्ती ने इस तरह का बयान देकर हम सबकी जिंदगी खतरे में डाल दी है.
पीडीपी के अंदर बग़ावत
जम्मू-कश्मीर में गठबंधन सरकार गिरने के बाद ही पीडीपी के पांच विधायक खुलकर पार्टी नेतृत्व के खिलाफ बगावत का ऐलान कर चुके हैं. हालांकि माना जा रहा है कि बागियों की तादात इससे कहीं ज्यादा है. सबसे पहले बगावत करने वालों में प्रसिद्ध शिया नेता और विधायक इमरान रजा अंसारी थे. उन्होंने ‘चौथी दुनिया’ के साथ बात करते हुए कहा कि उन्होंने पार्टी नेतृत्व के खिलाफ इसलिए बगावत की है, क्योंकि इस पार्टी में खानदानी राज चल रहा है. उन्होंने आरोप लगाया कि महबूबा मुफ्ती ने पार्टी के महत्वपूर्ण पद अपने रिश्तेदारों को सौंप दिए हैं. सरकार में भी सारा पावर महज चंद लोगों के हाथों में था. पार्टी का सारा कंट्रोल तीन-चार लोगों ने अपने हाथों में ले रखा था, जिनकी नजर में विधायकों की कोई अहमियत नहीं थी. बहुत सारे काम ऐसे भी होते थे, जिनकी हमें भनक भी नहीं लगती थी और हमें बाद में पता चलता था.
इन्हीं लोगों की वजह से महबूबा मुफ्ती सरकार की बागडोर भी ठीक तरह से नहीं संभाल पाईं. उन्होंने यह भी कहा कि मुझे पार्टी के अंदर घुटन महसूस होती थी, इसलिए हमने सोचा कि महबूबा मुफ्ती को इन दो-चार लोगों के साथ रहने देते हैं और हम अपना रास्ता अगल चुन लेंगे. इमरान रजा का यह भी कहना था कि जबतक मुफ्ती साहब जीवित थे, तबतक सब ठीक-ठाक था. वे सबके साथ राय-मशवरा करते थे. उन्हें पता था कि एक चुने हुए शख्स की क्या अहमियत होती है.
वे सियासी और गैर-सियासी आदमी में फर्क जानते थे. महबूबा जी अपने पिता से यह सब सीखने में चुक गईं. उन्हें पार्टी के अंदर सिर्फ वही लोग पसंद थे, जो उनकी खुशामद करते थे. जो लोग उन्हें तथ्य बताने की कोशिश करते थे, वे उन्हें नजरअंदाज करती थीं. इमरान रजा का कहना है कि पीडीपी के अंदर ही नहीं, बल्कि नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस में भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो इस राज्य को खानदानी राज से निजात दिलाना चाहते हैं. उन्होंने कहा कि हमें इन दोनों खानदानों (मुफ्ती और अब्दुल्ला खानदान) से निजात हासिल करनी चाहिए.
खतरे में पीडीपी का अस्तित्व
मुफ्ती मुहम्मद सईद ने 1999 में कांग्रेस छोड़कर एक क्षेत्रीय दल बनाने का फैसला किया था. उनके साथ उनकी बेटी महबूबा मुफ्ती के अलावा तारिक हमीद कर्रा और मुजफ्फर हुसैन बेग जैसे लोग थे. जुलाई 1999 में पीडीपी कायम की गई. मुफ्ती वाकई एक मंझे हुए राजनेता थे. उन्होंने नई पार्टी लॉन्च करते हुए कश्मीरियों के नब्ज पर हाथ रखा और जख्मों पर मरहम रखने का नारा बुलंद किया. यही वजह थी कि इस नई पार्टी को बहुत कम समय में जनाधार प्राप्त हुआ. वर्ष 2002 में इस पार्टी के सोलह विधायक विधानसभा में पहुंच गए और मुफ्ती साहब मुख्यमंत्री भी बने.
लेकिन जिस तेजी से पीडीपी का उदय हुआ था, आज उसी तेजी से यह पार्टी पतन की तरफ जाती नजर आ रही है. तारिक हमीद ने इस मुद्दे पर ‘चौथी दुनिया’ के साथ बातचीत में कहा कि 2014 के चुनाव के बाद भाजपा के साथ गठबंधन सरकार बनाने के साथ ही नरसंहार को नजरअंदाज करने और सुरक्षा बलों की ज्यादतियों को जायज ठहराकर पीडीपी ने अपने कब्र खोद ली. आज पीडीपी के जनाधार का ग्राफ जिस हद तक गिर गया है, अब उसमें उभार की संभावना दूर-दूर तक नजर नहीं आती. उन्होंने महबूबा मुफ्ती को सलाह देते हुए कहा कि उन्हें अब राजनीति छोड़ देनी चाहिए, क्योंकि जनता में वे अपना विश्वास पूरी तरह खो चुकी हैं. आज न जनता उनके साथ है और न अपनी पार्टी के लोग.
पीडीपी टूट रही है या नहीं, इस सवाल का जवाब तो शायद आने वाले चंद हफ्तों में मिलेगा, लेकिन सच तो यह है कि पीडीपी आज अपने 19 वर्ष के इतिहास में पहली बार सबसे खराब स्थिति से जूझती नजर आ रही है और उसकी नेता महबूबा मुफ्ती इस स्थिति से बहुत परेशान हैं. सत्ता हासिल करना तो उनके लिए बहुत दूर की बात है ही, महबूबा के लिए इस समय सबसे बड़ी चुनौती है कि वे पार्टी को कैसे बचा पाएंगी.