जाति जनगणना और आरक्षण का जिन्न फिर बोतल से बाहर निकलने को तैयार है. बिहार में सत्तारूढ़ महागठबंधन के दोनों बड़े दल-जनता दल(यू) व राष्ट्रीय जनता दल- के सुप्रीमो नीतीश कुमार और लालू प्रसाद नए सिरे से इसे बोतल से बाहर निकालने की तैयारी में हैं. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने सामाजिक सांख्यिकी विषय पर पटना में संपन्न एक अंतरराष्ट्रीय सेमिनार में जाति जनगणना की रिपोर्ट जारी करने की पुरजोर मांग की, तो राजद सुप्रीमो ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर आरक्षण के मुद्दों को नए सिरे से उठाया. उन्होंने प्रधानमंत्री को चेताया कि आरक्षण पर किसी भी हमले को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा. बिहार के सुविख्यात शोध संस्थान आद्री की ओर से आयोजित संगोष्ठी में उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी समेत देश-विदेश के नामचीन अर्थशास्त्री मौजूद थे. संगोष्ठी में मौजूद सभी वक्ताओं ने भारत के सामाजिक सांख्यिकी और उसके संग्रहण के मौजूदा तौर-तरीकों पर असंतोष जताया. इन सभी ने मौजूदा हालात में सुधार लाने पर जोर दिया ताकि राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय संस्थानों व नीति-निर्धारकों का इन आंकड़ों में भरोसा पैदा हो सके. इसके बरअक्स, नीतीश कुमार ने नीति निर्धारण में उपयुक्तआंकड़ों की जरूरत को तो रेखांकित किया ही, साथ ही इसकी विश्वसनीयता पर भी सवाल उठाए. उन्होंने जातीय जनगणना की रिपोर्ट जारी करने की मांग कर अपना राजनीतिक एजेंडा भी पेश कर दिया. देश में यह जनगणना तीन-चार वर्ष पहले ही हो चुकी है, लेकिन अब तक इसकी रिपोर्ट का प्रकाशन नहीं किया गया है. उनका कहना था कि 1931 की जाति जनगणना की रिपोर्ट के आधार पर ही अब तक जातियों को लेकर कोई बात की जाती है. इन 85 वर्षों में बहुत कुछ बदल गया है. अनुसूचित जाति- जनजाति की जनगणना तो होती है, लेकिन अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) की कोई जनगणना नहीं होती है. भारत सरकार ने पिछले वर्षों में जाति जनगणना करवाई थी, पर उसकी रिपोर्ट अब तक जारी नहीं की गई है. जातियों के बारे में स्पष्ट जानकारी नहीं होने का असर योजना बनाने पर तो पड़ता ही है, साथ ही जातियों को हिस्सेदारी देने में भी परेशानी होती है. सूबे की सत्ता के छोटे भाई ने यह पत्ता खेला है, सो, बड़े भाई (लालू प्रसाद) को भी कुछ करना ही था. उसी दिन वे एक्शन में आ गए. उन्होंने विश्वविद्यालयों में प्रोफेसर और एसोसिएट प्रोफेसर की नियुक्ति में आरक्षण के प्रावधान को समाप्त करने के यूजीसी के निर्देश का जोरदार विरोध किया. राजद सुप्रीमो ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नाम अपने पत्र में चेतावनी दी है कि आरक्षण कोई गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम नहीं है. यह संवैधानिक अधिकार है और इसे कोई समाप्त नहीं कर सकता है. आरक्षण पर आंच आई तो भारत के वंचित और गरीब सड़कों पर आंदोलन के लिए उतरेंगे.
सूबे की राजनीति के बड़े भाई- छोटे भाई के राजनीतिक आलाप ने सियासत में कोई आलोड़न तो पैदा नहीं किया, लेकिन इससे उनकी भावी रणनीति के संकेत तो मिलते ही हैं. हिन्दी पट्टी ही नहीं, कई गैर हिन्दी भाषी राज्यों में भी राजनीति में जाति की भूमिका पहले की तुलना में बढ़ती जा रही है. धर्म के समानांतर इसे वोट का बड़ा और कई बार तो निर्विकल्प साधन मान लिया जाता है. कोई भी दल जाति की वकालत नहीं करता है, पर सभी जाति के नाम पर, जातियों को सुविधा देने के नाम पर, वोट का जुगाड़ करने की कोशिश में लगे रहते हैं. जातीय जनगणना की रिपोर्ट भी इसी राजनीति का एक हथियार बनता दिख रहा है. यह सही है कि देश में आरक्षण व्यवस्था के बेहतर क्रियान्वयन के लिए जातियों का नवीनतम आंकड़ा जरूरी है. इसके बगैर जरूरतमंदों को आरक्षण का समुचित लाभ नहीं मिल पाएगा. इसके अलावा सरकार के जनकल्याण कार्यक्रम को सफल व प्रभावकारी बनाने और उनके बेहतर परिणाम के लिए सामाजिक समूहों के अद्यतन आंकड़ों का होना जरूरी है. ऐसा नहीं होने पर कल्याण कार्यक्रमों को लक्षित सामाजिक समूहों तक पहुंचाना और उसके प्रभाव का मूल्यांकन ठीक से नहीं हो पाएगा. क्या राजनीतिक दल मात्र सैद्धांतिक व व्यावहारिक जरूरतों से प्रेरित होकर इसे उठा रहे हैं? इस सवाल का जवाब देना कठिन है, लेकिन एक राजनीतिक अभियान की चर्चा से उक्त सवाल के जवाब ढ़ूंढने में मदद मिलेगी. गत वर्ष इन्हीं दिनों भारत सरकार ने आर्थिक जनगणना की रिपोर्ट जारी की थी. तब आर्थिक जनगणना के परिणाम, जो बिहार के संदर्भ में भी चिंताजनक थे, पर बोलने से राजनेता बचते रहे. पर जाति जनगणना की रिपोर्ट प्रकाशित नहीं किए जाने को मुद्दा बना दिया. जाति जनगणना की रिपोर्ट के प्रकाशन की मांग को लेकर राजद सुप्रीमो ने राजभवन मार्च किया, सैकड़ों लोगों के साथ गिरफ्तारियां दीं और उन पर मुकदमा भी किया गया था. यह मुकदमा महागठबंधन की सरकार ने वापस लिया था, जिसे लेकर भाजपा ने काफी हंगामा किया था. उन दिनों बिहार चुनावी मोड में था. नीतीश कुमार ने उन दिनों जाति जनगणना की रिपोर्ट जारी करने की मांग तो की थी, पर इसे मुद्दा नहीं बनाया था. राजद सुप्रीमो इसे चुनावी मुद्दा बनाने की कोशिश में सड़क पर आ गए. राजद सुप्रीमो को इसका राजनीतिक लाभ भी मिला और वे सूबे में पिछड़ों को नए सिरे से गोलबंद करने में कामयाब रहे. बाद में, लालू प्रसाद की उस मुहिम को धार दी संघ प्रमुख मोहन भागवत के आरक्षण संबंधी बयान ने. राजनीति के जानकार मानते हैं कि छोटे भाई अपने बड़े भाई के ऐसे अनुभव से लाभान्वित होना चाहते हैं. उन्हें इस बार चुनावों के बहाने उत्तर प्रदेश में किसी भी कीमत पर अपने दल को स्थापित करना है. उन्हें लगता है कि जाति जनगणना के प्रकाशन का मुद्दा कुछ हद तक उनकी मदद कर सकता है. वैसे भी, आरक्षण जैसे मसले को यह गुणात्मक तौर पर विकसित ही तो करता है.
जद(यू) के राष्ट्रीय अध्यक्ष को फिलहाल उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव सबसे अधिक दिखता है. यह विधानसभा चुनाव उनके राजनीतिक कौशल की अग्नि परीक्षा साबित होगा. गत विधानसभा चुनावों के समय वे राष्ट्रीय अध्यक्ष बने थे. उत्तर प्रदेश के सवाल पर ऐसा नहीं है, चुनाव की तैयारी के लिए उनके पास पर्याप्त समय है. हालांकि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के नीतीश कुमार के दल के मुद्दे प्रायः जग-जाहिर हैं. वे और उनका दल संघ-मुक्त भारत के साथ-साथ आरक्षण की अब तक की तयशुदा सीमा में बढ़ोतरी और निजी क्षेत्र में इसके विस्तार को अपना चुनावी मुद्दा बनाएंगे. इसके साथ ही शराबबंदी को सबसे महत्वपूर्ण और शायद एकमात्र सामाजिक मुद्दे के तौर पर पेश करेंगे. इसे लेकर भाजपा ही नहीं, सपा को भी घेरकर इसे राजनीतिक स्वरूप देंगे. इस सूची में अब जाति जनगणना की रिपोर्ट का प्रकाशन भी शामिल हो रहा है. हालांकि जाति जनगणना की रिपोर्ट के प्रकाशन से आरक्षण की सीमा में बढ़ोतरी का मसला सीधे तौर पर जुड़ा है. आरक्षण की राजनीति करनेवाले राजनीतिक समूहों का मानना है कि देश में उन सामाजिक समूहों की आबादी पिछले दशकों में काफी बढ़ी है, जो आरक्षण के दायरे में हैं. अनुसूचित जाति-जनजाति की जनगणना तो आम जनगणना के साथ हो जाती है. हर दस साल पर उनकी आबादी का पता चल जाता है, पर पिछड़े समाजिक समूहों की जनसंख्या का पता नहीं चल पाता है. जनसंख्या की उचित जानकारी न मिलने के कारण विकास व जन कल्याण कार्यक्रमों में उनकी हिस्सेदारी का उचित आकलन नहीं हो पाता और इन सामाजिक समूहों की आबादी घाटे में रह जाती है. इन दलों और राजनेताओं का कहना है कि जातियों के आंकड़े सामने आने के बाद वे आरक्षण की सीमा बढ़ाने के लिए आंदोलन करेंगे और तब उनकी बात गंभीरता से सुनी जाएगी. आरक्षण की मौजूदा सीमा की पक्षधर राजनीति को तब जवाब देना आसान नहीं होगा. मंडल राजनीति के नीतीश कुमार या लालू प्रसाद जैसे नायकों के लिए जाति जनगणना की रिपरोर्ट के प्रकाशन को मसला बनाना जरूरी है. नीतीश कुमार और लालू प्रसाद का बिहार विधानसभा चुनावों का अनुभव बताता है कि भाजपा को शिकस्त देने के लिए उसके कमंडल का विरोध ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि कमंडल में कैसा किस घाट का जल है, यह बताना भी ज्यादा जरूरी है.
भाजपा के कमंडल को बेअसर करने के लिए जिस आक्रामक राजनीति की जरूरत है, इसका गुर बड़े भाई लालू प्रसाद के पास है. बिहार विधानसभा चुनाव में राजद सुप्रीमो के इस गुर का स्वाद नीतीश कुमार चख चुके हैं. उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में राजद सुप्रीमो किस तरह की भूमिका निभाएंगे, यह अब तक साफ नहीं है. मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी के साथ तालमेल कर चुनावी अखाड़े में उनके उतरने की गुंजाइश अब तक दिखती नहीं है. राजद वहां चुनाव लड़ेगा, यह भी साफ नहीं है. राजद के कई वरिष्ठ नेता उत्तर प्रदेश के मैदान में जाने के पक्षधर नहीं हैं. हाल में संपन्न चार राज्यों के विधानसभा चुनावों में पार्टी ने भाग नहीं लिया था, जबकि पश्चिम बंगाल व असम में वह अपना प्रत्याशी दे सकता था. फिर भी, लालू प्रसाद जब तक कुछ बोलते नहीं हैं, इस पर कुछ भी कहना कठिन है. पुराने अनुभवों के आधार पर यह कहना कठिन है कि लालू प्रसाद किसी भी स्तर पर उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव को प्रभावित करने की राजनीतिक हैसियत रखते हैं. लेकिन वह अपनी और अपने परिवार की भावी राजनीति के लिए आरक्षण जैसे सवाल के साथ गंभीर और आक्रामक बने रहना चाहते हैं, यह उनकी जरूरत भी है. इस मसले पर वे केंद्र सरकार से दो-दो हाथ करते दिखना चाहते हैं. यह सही है कि नीतीश कुमार उस हद तक आक्रामक और उत्तेजक राजनीति नहीं कर सकते, लेकिन उत्तर प्रदेश में अगर कुछ कर दिखाना है और वहां के मतदाताओं के बीच संघ मुक्त भारत को चमकाना है, तो उन्हें किसी उत्तेजक मसले की तलाश है. फिलहाल जाति जनगणना की रिपोर्ट का प्रकाशन ऐसा ही मसला बन सकता है.