भारत में एक राष्ट्रीय ग्रंथ स़िर्फ और स़िर्फ भारत का संविधान हो सकता है, जो अपने आप में सब कुछ समाहित किए हुए है. इसे गांधी जी के नेतृत्व में जवाहर लाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद एवं बीआर अंबेडकर जैसे महान लोगों ने बहुत ही समझदारी से लिखा है. इससे बेहतर करने के लिए आपको सचमुच बहुत ही बुद्धिमान लोगों की ज़रूरत है. मैं मानता हूं कि हमारे लिए यह स्वीकार करना कठिन है कि आज के दौर के नेता उन स्वतंत्रता सेनानियों से ज़्यादा बुद्धिमान हैं.
सरकार विकास के एजेंडे के प्रति छोटे ही सही, लेकिन क़दम उठा रही है और विदेशी निवेश आ रहा है. वित्त मंत्री भी बजट में कुछ घोषणाओं का वादा कर रहे हैं. दूसरी तरफ़, यह देखना दिलचस्प है कि विश्व हिंदू परिषद और भाजपा से जुड़े अन्य संगठनों ने अपने एजेंडे पर काम करना शुरू कर दिया है. यह हरकत वर्तमान स्थिति में न स़िर्फ नरेंद्र मोदी सरकार को कमजोर करेगी, बल्कि उसे नीचा दिखाने का काम करेगी. धर्मांतरण और धर्म प्रचार को ईसाइयत में प्रोत्साहित किया जाता है और अधिक से अधिक लोगों को ईसाई एवं कैथोलिक बनाने की कोशिश की जाती है. ईसाई धर्म में यह एक सिद्धांत है. इस्लाम में इस बारे में क्या है, मैं ज़्यादा नहीं जानता, लेकिन वहां भी धर्मांतरण की प्रक्रिया है.
हालांकि, हिंदू धर्म में ऐसी कोई प्रक्रिया नहीं है. या तो आप हिंदू पैदा हुए है या हिंदू पैदा नहीं हुए. हिंदू धर्म में किसी का धर्म परिवर्तित करने के लिए कोई प्रक्रिया नहीं है. मैंने उपलब्ध हिंदू शास्त्रों एवं ग्रंथों को पढ़ा है और उनमें कहीं भी इस तरह की प्रक्रिया का उल्लेख नहीं हैं. इसके दो कारण हो सकते हैं. एक तो यह कि हिंदू धर्म की कोई तारीख नहीं है. यह इतना पुराना है कि शायद तब कोई संगठित धर्म मौजूद नहीं था. इसलिए इसकी ज़रूरत ही नहीं थी कि किसी को हिंदू धर्म के लिए परिवर्तित किया जाए. दूसरा यह कि हिंदू धर्म वेद, रामायण, महाभारत एवं गीता आदि के माध्यम से चलता है, जहां अधिकतम उदारतावादी दर्शन है. इसलिए हिंदू धर्म में धर्मांतरण अप्रासंगिक और एक निरर्थक प्रयास है.
ऐसा लगता है कि यह पूरी घटना अपनी प्रकृति में राजनीतिक है, धर्म से इसका कोई लेना-देना नहीं है. यह स़िर्फ श्रेष्ठता दिखाने की एक कोशिश है. ये संगठन कैसे और क्या सोचते हैं, यह सब काम करके ये कैसे नरेंद्र मोदी की मदद कर पाएंगे, मैं नहीं जानता. मुझे लगता है कि ये ऐसा करके नरेंद्र मोदी के लिए ज़्यादा मुश्किल पैदा कर रहे हैं. बजाय उनकी सरकार को मजबूत करने के, ये लोग ऐसा काम कर रहे हैं, जो समझ से बाहर है.
ऐसा लगता है कि यह पूरी घटना अपनी प्रकृति में राजनीतिक है, धर्म से इसका कोई लेना-देना नहीं है. यह स़िर्फ श्रेष्ठता दिखाने की एक कोशिश है. ये संगठन कैसे और क्या सोचते हैं, यह सब काम करके ये कैसे नरेंद्र मोदी की मदद कर पाएंगे, मैं नहीं जानता. मुझे लगता है कि ये ऐसा करके नरेंद्र मोदी के लिए ज़्यादा मुश्किल पैदा कर रहे हैं. बजाय उनकी सरकार को मजबूत करने के, ये लोग ऐसा काम कर रहे हैं, जो समझ से बाहर है. इसी तरह सुषमा स्वराज जैसी प्रबुद्ध शख्सियत ने यह आह्वान किया है कि गीता एक राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित हो. मुझे लगता है कि सुषमा जिस कार्यक्रम में बोल रही थीं, वह गीता से संबंधित था और शायद सुषमा उससे प्रभावित होकर ऐसा बोल गईं. हिंदू भी एक अकेले ग्रंथ के रूप में गीता को स्वीकार नहीं करेंगे.
मैं जानता हूं कि बहुत सारे हिंदू हैं, जो वेदों में विश्वास करते हैं, अन्य ग्रंथों में विश्वास करते हैं. बेशक, मैं भी मानता हूं कि गीता अपने आप में विस्तृत ज्ञान से भरी हुई एक पुस्तक है, जिससे बहुत कुछ सीखा जा सकता है. यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण किताब है. लेकिन, अगर आप इसे एक राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित करना चाहते हैं, तो फिर इसके लिए दो कारक हैं. पहला यह कि भारत एक बहुधर्मी देश है और सबके बीच सह-अस्तित्व है. ऐसा करके आप जोड़ने का नहीं, बल्कि बांटने का काम करेंगे. दूसरी बात यह है कि आप हिंदू दर्शन को कमतर बनाने की कोशिश कर रहे हैं. इनके नायक वीर सावरकर कहते थे कि भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद में हिंदू धर्म एक सांस्कृतिक भारतीयता है. ऐसे में, गीता एक राष्ट्रीय ग्रंथ के रूप में फिट कैसे होगी?
भारत में एक राष्ट्रीय ग्रंथ स़िर्फ और स़िर्फ भारत का संविधान हो सकता है, जो अपने आप में सब कुछ समाहित किए हुए है. इसे गांधी जी के नेतृत्व में जवाहर लाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद एवं बीआर अंबेडकर जैसे महान लोगों ने बहुत ही समझदारी से लिखा है. इससे बेहतर करने के लिए आपको सचमुच बहुत ही बुद्धिमान लोगों की ज़रूरत है. मैं मानता हूं कि हमारे लिए यह स्वीकार करना कठिन है कि आज के दौर के नेता उन स्वतंत्रता सेनानियों से ज़्यादा बुद्धिमान हैं. हम सुलट चुके मामलों को जितना ही कम छेड़ें, देश के लिए उतना ही बेहतर होगा.