“क्या दिन थे वो कल के
न झपकती थीं ये पलकें
इंतज़ार में उसके..

एकटक देखा करते थे
उन पैरों की छाप भी
उसके जाने के बाद भी!”

हम दोनों तब बेमतलब सी बातों पर देर तक हँसा करते थे। फोन उठाने में एक पल की भी देरी होती तो बेचैनी बढ़ जाती। कोई मैसेज आ जाता तो अपने आप हम मुस्कुरा देते। जो मिलते तो देर तक अपने बदन में उसकी खुश्बू महसूस करते। जो न मिल पाते तो शामें उदास हो जातीं। और भी बहुत कुछ मीठा मीठा हुआ करता! वे नादानियों के दिन थे। वे मोहब्बत के दिन थे। तब हमें एक चाय और एक कोल्ड कॉफी से ज्यादा की दरकार नहीं हुआ करती थी। सच कितने प्यारे दिन थे वे। हमारे दिन थे वे!

उन्हीं दिनों को ताउम्र जी सकें इसी आस में हमने एक यात्रा शुरू की। यात्राओं की पहली शर्त यही होती है कि नादान बने रहने से काम नहीं चलने वाला। आप होशियार होने लगते हैं। आप कुछ और होने लगते हैं! इन सबके बीच कुछ छूटने लगता है। कई बार हम समझ भी नहीं पाते कि क्या छूट गया है और क्या छोड़ आये हैं।

हीरेंद्र झा

(एक प्रेमी की डायरी से चुनकर कुछ पन्ने हम आपके लिए लाते रहेंगे)

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