आज देश में साहित्य शब्द ही इतिहास सा बनता जा रहा है। साहित्य शब्द, सुनते ही, हमें कुछ पुराने कहानीकार, कवि और साहित्यकार याद आते हैं। मुझे पता नहीं, इन ऐतिहासिक साहित्यकारों को भी, आज की पीढ़ी पढ़ती है या नहीं। साहित्य हमारे समाज से ऐसा गायब हो गया है जैसे, समाज से सच। आज साहित्य, अपने दोनों हाथ उठाकर मदद मांग रही है, समाज से, सरकार से और हर एक से जो साहित्य शब्द को जानते हैं।

आज मुन्शी प्रेम चंद, माखन लाल चतुर्वेदी, सुमित्रा नन्दन पन्त, वायलार, रविन्द्र नाथ टैगोर और कई भारत के कोने-कोने के मशहूर साहित्यकारों का शायद ही आज के युवा ठीक से जानते होंगे।

इस बात को साहित्य के विद्यार्थी और शिक्षक सही ढ़ंग से विश्लेशण कर सकते हैं। लेकिन मैं एक वास्तुकला के क्षेत्र से ताल्लुक रखने वाला, मुझे ऐसा लगता है, जैसे आज का साहित्य दिशाहीन सा हो गया है।

एक बच्चे के जीवन में साहित्य कब, प्रवेश करता है? जब वो पाठशाला जाने लगता है। पहला सबसे रोचक और यादगार साहित्य होता है, कविता और कहानी, जो उसकी माँ, दादी,  नानी, या जो छोटी कक्षा में पढाई जाती हैं। हमने पढा था, 1978 में,

अ से अनार आ से आम,

अपना तो है पढ्ना काम,

इ से इमली ई से ईख,

मुन्ने राजा कुछ तो सीख।

फिर बडे सवेरे मुर्गा बोला,

चिड़ियों ने अपना मुंह खोल,

आसमान में लगा चमकने लाल लाल सोने का गोला…  आदि जैसे कई कवितायें और “पांच बातें”, जैसे रोचक और ज्ञान से भरपूर कहानियाँ। आज हम अपने बच्चों की किताबों में जब देखते है, बडा दुख होता है। लगता है, मानो किसी के पास वक़्त ही नहींं, साहित्य और भाषा के बारे में सोचें और उसे लिखें। मैं किसी वर्तमान कविता या कहानी का नाम नहीं लूंगा, आप समझ सकते हैं मेरी विडंबना। कोई मानहानि का दावा ना कर दे।

लेकिन, आप स्वयं आजकल के पाठ्यपुस्तक देख सकते हैं और उनके साहित्यिक स्थर का अन्दाजा आप लगा सकते हैं।  आज के विद्यार्थी को क्या परोसा जा रहा है, साहित्य और कविता के नाम पर, उसे हम भलीभांति जान सकते हैं।

मेरी चिंता केवल यह है की क्यों नहीं कोई इस दिशा में कार्य कर रहा है।  क्यों हिंदी साहित्य को इतना कम महत्व दिया जा रहा है। क्यूं कोई,  सरकार का या संबंधित अधिकारी, का इस ओर ध्यान आकर्षित नहीं करता है?

कैसे हो सकता है इस दिशा में कार्य? कैसे हो सकता है इस बारे में बात चीत? क्या कोई मंच या माध्यम है, जहाँ इसकी कोई सुनवाई करे और कोई हल या समाधान निकले?

आज, हर एक बच्चे के हाथ एक फ़ोन ज़रूर होता है, जिसमे वो अपना अधिकांश वक्त गुज़ारता है। और फ़ोन में होता है SMS माने

शार्ट मेस्सजींग सर्विस, और या तो वॉट्सएप्प। दोनो में, जो भाषा का प्रयोग होता है, वो इतना आधा अधूरा या विकृत होता है, की उस भाषा मे साहित्य को ढूंडना, आटे में नमक को दूंढने जैसा है। लेकिन विडंबना देखीये आज के बच्चों का 90% साहित्य इसी माध्यम से या गूगल से आता है। स्कूल में, यदि कुछ कार्य दिया भी जाये तो बच्चे गूगल का सहारा लेकर, बिना पढ़े और बिना समय दिये उसको प्रिंट करा कर, स्कूल का कार्य कर लेते हैं। अब ऐसे में, साहित्य कैसे उनको छू सकेगी और कैसे उनको प्रभावित करेगी।

अब यहाँ बात आती है शिक्षकों की। और शिक्षकों की हालत तो यह है कि समाज में सबसे कम तनख्वाह वाला जॉब बनकर रह गया है, स्कूली शिक्षक।  आज शिक्षक होना और वह भी हिंदी का शिक्षक होना बहुत ही गर्व की बात ना होना माना जाता है। आज हमको हिंदी के लिए शिक्षक नहीं मिलते हैं। उसके पीछे कारण यह है की हिंदी किसी को आकर्षित ही नहीं कर पा रहा है, तो कैसे कोई उसको अपना प्रोफेशन या जॉब बना सकता है।आज हिन्दी विषय में या तो वह लोग हैं  जिन्हें कुछ और नहीं मिला तो हिंदी ले ली या जिन्होंने विद्रोह छेड़ रखा है कि हम हिंदी ही पड़ेंगे। वर्तमान परिस्थिती में, पेहली परिस्थिती ज़्यादा बाहुल्य है। और विद्रोही सहित्य प्रेमी को समाज के कई थपेडे खाने पडते हैं। हिन्दी के  शिक्षकों की तनख्वाह अमूमन औरों से कम है।

जैसे आज हिंदी की हालत है वैसे ही आज संस्कृत की हालत है। संस्कृत की हालत तो हिंदी से भी गई गुजरी है।

मैं तो कहूँगा, आज हर भाषा की हालत कुछ ऐसे ही है। दक्षिण भारतीय प्रांतों को छोड़ दें, तो अमूमन सारी भाषायें एक प्रकार से विलुप्त से होते जा रहे हैं। आजकल केवल भाषा की पढाई होती है,

लेकन मेरी चिंता है साहित्य। हिन्दी साहित्य, बांग्ला साहित्य, गुजराती साहित्य, पंजाबी, मराठी, भोजपुरी आदि. साहित्य की पहचान सामाज में साहित्यकार स्थापित करते हैं। इसलिए कवि, साहित्यकार, लेखक ऐसे लोगों का समाज मे एक विशेष स्थान मिले इसके लिए हम सबको मिलकर कुछ सोचना होगा। सरकारों को कुछ नीति बनानी होगी। परिवारो में साहित्य को पढ़ना और पढ़ाया जाना चाहिए।

इस लेख के माध्यम से मैं अपने पाठकों का ध्यान इस ओर आकर्षित करना चाहता हूँ। हमारी भाषा के सहारे हमारा सहित्य भी जीवित कैसे रहे, इसके लिए हम सबको इस ओर सजग होना पडेगा और हर माध्यम से हमें अपनी आवाज़ उठानी होगी।

जय हिंद।

जी वेंकटेश,

लेखक, 1973 में भोपाल में जन्मे,  और 1997 से, भारत में, एक वास्तुविद एवं नगर निवेशक हैं। वह एक शिक्षाविद, समाज सेवी, कलाकार एवं दार्शनिक भी हैं।

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