दिल्ली सरकार ने एक अच्छी कोशिश की है और दिल्लीवासियों ने इस कोशिश में जिस तरह से साथ दिया है, वह बताता है कि हम धीरे-धीरे परिपक्व हो रहे हैं. मैं कुछ महीने पहले चीन गया था. चीन में आबादी के हिसाब से सड़कों पर जिस सरलता से गाड़ियां चल रही थीं, उसने मुझे आश्चर्य में डाल दिया. जब मैंने पता किया, तो मुझे पता चला कि वहां पर ऑड-इवेन फॉर्मूला लागू है और लोग अपने आप उसका पालन करते हैं, क्योंकि पूरे शहर में मुझे कहीं पुलिस नहीं दिखाई दी, ट्रैफिक पुलिस तो कहीं नहीं. मैं बीजिंग की बात कर रहा हूं.
मैंने पता किया कि क्या लोग इस फॉर्मूले का समर्थन कर रहे हैं, तो मुझे बताया गया कि लोग बहुत खुशी से इस फॉर्मूले का समर्थन करते हैं. इतना ही नहीं, चीन में कार खरीदना मुश्किल नहीं है, लेकिन उसका रजिस्ट्रेशन नंबर हासिल करना बहुत मुश्किल है. रजिस्ट्रेशन नंबर हासिल करने के बाद ही कोई कार खरीद सकता है. मैंने सोचा कि क्या यह कभी हिंदुस्तान में लागू हो पाएगा? लौटकर मैंने इसके बारे में लिखा भी था.
अब आज जब देखता हूं कि दिल्ली की जनता ने इस फॉर्मूले का खुले दिल से स्वागत किया है, तो दिल्ली के लोगों को बधाई देने की सहज इच्छा होती है. वैसे हमारे देश में हर चीज का विरोध करने की एक परंपरा-सी बन गई है. सोशल मीडिया पर दिल्ली सरकार का, अरविंद केजरीवाल का जबरदस्त मज़ाक उड़ा और एक छोटे, लेकिन असरदार वर्ग ने यह अ़फवाह फैलाई कि लोग इसे नहीं मानेंगे, लोग इसके विरोध में अपनी गाड़ियां निकालेंगे. लेकिन, लोगों ने गाड़ियां नहीं निकालीं. और, जब लोगों ने गाड़ियां नहीं निकालीं, तो इस फॉर्मूले की सफलता निश्चित हो गई.
जिन लोगों ने इसका उल्लंघन करने की कोशिश की, पुलिस ने उनका चालान काट दिया. मैं इस फॉर्मूले की सफलता का जायजा लेने के लिए दिल्ली के कई क्षेत्रों में कई दिनों घूमा और मैंने पाया कि कुछ लोगों ने इस फॉर्मूले के विपरीत अपनी गाड़ियां निकालीं. और, जिन्होंने गाड़ियां निकालीं, उनके पास से ग़ुजरते हुए लोगों ने जिस हिकारत भरी नज़र से उन्हें देखा, उससे मुझे विश्वास हुआ कि शायद यह अगली बार अपनी गाड़ी नहीं निकालेंगे और इस फॉर्मूले का समर्थन करेंगे.
दरअसल, यह फॉर्मूला स़िर्फ प्रदूषण नियंत्रित करने का तरीका मात्र नहीं है, क्योंकि प्रदूषण नियंत्रण के लिए सरकार को कुछ और करना होगा. ऑटो, टैक्सियों एवं दोपहिया वाहनों के ऊपर भी लगाम कसनी पड़ेगी और उन्हें ऑड-इवेन के दायरे में लाना पड़ेगा. डीजल जनरेटर सेट प्रदूषण फैलाते हैं, उनके लिए बॉयो डीजल का इंतजाम करना पड़ेगा. दिल्ली में जो फैक्ट्रियां प्रदूषण फैला रही हैं, उन्हें तत्काल प्रदूषण नियंत्रण के दायरे में लाना पड़ेगा. इसके साथ ही एक दूसरा महत्वपूर्ण काम करने की ज़रूरत है.
वह महत्वपूर्ण काम है, पूरे एनसीआर में इस फॉर्मूले को लागू करना. एनसीआर का मतलब दिल्ली से जुड़े हुए वे राज्य और उनके वे इलाके, जिन्हें राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र का नाम दिया गया है, जिनमें गुड़गांव, फरीदाबाद, गाजियाबाद, नोएडा, रोहतक एवं पानीपत जैसे शहर शामिल हैं. यही नहीं, 100 किलोमीटर के भीतर आने वाले जितने भी शहर, कस्बे एवं सड़कें हैं, उन्हें भी इसके दायरे में लाने की ज़रूरत है.
अन्यथा दिल्ली एक आईलैंड बनकर रह जाएगी और दिल्ली में प्रदूषण नियंत्रण की सारी कोशिशों के ऊपर पलीता लग जाएगा, क्योंकि वहां का प्रदूषण हवा के ज़रिये दिल्ली की तऱफ आएगा और दिल्ली कभी सा़फ नहीं रह पाएगी. यह चिंता दिल्ली के नागरिकों को है, सुप्रीम कोर्ट को है, हाईकोर्ट को है और निस्संदेह दिल्ली सरकार को भी है. इसमें केंद्र सरकार का भी सहयोग है. अन्यथा केंद्र सरकार ऐसे क़दम उठा सकती थी, जिनसे इस फॉर्मूले का लागू होना दिल्ली में मुश्किल हो जाता.
जिस एक बात ने मुझे प्रभावित किया, वह यह कि कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी ने आधिकारिक तौर पर इस फॉर्मूले को लेकर कई तरह के संदेह व्यक्त किए, सोशल मीडिया में इस फॉर्मूले का मज़ाक उड़ाया, लेकिन उनके समर्थकों ने ऑड-इवेन फॉर्मूले का समर्थन किया. कहीं पर भी लोग बड़ी संख्या में इस नियम को तोड़ते नज़र नहीं आए. इस समर्थन ने कम से कम एक बात साबित की कि अगर देश को लेकर, नागरिक सुविधाओं को लेकर कोई ईमानदार कोशिश की जाए, तो लोग उसका साथ देते हैं.
लेकिन, यहीं सवाल खड़ा होता है कि इसी तरह की कोशिश स्वच्छ भारत अभियान को लेकर शुरू हुई थी. स्वच्छ भारत की कोशिश दिल्ली में क्यों ज़्यादा कामयाब नहीं दिखी? दरअसल, कोई भी योजना शुरू करने के साथ उसके रास्ते में आने वाली बाधाओं के बारे में अवश्य सोचना चाहिए. कूड़ा कहां जाएगा? लोग अगर इसमें हिस्सा लें, तो कूड़ा कहां डालें? विद्यार्थियों को इसके लिए प्रेरित करने का काम कौन करे?
जिस तरह के विज्ञापन अरबों रुपये खर्च करके टेलीविजन और अ़खबारों में दिखाए-छपवाए गए, वे प्रेरणा देने की जगह पैसा कमाने का साधन बन गए. और, स्वच्छ भारत अभियान सफल करना ही है, इसकी ज़िम्मेदारी किसी एक शख्स के ऊपर प्रधानमंत्री ने नहीं डाली. उन्होंने इसे इतना फैला दिया कि यह एक फोटो अपॉरचुनिटी बनकर रह गया. यहां पर मैं अरविंद केजरीवाल की कोशिशों को सराहता हूं, जिन्होंने बड़ी समझदारी के साथ, बिना किसी को अपना दुश्मन बनाए ऑड-इवेन नंबर की गाड़ियों का फॉर्मूला दिल्ली में सफतापूर्वक लागू किया. दिल्ली में सड़कों पर चलना कुछ अच्छा लगने लगा.
अब साइकिलें आसानी से निकल जाती हैं, पैदल लोग सड़क पार कर लेते हैं और गाड़ियां भी बिना रुकेहुए सामान्य गति में चलती हैं. लेकिन, 15 दिन बीतने के बाद क्या होगा? यह एक बड़ा सवाल है. मेरा मानना है कि इस फॉर्मूले को लंबी अवधि के लिए लागू करना चाहिए. लेकिन, दूसरी तऱफ जिस बात की चिंता सुप्रीम कोर्ट ने ज़ाहिर की और कहा कि कैसे मेट्रो ज़्यादा चले, लोगों को दिक्कतें कम आएं, इसका इंतजाम दिल्ली सरकार को फौरन करना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले का पालन होना चाहिए कि 31 मार्च तक सारी टैक्सियों में सीएनजी लग जाए.
मोटर साइकिलों के ऊपर प्रदूषण नियंत्रण क़ानून कैसे लागू हो, यह सुनिश्चित होना चाहिए. सारे ऑटो रिक्शा सीएनजी वाले हों, यह भी अत्यंत आवश्यक है. अब जबकि सुप्रीम कोर्ट ने 31 मार्च की तारीख तय की है, तो भरोसा करना चाहिए कि 31 मार्च के बाद न केवल दिल्ली शहर, बल्कि एनसीआर में भी प्रदूषण नियंत्रण और यातायात नियंत्रण के लिए पहले क़दम के रूप में ऑड-इवेन फॉर्मूला लागू होगा. हम एक नागरिक के नाते दिल्ली एवं एनसीआर के नागरिकों से अपील करते हैं कि वे थोड़ी तकलीफ सहकर भी इस फॉर्मूले को लागू होने दें.
कोई भी चीज, जो वर्षों से हमारे दिमाग़ या दिल्ली के वातावरण में जमी हुई है, उसे सा़फ करने के लिए थोड़ी मेहनत तो करनी पड़ेगी. अगर प्रदूषण नियंत्रित करना है, तो उसकी शुरुआत के यही तरीके हैं, जिनमें हम अपना योगदान कर सकते हैं. शेष तरीकों के बारे में सरकार को शायद सख्त क़दम उठाने पड़ेंगे और सरकार को उन क़दमों के समर्थन में सुप्रीम कोर्ट का आशीर्वाद मिलेगा, ऐसी आशा है.