नरेंद्र मोदी जी, विज्ञान बहुत आगे बढ़ गया है. तकनीक उपलब्ध है. मैंने अपनी आंखों से वायुमंडल से पानी बनते हुए देखा है और एक मशीन रोज 1000 लीटर पेयजल बना सकती है यानी एक गांव के लिए 2000 लीटर पेयजल काफी है. पर ऐसी मशीनें न नरेंद्र मोदी सरकार की प्राथमिकता है और न राज्य सरकारों की. ये सब ऐसे प्रोजेक्ट्स की तलाश में हैं, जिनमें मंत्री और मुख्यमंत्री की जेब में पैसा पहुंचे, वही प्रोजेक्ट सेंक्शन हों.
नरेंद्र मोदी की सरकार को आए आठ महीने हो गए हैं. इससे पहले 64 वर्षों तक केंद्र और राज्यों में लगभग हर राजनीतिक दल की सरकार रही है. इसके बावजूद देश में हर चुनाव में मुख्य मुद्दा बिजली, पानी, सड़क और भ्रष्टाचार बनता है. जिन समस्याओं को आज़ादी के पांच साल के भीतर हल हो जाना चाहिए था, वे समस्याएं आज भी हर चुनाव में मुद्दा बनती हैं और पांच साल के बाद जब अगला चुनाव आता है, तो फिर वही समस्याएं दोबारा मुद्दों के रूप में सामने आ जाती हैं.
प्रश्न इतना ही नहीं है, इससे आगे का सवाल यह है कि हर बीतता हुआ साल स्थितियां खराब करता जाता है और मैं इन्हीं मुद्दों की बात कर रहा हूं. हर बीतते साल बिजली उत्पादन क्षमता घटती जाती है, पानी अनुपलब्ध होता जाता है, सड़कें टूटती जाती हैं और भ्रष्टाचार बढ़ता जाता है. जो भी पार्टी सत्ता में होती है, चुनाव के बाद सबसे पहले इन्हें अपनी प्राथमिकताओं से हटा देती है. यह हर पार्टी के ऊपर लागू होता है और यह रहस्य समझ में नहीं आता कि ऐसा क्यों होता है.
दुनिया के विकसित देशों में भ्रष्टाचार के अलावा बाकी तीन मुद्दे हल करने में सबसे ज़्यादा जोर दिया जाता है. पर हमारे देश में इन्हें सबसे ज़्यादा अनदेखा किया जाता है. जर्मनी का उदाहरण है. पूरी जर्मनी की गंदगी लेकर रॉटरडैम शहर के पास राइन नदी समुद्र में मिलती है और यह नदी पेयजल का सबसे बड़ा साधन है. लेकिन राइन नदी के पानी को शुद्ध करके हर घर में पानी देना सरकार की प्राथमिकता है और सरकार सैकड़ों वर्षों से यह करती चली आ रही है और आज भी राइन नदी के पानी से शुद्ध हुआ जल दुनिया के सर्वश्रेष्ठ मानकों के ऊपर खरा उतरता है.
हमारे देश में हर सरकार ने वे सारे काम किए, जिनसे पैसे आएं. कम से कम पिछले दो-ढाई साल या पिछले पांच साल या पिछले दस साल का तो यही किस्सा है. लेकिन किसी भी सरकार ने बिजली, पानी और सड़क के ऊपर काम नहीं किया. राज्य चाहे उत्तर प्रदेश हो, बिहार हो, मध्य प्रदेश हो, राजस्थान हो, पश्चिम बंगाल हो, ओडिशा हो, कहीं पर भी ये बुनियादी प्रश्न सरकारों की चिंता के विषय नहीं रहे. पर प्राथमिकता में सारे ऐसे प्रोजेक्ट आए, उनमें पैसे खर्च हुए और यह निस्संदेह आसानी से कहा जा सकता है कि उनमें पैसा सीधे अधिकारियों और राजनेताओं की जेब में गया. हम यह नहीं कहते कि आप घूस मत लीजिए. आप घूस लीजिए, क्योंकि घूस को
राजनेताओं और अधिकारियों ने हमारे देश की मुख्य रक्तवाहिनी में घोल दिया है. पर कुछ तो काम जनता के लिए कीजिए! कुछ तो ऐसे काम कीजिए, जिनसे लोगों की ज़िंदगी में कुछ सुधार आए. उदाहरण के तौर पर पावर प्रोजेक्ट्स हैं. ऐसे कितने राज्य हैं, जिनमें पावर प्रोजेक्ट्स पांच साल, दस साल, पंद्रह साल में पूरे हुए हों और उन्होंने बिजली का उत्पादन शुरू किया हो?
और, इससे भी मजेदार बात दूसरी यह है कि ऐसी तकनीक आ गई है, जिससे बिजली उत्पादन 11 से 12 महीने में शुरू हो सकता है. ऐसी तकनीक भी आ गई है, जिससे हवा से पानी बनाया जा सकता है. वायुमंडल में उपलब्ध नमी का इस्तेमाल किया जा सकता है. लेकिन सरकारें, जिनमें सचिवों से लेकर मुख्यमंत्री तक शामिल हैं, इन तकनीकों का इस्तेमाल नहीं करना चाहतीं. कारण साफ़ है, क्योंकि इस तरह की तकनीकों में उनकी जेब में पैसा नहीं पहुंचता. इस तरह की तकनीकों से जनता को तो फ़ायदा हो सकता है, लेकिन अफसरों और राजनेताओं को फ़ायदा नहीं होता. और चूंकि फ़ायदा नहीं होता, इसलिए ऐसे प्रोजेक्ट्स उनकी प्राथमिकता में नहीं हैं.
यही स्थिति केंद्र सरकार की है. आठ महीने से ज़्यादा बीत गए, किसी भी विभाग में कोई काम नहीं हुआ और किसी विभाग की नीति नहीं बनी. किसी विभाग में काम शुरू नहीं हुआ और खासकर बिजली, पानी के स्तर पर केंद्र सरकार भी उसी पुराने रास्ते पर चल रही है कि जिस प्रोजेक्ट में पैसा नहीं है, उसमें अगर लोगों का फ़ायदा है, तो उस प्रोजेक्ट को पीछे रखो. मैं एक प्रदेश का हाल जानता हूं, जहां पीने के पानी का प्रोजेक्ट तीन हज़ार करोड़ रुपये में बना और वह जल्दी से पास हो गया, क्योंकि उस प्रोजेक्ट से किसी मुख्यमंत्री की जेब में 400 करोड़ रुपये पहुंच गए. उतनी ही क्षमता का प्रोजेक्ट उसी सरकार के दूसरे विभाग ने 500 करोड़ रुपये में लगाया, लेकिन उस प्रोजेक्ट को स्वयं मुख्यमंत्री ने आगे बढ़ने नहीं दिया.
केंद्र सरकार के मंत्रियों के बारे में बात करें. खुद विद्युत मंत्री के विभाग में जोर-शोर से प्रचार अभियान चलाया जा रहा है कि सौर ऊर्जा से देश की बिजली की आवश्यकता पूरी होगी, क्योंकि न अब पानी है, न कोयला है. लेकिन, खुद विद्युत मंत्री सोए हुए हैं और सौर ऊर्जा के प्रोजेक्ट्स को प्राथमिकता नहीं दे रहे हैं. शायद वहां भी तलाश है कि कौन-सा प्रोजेक्ट कितना पैसा उन्हें देता है.
ये सवाल यक्ष प्रश्न हैं और इन यक्ष प्रश्नों को हल करना नरेंद्र मोदी के लिए अति आवश्यक है. अगर वह केंद्र के स्तर पर और राज्यों के स्तर पर एक समन्वय स्थापित नहीं करेंगे और केंद्र व राज्यों को मोटिवेट नहीं करेंगे, तो उनका यह पूरा पांच साल का कार्यकाल भी वादों का कार्यकाल रह जाएगा, क्योंकि देश में आज भी सड़क, बिजली, पानी की स्थिति वैसी ही है, जैसी आठ महीने पहले थी. नरेंद्र मोदी के शासनकाल में इनमें कोई परिवर्तन आता दिखाई नहीं दे रहा है.
फैसला नेता को लेना होता है. हमारे देश की व्यवस्था में प्रधानमंत्री बहुत बड़े कारक की भूमिका निभाता है. इसलिए प्रधानमंत्री को शायद सर्वोच्च प्राथमिकताओं के रूप में बिजली, पानी और सड़क को रखना चाहिए. देश के गांवों में पीने का पानी समाप्त हो रहा है. जिस पेयजल समस्या का हल सात से दस दिनों में निकल सकता है, उसे बीस साल के बाद निकालने की योजना बनाई जा रही है और उन्हें नदियों से जोड़ने की बात कही जा रही है तथा देश के लोगों में यह भ्रम फैलाया जा रहा है कि जब नदियां जुड़ेंगी, तब पेयजल की उपलब्धता होगी.
नरेंद्र मोदी जी, विज्ञान बहुत आगे बढ़ गया है. तकनीक उपलब्ध है. मैंने अपनी आंखों से वायुमंडल से पानी बनते हुए देखा है और एक मशीन रोज 1000 लीटर पेयजल बना सकती है यानी एक गांव के लिए 2000 लीटर पेयजल काफी है. पर ऐसी मशीनें न नरेंद्र मोदी सरकार की प्राथमिकता है और न राज्य सरकारों की. ये सब ऐसे प्रोजेक्ट्स की तलाश में हैं, जिनमें मंत्री और मुख्यमंत्री की जेब में पैसा पहुंचे, वही प्रोजेक्ट सेंक्शन हों. वे प्रोजेक्ट न सेंक्शन हों, जिनसे लोगों को पानी मिले. सवाल नरेंद्र मोदी से शुरू होता है और देश के सभी मुख्यमंत्रियों तक जाता है.
मुझे पूरा विश्वास है कि इस देश के लोगों को अभी बिजली, पानी और सड़क की किल्लत झेलनी पड़ेगी और यह शायद इस देश की नियति है कि हम जिसे भी चुनेंगे, वह भ्रष्टाचार की गंगा से नई नहर निकालने की योजना बनाएगा. भ्रष्टाचार समाप्त कर लोगों को बिजली, पानी और सड़क नहीं उपलब्ध कराएगा. धन्य है यह महान देश और धन्य हैं इसके राजनेता.