पिछली सरकारों के रिपोर्ट कार्ड देखें, तो लगता है कि इस देश में स्वर्ग आ चुका है, पर दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों में रहने वाले जब अपने शहर की सीमा से बाहर निकलते हैं, तो सच्चाई आसानी से उनके सामने आ जाती है. किसी भी सरकार ने देश के गांव में पैदा होने वाले कच्चे माल को आधार बनाकर उद्योग-धंधे लगाने के बारे में सोचा ही नहीं. दरअसल, यह रास्ता बाज़ार की तऱफ नहीं जाता है, देश के लोगों की तऱफ जाता है. 

Santosh Bhartiyaराजनीति शायद मदारी का खेल हो गई है. भारतीय जनता पार्टी हो या कांग्रेस, दोनों ही किसी भी प्रश्न को गंभीरता से लेने की जगह उसे वाद-विवाद में उलझाने की वृत्ति का शिकार हो गई हैं. पहले कांग्रेस की बात करें. राहुल गांधी सारे देश में घूम-घूमकर नरेंद्र मोदी के खिला़फ भाषण दे रहे हैं. लेकिन, वह यह नहीं समझना चाहते कि पिछले दस सालों में, पिछले 20 सालों में या पिछले तीस सालों में इस देश में किसी भी सरकार ने किसान को औद्योगिक विकास का केंद्र माना ही नहीं. किसानों को ज़िंदा रहने लायक सुविधाएं देने की बातें ज़रूर कीं, लेकिन ज़िंदा रहने लायक सुविधाएं दी नहीं. देश में अभी तक कुछ प्रदेशों को छोड़ दें, बहुत बड़ा हिस्सा ऐसा है, जहां गांव से आसानी के साथ कस्बे या ज़िले तक जाया ही नहीं जा सकता. हालत यह है कि अगर गर्भवती औरत ब्लॉक के अस्पताल में जाने के लिए बैलगाड़ी से निकले या तांगे से निकले, तो रास्ते में ही प्रसव कर दे, क्योंकि अधबनी-अधकच्ची सड़कनुमा गलियां बिल्कुल ऐसी ही हैं. कोई भी प्रदेश इसका अपवाद नहीं है. बिजली की स्थिति हमें मालूम है, पानी की स्थिति किसी से छिपी नहीं है, लेकिन बातें हम बड़ी-बड़ी करते हैं.
पिछली सरकारों के रिपोर्ट कार्ड देखें, तो लगता है कि इस देश में स्वर्ग आ चुका है, पर दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों में रहने वाले जब अपने शहर की सीमा से बाहर निकलते हैं, तो सच्चाई आसानी से उनके सामने आ जाती है. किसी भी सरकार ने देश के गांव में पैदा होने वाले कच्चे माल को आधार बनाकर उद्योग-धंधे लगाने के बारे में सोचा ही नहीं. दरअसल, यह रास्ता बाज़ार की तऱफ नहीं जाता है, देश के लोगों की तऱफ जाता है. लेकिन, जबसे हमने यह तय किया है कि इस देश में बाज़ार आधारित अर्थव्यस्था आएगी, उसी दिन से विकास के दायरे से ग़रीब खत्म हो गया, खेतिहर मज़दूर खत्म हो गया या विकास के दायरे से बाहर फेंक दिया गया और छोटा एवं मझोला किसान इसी प्रक्रिया में विकास के दायरे से बाहर चला गया. बेरा़ेजगारी, कुशिक्षा, चिकित्सा का अभाव आदि सारी चीजें देश के बड़े हिस्से में हैं, लेकिन कभी भी उनसे लड़ने की कोई बात किसी सरकार ने नहीं की. अब राहुल गांधी अगर इस बात को समझ कर देश में घूमते, तो हो सकता है कि उनके प्रति लोगों का विश्वास जगता. लेकिन, राहुल गांधी अपनी सरकारों द्वारा किए हुए कार्यों को सही ठहरा रहे हैं और नरेंद्र मोदी के ऊपर हमला बोल रहे हैं. जबकि राहुल गांधी को यह समझना चाहिए कि नरेंद्र मोदी उन्हीं की सरकारों द्वारा बनाई हुई नीतियों का पालन कर रहे हैं.

मेरा मानना है कि प्रधानमंत्री समझदार आदमी हैं, विचारशील आदमी हैं और सबसे बड़ी चीज यह कि  प्रधानमंत्री भ्रष्ट नहीं हैं. इस व्यवस्था में भ्रष्ट तंत्र का प्रतीक माने जाने वाले कई सारे लोग उनके मंत्रिमंडल में हैं, वह अलग बात है, लेकिन प्रधानमंत्री कहीं से भ्रष्ट नहीं हैं. इसीलिए अभी तक कहीं पर भी भ्रष्टाचार का कोई बड़ा या छोटा मुद्दा सामने नहीं आया है. लेकिन, इसका यह मतलब नहीं है कि आप देश के विकास का सार्थक नक्शा देश के सामने न रखें और उसमें लोगों को शामिल न करें.

हमें यह लगा था कि भारतीय जनता पार्टी आई है, तो वह सांप्रदायिकता के मोर्चे पर भले ही कुछ न करे, लेकिन विकास के मोर्चे पर अवश्य कुछ करेगी. भारतीय जनता पार्टी में दीन दयाल उपाध्याय जैसों ने दर्शन दिया था और उसके अब तक तीन सबसे बड़े नेता अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी गांवों के विकास का महत्व समझते थे, पर मौजूदा भारतीय जनता पार्टी की सरकार कांग्रेस की बाज़ार आधार नीतियों का समर्थन कर रही है और उन्हें एक तेज दिमाग के साथ लागू भी कर रही है तथा इस पूरी प्रक्रिया में दीन दयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी की सोच बाहर है यानी देश का गांव बाहर है, अंतिम आदमी बाहर है. योजना कोई भले ही अन्त्योदय के नाम से चल रही हो, लेकिन वह विकास के दायरे में नहीं है. यहां तक कि हिंदुस्तान के गांवों की ज़रूरतों की फेहरिस्त में भी गांव नहीं है. किसी भी विभाग की प्राथमिकता में गांव को पानी, बिजली, अस्पताल, सड़क, स्कूल नहीं हैं और यहां पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार आदर्श रूप में राहुल गांधी की पार्टी द्वारा लागू की गई नीतियों के सार्थक उत्तराधिकारी नज़र आते हैं.
पिछली सरकार भी ग़रीबों से, उनकी भूख से, उनके दर्द से, उनकी तकलीफों से बंदूकों के ज़रिये लड़ना चाहती थी और मौजूदा सरकार भी ग़रीबों के दर्द, उनकी तकलीफों, उनके आंसुओं से बंदूकों के ज़रिये ही लड़ना चाहती है. लगता ऐसा है कि नरेंद्र मोदी का देश को लेकर देखा गया सपना, जिसे उन्होंने अपने भाषणों में बार-बार लोगों के सामने रखा है, उसे नरेंद्र मोदी के साथी अथवा उनके द्वारा चुने हुए अफसर या तो समझते नहीं हैं या उसमें विश्वास नहीं रखते. मेरा मानना है कि वे समझते अवश्य हैं, विश्वास नहीं रखते. इसीलिए उस सपने को पूरा करने की दिशा में एक क़दम भी अब तक बढ़ना नहीं हो पाया है. इस न बढ़ने के पीछे वित्त मंत्री अरुण जेटली का बजट है. प्रधानमंत्री स़िर्फ निर्देश बिंदु बता सकता है, उसमें रंग भरना, उसका खाका बनाना और उसका संपूर्ण चित्र उभारना वित्त मंत्री का काम होता है, पर वित्त मंत्री का बजट कहता है कि नरेंद्र मोदी द्वारा चुनाव के दौरान दिए गए सारे भाषण और प्रधानमंत्री बनने के बाद सारी दुनिया में दिए हुए भाषण कहीं पर भी लागू हुई नीतियों से कहीं दूर खड़े हैं. और, शायद इसीलिए इस देश में एक भावना फैलने लगी है कि प्रधानमंत्री बातें करते हैं बहुत, अच्छी बातें करते हैं, पर उन बातों को धरती पर उतारने का कोई भी नक्शा अभी सामने नहीं आया है.

प्रचार के ज़रिये दोबारा कांठ की हांडी को चूल्हे पर चढ़ाने की कोशिश हो रही है. इस प्रचार ने ही नरेंद्र मोदी सरकार को केंद्र की गद्दी पर बैठाया, ऐसा एक बड़ा वर्ग मानता है. लेकिन, अगर स़िर्फ प्रचार बैठाता, तो कांग्रेस भी प्रचार कर सकती थी. लेकिन, चूंकि कांग्रेस ने पिछले दस सालों में जिन आर्थिक नीतियों को लागू किया, वे उसे वोट देने वाले तबके के एक बड़े हिस्से की ज़िंदगी में कोई बदलाव ला पाने में सफल नहीं रहीं. इसलिए वह प्रचार कूड़े के ढेर में चला गया और नरेंद्र मोदी को लोगों ने अपनी आशाओं को हक़ीक़त का जामा पहनाने वाले व्यक्ति के रूप में देखा. लेकिन, अब जबकि एक वर्ष बीत चुका है और अब भी अगर हम बार-बार यहीं कहें कि अभी तो स़िर्फ एक साल हुआ है, अभी एक साल और देखें, फिर एक साल और देखें. हमने पिछले साठ साल इसी तरह से ग़ुजार दिए हैं.

मेरा मानना है कि प्रधानमंत्री समझदार आदमी हैं, विचारशील आदमी हैं और सबसे बड़ी चीज यह कि प्रधानमंत्री भ्रष्ट नहीं हैं. इस व्यवस्था में भ्रष्ट तंत्र का प्रतीक माने जाने वाले कई सारे लोग उनके मंत्रिमंडल में हैं, वह अलग बात है, लेकिन प्रधानमंत्री कहीं से भ्रष्ट नहीं हैं. इसीलिए अभी तक कहीं पर भी भ्रष्टाचार का कोई बड़ा या छोटा मुद्दा सामने नहीं आया है. लेकिन, इसका यह मतलब नहीं है कि आप देश के विकास का सार्थक नक्शा देश के सामने न रखें और उसमें लोगों को शामिल न करें. इतनी बड़ी संख्या में मौजूद कार्यकर्ताओं की ताकत देश के निर्माण में, देश के विकास में अभी नहीं लग पाई है, क्योंकि संघ से जुड़े सारे कार्यकर्ताओं में जिस तरह का उत्साह विकास के कामों या लोगों को शामिल करने की रणनीति के तहत होना चाहिए, वह कहीं नज़र नहीं आ रहा है.

हम स़िर्फ यह आशा कर सकते हैं और हमें यह आशा करनी चाहिए कि मौजूदा सरकार कांग्रेस की सरकार से बेहतर काम करेगी. अब एक साल बीतने के बाद समय कम है. हम नहीं समझ पाए, हम नहीं देख पाए, हम किन अफसरों को लगाएं और किन सचिवों के ऊपर भरोसा करें, अब इन सारी भाषाओं का मतलब रह नहीं गया है. इसलिए एक साल खत्म होने के बाद अब हर महीने प्रधानमंत्री जी को अपने मंत्रिमंडल और अपने अधिकारियों की वह समीक्षा करनी चाहिए, जिसका परिणाम लोगों के दु:ख और तकलीफ को दूर करने में निकले, न कि कैसे प्रचार हो, किस तरह लोगों को एक सपने की जगह दूसरा सपना दिखाया जाए. ऐसे काम पहले हुए हैं. शायद अब उनका एक ऐसा पड़ाव आ गया है, जिसके आगे कोई रास्ता नहीं है. अब प्रधानमंत्री इस देश के उन बहुसंख्यक लोगों का सपना पूरा करने की दिशा में आगे बढ़ें, जिन्होंने उन्हें इतना बड़ा बहुमत दिया है. यह आशा तो हम कर ही सकते हैं.

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