दूर रहते हुए एक समय के बाद रिश्तों में एक अलगाव स्वत: ही आने लगती है। हम एक दूसरे के बिना रहना सीखने लगते हैं। हर बार एक दूसरे की तकलीफ में हाज़िरी नहीं लगा पाते। खुशियों के क्षणों में भी साथ मुस्कुरा नहीं पाते। मुझसे बेहतर इस टीस को कौन समझता होगा! ऐसे में रूककर-ठहरकर अपने आस पास देखता हूँ। गौर से देखता हूँ। देर तक देखता हूँ। दिखता है एक महाशून्य ने मुझे घेरा हुआ है! मैं अपनी पूरी ताकत लगाकर चीखता हूँ, लेकिन, मेरी आवाज़ किसी तक नहीं पहुँच पाती। मेरी आवाज़, मेरे ही कानों से टकराकर खामोश हो जाती है। फिर मैं भी मौन हो जाता हूँ। नहीं जानता कि कौन हो जाता हूँ? यादों की बरसात में बेचैनियों के सारे रंग मिलकर मस्तिष्क में एक इंद्रधनुष रचने लगते हैं। इस इंद्रधनुष में सिर्फ सात ही नहीं कई ऐसे गुमनाम और अपरिचित रंग भी हैं, जिनकी अपनी कोई पहचान नहीं। कुछ ऐसे रंग भी हैं जो रंगहीन हैं! कभी-कभी मेरे लिये सुबह का एक मतलब इसी अदृश्य इंद्रधनुष के मकड़जाल से उलझना भी है। आज फिर वैसी ही एक सुबह है!
हीरेंद्र झा
(एक प्रेमी की डायरी से चुनकर कुछ पन्ने हम आपके लिए लाते रहेंगे)