इस मामले के फर्जी होने के इतने स्पष्ट संकेतों के बात भी डीजीपी डीके पाण्डेय इसकी स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच नहीं होने दे रहे हैं. तय है कि अगर इस मामले की जांच हुई, तो इस मुठभेड़ के खून के छींटे डीजीपी पर भी पड़ेंगे. ऐसा एक और मामला तब सामने आया था जब डीके पाण्डेय सीआरपीएफ के आईजी पद पर तैनात थे. तब उन्होंने छात्रों को नक्सली बताकर आत्मसमर्पण कराया था. इस आत्मसमर्पण की कहानी भी अजीबो-गरीब है. दिग्दर्शन कोचिंग में पढ़ाने के बहाने देहात से युवकों को लाया गया और नई दिशा आत्मसमर्पण नीति के तहत युवकों से यह वादा किया गया कि पुनर्वास के तहत उन्हें नौकरी और दस-दस लाख रुपए मिलेंगे. लेकिन छात्रों से पैसा लेकर हथियार खरीदे गए और 514 छात्रों को नक्सली बताकर आत्मसमर्पण कराया गया. इस फर्जी आत्मसमर्पण का मामला जब तूल पकड़ने लगा, तो इसकी जांच सीआईडी को सौंपी गई, जो अभी तक फाईलों में ही बंद है.
लगभग ढाई वर्ष पूर्व, 5 जून 2015 को पुलिस ने एक फर्जी मुठभेड़ में 12 निर्दोष लोगों को नक्सली बनाकर मार गिराया था. इसे बकोरिया कांड के नाम से जाना जाता है. इस मुठभेड़ में मारे गए लोगों में केवल अरविंद जी ही हार्डकोर नक्सली था, लेकिन पुलिस ने वाहवाही लूटने के लिए इस मुठभेड़ की कहानी गढ़ ली और दावा किया कि पुलिस को एक बड़ी सफलता मिली है और हमने 12 कुख्यात उग्रवादियों को मार गिराया है. अब इस मुठभेड़ की असलियत सामने आ रही है. झारखंड के पुलिस महानिदेशक डीके पाण्डेय इस फर्जी मुठभेड़ मामले में पूरी तरह से घिर गए हैं.
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इस मुठभेड़ को पूरी तरह से फर्जी बताते हुए कहा था कि पुलिस ने केवल वाहवाही लूटने के लिए ग्यारह निर्दोष लोगों को मार गिराया. मानवाधिकार आयोग ने पूरे मामले की जांच सीआईडी से कराने की बात कही, लेकिन चूंकि इस मामले में सीधे तौर पर पुलिस महानिदेशक के फंसने की संभावना थी, इसलिए मुठभेड़ की जांच सीआईडी से नहीं कराकर एसटीएफ के आईजी डीके प्रधान से कराई गई. सबसे आश्चर्यजनक तथ्य तो यह है कि जिस भी अधिकारी ने इस मामले की फाईल खोलने की कोशिश की, उसका आनन-फानन में स्थानान्तरण कर दिया गया.
सीआईडी के अपर पुलिस महानिदेशक एमवी राव ने तो सीधे तौर पर पुलिस महानिदेशक डीके पाण्डेय पर आरोप लगाते हुए गृहसचिव को पत्र लिखा कि जब उन्होंने बकोरिया कांड की जांच शुरू की तो पुलिस महानिदेशक ने उन्हें जांच धीमी करने को कहा, लेकिन जब उन्होंने ऐसा नहीं किया, तो उनका तबाददा कर दिया गया. एमवी राव का कहना था कि ‘24 नवम्बर 2017 को झारखंड हाईकोर्ट ने इस मुठभेड़ में बरामद हथियारों की बैलेस्टिक जांच रिपोर्ट पेश करने को कहा.
कोर्ट के निर्देश पर कांड से जुड़े पुलिस अधिकारियों का फिर से बयान लिया गया, तो थाना प्रभारी हरीश पाठक और तत्कालीन डीआईजी हेमंत टोप्पो ने ऐसी वारदात से साफ इंकार कर दिया. मामले की निष्पक्षता से जांच हो रही थी, तभी पुलिस महानिदेशक डीके पाण्डेय ने जांच धीमी करने को कहा, साथ ही यह सलाह भी दी कि अदालतों के आदेश की चिंता न करें.’ राव ने राज्यपाल को भेजे गए पत्र में भी कहा कि जिस अधिकारी ने भी इस जांच को बढ़ाने की कोशिश की, उसका आनन-फानन में तबादला कर दिया जाता है. इससे पूर्व भी एमडीजी रेजी डुंगडुंग एवं हेमंत टोप्पो का तबादला कर दिया गया था. इधर गृह विभाग के प्रधान सचिव एसकेजी रहाटे ने कहा कि डीजीपी डीके पाण्डेय से वस्तुस्थिति की जानकारी मांगी गई है. हालांकि डीजीपी ने अभी जवाब नहीं दिया है.
गढ़ी गई थी मुठभेड़ की कहानी!
इस फर्जी मुठभेड़ की गढ़ी गई कहानी इस बात से समझी जा सकती है कि मुठभेड़ की जानकारी स्थानीय थाना प्रभारी एवं इस क्षेत्र के आरक्षी उपमहानिरीक्षक को भी नहीं थी. डीजीपी डीके पाण्डेय से ही इन अधिकारियों को मुठभेड़ की जानकारी मिली. डीजीपी ने इस मामले को रफा-दफा करने के लिए इसे अपने विश्वस्त अधिकारी सीआईडी के एसपी सुनील भास्कर को दिया. सुनील भास्कर ने इस मामले में डीआईजी हेमंत टोप्पो एवं थाना प्रभारी हरीश पाठक का बयान ही दर्ज नहीं किया. कारण बताया गया कि ये लोग मुठभेड़ में शामिल नहीं थे. हरीश पाठक ने इस संबंध में प्राथमिकी दर्ज कराने से भी इंकार कर दिया था, बाद में इसी थाने के एक कनीय अधिकारी मोहम्मद रुस्तम ने बयान दर्ज कराया.
इस मुठभेड़ का ऑपरेशन रुस्तम ही कर रहे थे. मुठभेड़ की झूठी कहानी भी बड़े ही मनोरंजक ढंग से बनाई गई थी. पलामू थाना के प्रभारी हरीश पाठक ने खुद कहा कि पलामू के आरक्षी अधीक्षक ने घटना का वादी बनने के लिए उनपर दबाव डाला था. एसपी ने धमकी भी दी थी कि अगर इनकार किया तो निलंबित कर दिया जाएगा. हरीश पाठक वादी नहीं बने और उसके बाद उनका तबादला जामताड़ा कर दिया गया.
सीआईडी ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि आईबी ने नक्सली अनुराग और इसके दो साथियों के मूवमेंट की जानकारी अपने दिल्ली कार्यालय को दी. वहां से इसकी सूचना डीजीपी, एडीजीपी और सीआरपीएफ के आईजी को दी गई. उसके बाद इस ऑपरेशन को अंजाम दिया गया. इस ऑपरेशन में 209 कोबरा बटालियन के दो एसॉल्ट ग्रुप को शामिल किया गया था, जिसमें 45 जवान शामिल थे. पुलिस को यह सूचना मिली थी कि 14 नक्सली सतबरवा इलाके में हैं. उसके बाद एक जीप को तेजी से आते हुए देखा गया. पुलिस ने उसे रुकने का इशारा किया, लेकिन वो जीप तेजी से गांव की ओर मुड़ गई. इसके बाद जीप से पुलिस पर फायरिंग हुई, तो पुलिस ने भी जवाबी कार्रवाई की. पुलिस की तरफ से 21 राउंड गोली चलाई गई, जिससे बारह लोग मारे गए.
इसमें एक हार्डकोर नक्सली अरविंद जी भी था. लेकिन पुलिस द्वारा पेश की गई कहानी कई सवाल खड़े करती है. पुलिस ने बताया था कि मुठभेड़ वाली जगह पर घोर अंधेरा था. ऐसे में सवाल उठता है कि पुलिस ने इतना अचूक निशाना कैसे लगाया या पुलिस ने नक्सलियों से आत्मसमर्पण कराने की कोशिश क्यों नहीं की. एक गंभीर सवाल इसे लेकर भी खड़े हो रहे हैं कि यह मुठभेड़ पुलिस के साथ हुई या तथाकथित नक्सली संगठन जेजेएमपी ने इस घटना को अंजाम दिया. इस तथ्य को इसलिए भी बल मिल रहा है, क्योंकि मानवाधिकार आयोग को कुछ ऐसे वीडियो क्लिप मिले हैं, जिनमें यह साफ दिख रहा है कि जेजेएमपी का जोनल कमांडर गोपाल सिंह नक्सली अनुराग सहित 11 निर्दोष लोगों की हत्या के संबंध में जानकारी दे रहा है.
टीपीसी के उग्रवादी हथियार लेकर चहलकदमी कर रहे हैं और गोपाल सिंह का हाथ-पैर बांधकर जनअदालत में मीडिया के सामने बयान दिलवाया जा रहा है. दरअसल, माओवादी अनुराग एमसीसी का डेढ़ करोड़ एवं कुछ अत्याधुनिक हथियार लेकर भाग गया था और वह टीपीसी में शामिल होने की कोशिश में था. अनुराग जेजेएमपी के पप्पू लोहरा को टीपीसी का सरदार समझ रहा था और उससे बातें कर रहा था. पुलिस विभाग का कोई अधिकारी भी था, जिसे भैया कहकर लोग बुला रहे थे, वह भी पप्पू लोहरा के साथ था. अनुराग जब पप्पू लोहरा के घर पहुंचा, तो उसे आभास हुआ कि यह तो जेजेएमपी का सदस्य है.
उसके बाद अनुराग ने पप्पू एवं उसके साथ सादे लिबास में उपस्थित पुलिस के आदमी से उसे न मारने का अनुरोध तो किया, लेकिन उनलोगों ने उसे मार गिराया. इसके बाद जब पप्पू लोहरा वहां से चला गया, उसके बाद पुलिस के लोग वहां जुटे और यह दावा करने लगे कि उन्होंने मुठभेड़ में नक्सली अनुराग को मार गिराया गया है. इस फर्जी मुठभेड़ को लेकर जब थाना प्रभारी हरीश पाठक को एफआईआर दर्ज करने का निर्देश दिया गया, तो पाठक ने साफ इंकार कर दिया. उसके बाद एफआईआर दर्ज कराने के लिए मोहम्मद रुस्तम को तैयार किया गया.
पीड़ितों के परिजनों का आरोप
इस कांड में मारे गए लोगों के परिजनों का आरोप है कि थाना प्रभारी ने केस मैनेज करने के लिए अपना आदमी भेजा था और मुंह बंद करने के एवज में मुंहमांगी रकम की पेशकस की गई थी. मुठभेड़ में मारे गए उदय की मां गीता देवी का कहना है कि घटना के दिन उदय छत पर नीरज यादव और पुत्र तुषार के साथ सोया हुआ था. रात करीब 9 बजे दो मोटरसाईकिल पर चार लोग आए और तीनों को यह कहते हुए ले गए कि पूछताछ के बाद सभी को छोड़ दिया जाएगा. लेकिन सुबह पता चला कि तीनों की हत्या कर दी गई है. वहीं नीरज यादव के पिता ईश्वर यादव का कहना है कि नीरज सामान खरीदने मणिका गया हुआ था. रात होने पर वह अपने रिश्तेदार उत्तम यादव के यहां रुक गया था, जहां से कुछ लोग जबरन उसे उठाकर ले गए और इसकी हत्या कर दी. बाद में यह कहा गया कि पुलिस मुठभेड़ में उसे मार दिया गया है.
इस मामले के फर्जी होने के इतने स्पष्ट संकेतों के बात भी डीजीपी डीके पाण्डेय इसकी स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच नहीं होने दे रहे हैं. तय है कि अगर इस मामले की जांच हुई, तो इस मुठभेड़ के खून के छींटे डीजीपी पर भी पड़ेंगे. ऐसा एक और मामला तब सामने आया था जब डीके पाण्डेय सीआरपीएफ के आईजी पद पर तैनात थे. तब उन्होंने छात्रों को नक्सली बताकर आत्मसमर्पण कराया था. इस आत्मसमर्पण की कहानी भी अजीबो-गरीब है. दिग्दर्शन कोचिंग में पढ़ाने के बहाने देहात से युवकों को लाया गया और नई दिशा आत्मसमर्पण नीति के तहत युवकों से यह वादा किया गया कि पुनर्वास के तहत उन्हें नौकरी और दस-दस लाख रुपए मिलेंगे. लेकिन छात्रों से पैसा लेकर हथियार खरीदे गए और 514 छात्रों को नक्सली बताकर आत्मसमर्पण कराया गया. इस फर्जी आत्मसमर्पण का मामला जब तूल पकड़ने लगा, तो इसकी जांच सीआईडी को सौंपी गई, जो अभी तक फाईलों में ही बंद है. इस मामले में भी राज्य के डीजीपी बुरी तरह से घिरे हुए हैं. अब देखना है कि ये मामले फाईलों में ही दम तोड़ देते हैं या पीड़ितों को न्याय भी मिलता है.