धर्म अदृश्य है। वह सच्चा है। धर्म को झूठ और सच की पहचान नहीं। वह बचपन से संस्कारों के साथ धारण किया जाता है। चर्च ने रिलीजन शब्द दिया। रिलीजन न कभी धर्म था और कभी होगा। गड़बड़ तब होने लगती है जब हम अलग अलग मज़हबों या पंथों या संप्रदायों को धर्म पर अपने अपने खोल की तरह चढ़ा कर उसे अपनी सुविधानुसार धर्म का नाम दे देते हैं। तब उसे छद्म धर्म ही कहा जाता है। लेकिन दुनिया इससे दूर हो गई है। उसने स्वीकार कर लिया है कि जो मज़हब है वही धर्म है। फिर उसमें रिलीजन का भी घालमेल हुआ। नतीजतन हिंदू रिलीजन और मुस्लिम रिलीजन भी चलन में आ गया। उसी तरह दुनिया के सारे मज़हब और रिलीजन एक धक्के से धर्म कहलाने लगे। इसलिए किसी को यह कहा जाए कि तुम्हारा धर्म झूठा है तो वह मरने मारने पर आ जाता है। क्योंकि उसने और उसकी समूची बिरादरी ने ही अपने मज़हब या संप्रदाय को धर्म का नाम दे दिया है। इसके बाद सब फुलस्टॉप। शब्द कैसे गलत अर्थों में रूढ़ हो जाते हैं यह उसका एक उदाहरण है। बलात किया जाने वाला कोई भी और कैसा भी दुष्कर्म बलात्कार कहा जाता है। पर समाज ने उसे यौन दुष्कर्म के रूप में रूढ़ कर दिया।
धर्म की इस छद्म परिभाषा ने समाज का कितना अहित किया है वह हर रोज हम आंखों के सामने देख रहे हैं। किसी भी मज़हब को धर्म कहना सरल और सुविधाजनक हो गया है। अपने अभिप्राय को आप जैसा चाहें मोड़ दे सकते हैं। यह एक छोटी सी संकल्पना थी जिसे आपके सामने प्रस्तुत करना मैंने मुनासिब समझा। विस्तार में तो शास्त्रीय और अकादमिक बहुत लंबे संवादों अथवा शास्त्रार्थ की दरकार होती है।
याद नहीं पड़ता कि आजादी से अब तक यानी मोदी सत्ता आने तक कभी किसी ने धर्म के इस छद्म रूप को अपना कर देश संचालन किया हो । यह गौरतलब है कि मोदी ने पहले की तमाम सत्ताओं को एक ‘एब्सट्रेक्ट’ रूप देकर उसके सामने धर्म और राष्ट्रवाद को एक ऐसी पहचान दी जिसने समाज को एक साफ आईने में खुद को देखना सिखाया। इसी का नतीजा है कि एक बहुत बड़ा ‘बहका’ हुआ वर्ग मोदी को देश का पर्याय समझ रहा है या मान बैठा है। विरोधी पक्ष बेशक प्रतिशत में विशाल है लेकिन बंटा हुआ है। संगठन हमेशा बिखराव के समक्ष निर्णायक होता है। लेकिन आप कह नहीं सकते कि विरोधियों में भी कितने हल्के दिमाग और पतली सोच वाले गये एक वर्ष में मोदी से प्रभावित हुए होंगे।
सारा विपक्ष फिलहाल विधानसभा चुनावों के नतीजों पर अपनी टकटकी लगाए हुए है। लेकिन मोदी उससे आगे की सोच रहे हैं। इसीलिए वे जनता के बीच में अगले वर्षों में अलग अलग कामों का निर्णायक खाका खींच रहे हैं। वे यह सांत्वना देना चाहते हैं कि चौबीस में तो वे हैं ही । आगे के वर्षों के भी सारे काम उन्हीं के द्वारा किये जाने हैं। ऐसी तिकड़मबाज सोच कभी किसी की नहीं रही। वजह क्या है। सीधी और साफ वजह है कि पहले के तमाम नेताओं (प्रधानमंत्रियों) ने अपना कोई एजेंडा स्पष्ट नहीं किया। जनता के सामने इस रूप में नहीं आये कि यदि वे फिर चुने जाते हैं तो ये ये बकाया काम करेंगे। दलों के घोषणापत्र बड़ी जल्दी छलावा या महज एक औपचारिकता बन कर रह गये । तो जनता के सामने दो ही विकल्प थे कि या तो नया परिवर्तन या फिर इंदिरा गांधी की भांति मजबूत व्यक्तित्व को दोहराना। हमारे यहां क्रांति की बातें बहुत होती हैं। यह शब्द बतौर एक फैशन आजकल ज्यादा प्रयोग में लाया जा रहा है। लेकिन हिंदुस्तानवासियों का न कभी ऐसा चरित्र रहा और आज तो सोशल मीडिया ने और भी निकम्मा बना कर रख दिया। क्रांति का पर्याय वामपंथ हमारे यहां लगभग मृतप्राय: है। बेशक प्रबुद्ध कहे जाने वाले वर्ग में अनेक लोगों की सोच वामपंथी है लेकिन राजनीतिक दल लगभग समाप्त प्रायः हैं। मोदी का व्यक्तित्व बताता है कि वे एक बेहद ‘कनिंग’ सोच के व्यक्ति हैं। उनके पास भविष्य का एजेंडा भी है और संघ के आधे अधूरे काम भी। संघ की स्थापना के सौ साल 2025 में पूरे होंगे। मोदी या संघ स्वप्न में भी नहीं कल्पना कर सकते कि ऐसे मौके पर सत्ता किसी और के हाथ हो । दूसरा 2047 वह वर्ष है जब भारत की आजादी को सौ साल पूरे होंगे। इसीलिए मोदी ने इस वर्ष तक देश को विकसित राष्ट्र का सपना दिखा दिया है। मोदी के विकसित राष्ट्र की संकल्पना अलग और अजीब है। हमारा तो मानना है कि हिंदुस्तान की भौगोलिक विशालता, दुनिया में सबसे ज्यादा जनसंख्या और कदम कदम पर समाज में सांस्कृतिक व सामाजिक विभिन्नताएं विकसित देश के स्वरूप को कभी हासिल नहीं कर सकती। मोदी की संकल्पना में चंद मुठ्ठी भर लोगों को धनधान्य से परिपूर्ण करना ही ‘विकसित’ होने का स्वप्न दिखाना है जहां जनता की मुण्डियां हमेशा ऊपर की ओर ताकती हुई दिखाई दें। समतामूलक समाज मोदी की नजर में किसी बेईमान कल्पना से कम नहीं। जब राजा अपनी प्रजा को कुछ दे न पाए,उसे धनधान्य से परिपूर्ण न कर पाए तो वह उसे झूठे धर्म और राष्ट्रवाद की ओर मोड़ देता है। इतिहास गवाह है कि प्रताड़ित जनता ने फिर भी हमेशा राजा की चमक को स्वीकारा है। समाज का ऐसा बड़ा वर्ग है जिसने यह स्वीकार कर लिया है कि स्वप्न देखना उसकी फूटी किस्मत में है ही नहीं। हिंदुस्तान के इस चरित्र और सोच को कोई शासक बदलना नहीं चाहता।
हमारे विरोधी दल क्या सोच रहे हैं, कैसे सोच रहे हैं। हम इस पर क्या सोचें। यह देश जितना हमारा है उतना ही उनका भी है। विधानसभा चुनावों का प्रभाव तो लोकसभा चुनाव पर पड़ेगा ही। पर क्या विपक्ष लोकसभा चुनाव में जीत की उम्मीद कर रहा है ? विपक्ष की जीत का अर्थ है कि मोदी की पराजय। क्या यह इतना सरल व संभव है। इस बार साम दाम दण्ड भेद में ईवीएम भी है। भूलिए मत। क्या क्या षड़यंत्र होंगे अभी, देखते रहिए।
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