भारत में कृषि पर ध्यान देने की आवश्यकता है. मुझे मालूम नहीं है कि इसके बारे में वित्त मंत्री की क्या सोच है लेकिन फसल वीमा और कृषि के लिए पहले से मौजूद समर्थन प्रणाली को सुचारू रूप से चलने के लिए वित्त मंत्री को कदम उठाना चाहिए. अगर कृषि क्षेत्र और गैर-कृषि सूक्ष्म और लघु उद्योगों को पर्याप्त मात्रा में वित्त मुहैया कराया जाता है तो रोजगार में काफी वृद्धि हो सकती है और लोगों के जीवन स्तर में भी सुधार आ सकता है.

small-scaleअगले महीने बजट आने वाला है. मैं समझता हूं, ज्यादातर पर्यवेक्षकों का ध्यान इस पर केंद्रित है कि बजट में कोई बड़ी घोषणायें होती हैं या नहीं. पेट्रोलियम की अंतरराष्ट्रीय कीमतों में गिरावट की वजह से सरकार के लिए थोड़ी आसानी हो गई है. एक, पेट्रोलियम की कीमतों की वजह से आयात के खर्चों में काफी कमी आएगी. दूसरा यह कि देश में खाद्यान भंडार भी संतोषजनक है. फिलहाल सरकार पर दबाव कम है. यदि वित्त मंत्री चाहें तो सरकार कुछ जोखिम उठा सकती है. फिलहाल राजकोषीय घाटा की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है, लेकिन मार्च से पहले यदि स्पेक्ट्रम की बिक्री से एक बड़ी राशि प्राप्त कर ली जाती है, तो राजकोषीय घाटे का आंकड़ा खतरनाक स्तर पर नहीं पहुंचेगा. कुल मिला कर अभी स्थिति नियंत्रण में है.
सरकार के लिए यह सही समय है कि वह विकास और रोजगार सृजन की दिशा में कुछ कदम उठाये. अगर हम चीन के आर्थिक विकास की कहानी को देखें तो आम धारणा यह है कि चीन का विकास प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) की वजह से हुआ है. लेकिन हकीक़त यह है कि चीन में गरीबी उन्मूलन मुख्य रूप से वहां की टाउनशिप एंड विलेज एंटरप्राइजेज (टीवीई) के कारण हुआ. टीवीई हमारे देश के सूक्ष्म,लघु और मध्यम उद्योगों की तरह है.
भारत में गैर-कृषि उद्योगों से लोगों को बड़ी तादाद में रोजगार मिलता है. अब भारत की हालत देखते हैं. यहां 1991 में आर्थिक सुधार की शुरुआत हुई. लेकिन हैरानी की बात यह है कि भारत में पिछले 23 वर्षों में संगठित निजी क्षेत्र ने कुल 37 लाख और सार्वजानिक क्षेत्र ने कुल 50 लाख लोगों को रोज़गार दिया. इसका अर्थ यह हुआ कि पिछले 23 वर्षों में देश में रोज़गार के केवल 22 लाख नए अवसरों की बढ़ोतरी हुई. संगठित क्षेत्र में हजारों करोड़ की हेराफेरी होती है. देश में बड़ी मात्रा में एफडीआई आ रहा है. यह आंकड़े हमें अतिउत्साहित नहीं करते, कि हम बेरोजगारी दूर करने या लोगों को गरीबी से बाहर निकालने के लिए सही दिशा में आगे बढ़ रहे हैं. दरअसल इसके लिए हमें चीन के टीवीई की शैली पर काम करना होगा. भारत में सूक्ष्म और लघु उद्योंगों की प्रगति हो रही है. देश में कुल 5.8 करोड़ सूक्ष्म और लघु उद्योग हैं. क्या दुनिया में कोई ऐसा देश है जहां 5.8 करोड़ उद्यमी होंगे? एक व्यक्ति द्वारा चलाई जा रही दुकान एक उद्यम है या पांच लोगों द्वारा चलाई जा रही कोई छोटी इकाई. हमारे पास जो 5.8 करोड़ उद्यमी हैं उन्हें पूंजी कहां से मिलती है? स्थानीय साहूकार और अनौपचारिक मुद्रा बाजार उन्हें ऊंची व्याज दरों पर पूंजी उपलब्ध कराते हैं. तो फिर साहूकार कहां से पैसा लाते हैं? इसका जवाब है, कहीं से नहीं. वे अपने पैसों से बहुत अधिक पैसा कमा रहे हैं. हम साहूकारों को इनके बीच से हटा भी नहीं सकते, क्योंकि वे कर्जदारों को व्यक्तिगत रूप से जानते हैं.

स्थानीय साहूकार और अनौपचारिक मुद्रा बाजार उन्हें ऊंची व्याज दरों पर पूंजी उपलब्ध कराते हैं. तो फिर साहूकार कहां से पैसा लाते हैं? इसका जवाब है, कहीं से नहीं. वे अपने पैसों से बहुत अधिक पैसा कमा रहे हैं. क्योंकि वे कर्जदारों को व्यक्तिगत रूप से जानते हैं.  दुर्भाग्यवश हमारा सिस्टम इस तरह विकसित हुआ है जिसमें बैंक ऐसे व्यक्तिको क़र्ज़ नहीं देते जिन्हें वे जानते हैं,  यह कंप्यूटर है जो पैसे का लेन-देन कर रहा है और उन्हें प्वाइंट्स दे रहा है. यह इतना अव्यक्तिगत हो गया है कि सूक्ष्म और लघु उद्योगों की किसी बड़े बैंक तक पहुंच हो ही नहीं सकती.

दुर्भाग्यवश हमारा सिस्टम इस तरह विकसित हुआ है जिसमें बैंक ऐसे व्यक्तिको क़र्ज़ नहीं देते जिन्हें वे जानते हैं, यह कंप्यूटर है जो पैसे का लेन-देन कर रहा है और उन्हें प्वाइंट्स दे रहा है. यह इतना अव्यक्तिगत हो गया है कि सूक्ष्म और लघु उद्योगों की किसी बड़े बैंक तक पहुंच हो ही नहीं सकती, और न ही बड़े बैंक कभी ऐसे वास्तविक उद्यमियों तक पहुंच सकते हैं. हमें एक संस्थागत ढ़ांचा तैयार करना होगा. हमारे पास लखनऊ स्थित भारतीय लघु उद्योग विकास बैंक (सिडबी) है, जिसे सरकार द्वारा फंड मुहैय्या किया जा सकता है या उसके बाद आखिरी कर्जदाता के रूप में गांव के साहूकार हैं. और इन दोनों के बीच एक बहुत बड़ा फासला है. हमें एक ऐसी प्रणाली विकसित करनी होगी जिसमें साहूकार का पुनर्वित्तीयन एक जिला स्तर की संस्था करे और इस संस्था की फंडिंग एक राज्य स्तर की संस्था द्वारा हो और इस संस्था की फंडिंग सिडबी द्वारा हो. इस तरह की प्रणाली विकसित की जा सकती है. वित्त मंत्री अरुण जेटली के लिए ऐसी घोषणा करने का यह सुनहरा मौक़ा है जिससे कि कोई भी उद्यमी उचित ब्याज दर पर क़र्ज़ लेने से वंचित नहीं रहेगा. ऐसा करना बहुत मुश्किल भी नहीं है. क्योंकि इसमें जो पैसा लगेगा वह बुनियादी ढ़ांचे के विकास और ऐसी दूसरी परियोजनाओं पर लगने वाली राशि से बहुत कम होगा और इन परियोजनाओं की वजह से अनर्जक परिसंपत्तियों (एनपीए) के बारे में सबको पता है.
सूक्ष्म और लघु उद्योग की खूबी यह है कि इसमें क़र्ज़ की
शत-प्रतिशत उगाही हो जाती है और इसमें कोई एनपीए भी नहीं बनता या इतना कम होता है कि सिस्टम पर इसका कोई खास प्रभाव नहीं पडता. श्री अरुण जेटली के लिए जो सुनहरा मौक़ा है वह है सूक्ष्म और लघु उद्यमों की एक प्रणाली विकसित करना ताकि रोज़गार सृजन को बढ़ावा मिल सके. चीन द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक उन्होंने 15.5 करोड़ लोगों को ग़रीबी रेखा से ऊपर उठाया है, जो एक बहुत बड़ी संख्या है. अगर हम सूक्ष्म और लघु उद्योग की सहायता कर दें तो कृषि के साथ-साथ इस क्षेत्र से भी भारत में गरीबी उन्मूलन के एक बड़े लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है.
भारत में कृषि पर ध्यान देने की आवश्यकता है. मुझे मालूम नहीं है कि इसके बारे में वित्त मंत्री की क्या सोच है लेकिन फसल बीमा और कृषि के लिए पहले से मौजूद समर्थन प्रणाली को सुचारू रूप से चलने के लिए वित्त मंत्री को कदम उठाना चाहिए. अगर कृषि क्षेत्र और गैर-कृषि सूक्ष्म और लघु उद्योगों को पर्याप्त मात्रा में वित्त मुहैया कराया जाता है तो रोजगार में काफी वृद्धि हो सकती है और लोगों के जीवन स्तर में भी सुधार आ सकता है.
जाहिर है कि बुनियादी ढांचे को विकसित करने वाली परियोजनाएं चलती रहनी चाहिए, बड़े उद्योग भी लगने चाहिए, पॉवर सेक्टर को नज़रंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए. इसमें कोई विरोधाभास नहीं है. लेकिन इसमें बहुत बड़ी राशि लगी हुई है. मैं जो सुझाव दे रहा हूं उसे बहुत आसानी से, छोटी सी रकम से पूरा किया जा सकता है. हालांकि, इसके लिए नीतिगत फैसले करने होंगे, ऐसी मैकेनिज्म (तंत्र) विकसित करने की जरूरत है जिसे आसानी से बैंकर्स, वित्तीय जानकार या वित्त मंत्रालय के लोगों की कमेटी बना सकती है. इस काम में छह महीने लग सकते हैं. लेकिन इसकी घोषणा बजट में की जानी चाहिए, ताकि काम जारी रहे.

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