तीन साल के दौरान मोदी सरकार की पहली पहल है, जिससे शांति का इशारा मिल रहा है. लेकिन जाहिर है, सिर्फ एक महीने के संघर्ष-विराम की घोषणा से कुछ नहीं होगा, जब तक यहां शांति बहाली और समस्या के शांतिपूर्ण हल के लिए गंभीर और प्रभावकारी राजनीतिक प्रक्रिया शुरू नहीं की जाती.
केंद्र सरकार की ओर से जम्मू-कश्मीर में रमजान के महीने में एकतरफा संघर्ष-विराम की घोषणा ने तपती धूप में सर्द हवा के मानिंद खुशगवार माहौल पैदा कर दिया. हालांकि, अभी यह कहना जल्दबाजी होगी कि मोदी सरकार के इस सकारात्मक पहल के कितने सकारात्मक नतीजे होते हैं. इसकी कामयाबी और नाकामयाबी के बारे में भी फिलहाल कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती है. लेकिन श्रीनगर से दिल्ली तक के विचारशील और दूरदृष्टि रखने वाले लोगों ने सरकार के इस फैसले का स्वागत किया है.
कुछ विश्लेषकों का मानना है कि भारत सरकार की ओर से जारी संघर्ष-विराम के फैसले को अगर समझदारी के साथ आगे बढ़ाने की कोशिश की जाए, तो हालात में सुधार होने की पूरी संभावना है. कश्मीर के हालात के संबंध में यह बात समझ लेनी चाहिए कि यहां तीन दशकों से जारी हिंसा की स्थिति की वजह से कश्मीरी जनता तो पीस ही रही है, इसके कारण नई दिल्ली को भी भारी कीमत चुकानी पड़ रही है. इसलिए संघर्ष-विराम जैसे फैसलों को किसी की हार या जीत के रूप में नहीं, बल्कि सबकी जीत के रूप में देखा जाना चाहिए.
श्रीनगर में ऑल पार्टी कॉन्फ्रेंस
नौ मई को श्रीनगर में डल झील के किनारे स्थित शेर-ए-कश्मीर इंटरनेशनल कनवेंशन सेंटर में मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती की अध्यक्षता में आयोजित ऑल पार्टी कॉन्फ्रेंस में राज्य की मुख्यधारा की सभी राजनीतिक दलों के नुमाइंदे शामिल हुए. कॉन्फ्रेंस का मकसद, कश्मीर की मौजूदा स्थिति में बेहतरी की संभावनाओं के लिए सुझाव देना था. पांच घंटे तक चले इस कॉन्फ्रेंस में एक ही महत्वपूर्ण प्रस्ताव सामने आया और वो था संघर्ष-विराम का प्रस्ताव. सूत्रों ने ‘चौथी दुनिया’ को बताया कि अवामी इत्तेहाद पार्टी के नेता और विधानसभा सदस्य रशीद इंजीनियर ने इस कॉन्फ्रेंस में प्रस्ताव पेश किया कि भारत सरकार को कश्मीर में संघर्ष-विराम का ऐलान करना चाहिए. कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया की राज्य इकाई के सचिव मुहम्मद युसूफ तारिगामी ने इस प्रस्ताव का समर्थन किया और कहा कि कश्मीर से एक प्रतिनिधिमंडल को दिल्ली जाना चाहिए, ताकि वो प्रधानमंत्री को संघर्ष-विराम पर राजी करा सके.
मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने इस मौके पर वहां मौजूद लोगों को बताया कि वे मोदी से मिलने वाले प्रतिनिधिमंडल को लेकर दिल्ली जाएंगी. लेकिन सिर्फ एक दिन बाद गठबंधन सरकार में शामिल भाजपा ने इस प्रस्ताव का पूर्ण रूप से विरोध किया. भाजपा की राज्य इकाई के प्रवक्ता अनिल सेठी ने इस प्रस्ताव का विरोध करते हुए कहा कि संघर्ष-विराम के कारण घाटी में जारी मिलिटेंसी के खिलाफ सेना के ऑपरेशन में मिली कामयाबी बेकार हो जाएगी. इसके बाद, रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण ने भी जम्मू-कश्मीर में ऑल पार्टी कॉन्फ्रेंस के दौरान जारी किए गए संघर्ष-विराम के प्रस्ताव को अव्यवहारिक करार दे दिया था.
भाजपा के इस रुख पर विपक्षी पार्टी नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला ने महबूबा मुफ्ती का यह कहकर मजाक उड़ाया कि इस ऑल पार्टी कॉन्फ्रेंस का क्या फायदा हुआ, जब आपके गठबंधन के साथी का ही आपसे विरोध है. उमर अब्दुल्ला ने इसे लेकर ट्वीट भी किया. उन्होंने लिखा कि आप तो बेशर्मी के साथ सरकार के साथ चिपकी रहेंगी, क्योंकि सत्ता आपके लिए महत्वपूर्ण है. बेशक, भाजपा के इस रवैये की वजह से महबूबा मुफ्ती को शर्मिंदगी उठानी पड़ी. लेकिन 16 मई की शाम जब केंद्रीय गृह मंत्रालय की तरफ से रमज़ान के दौरान संघर्ष-विराम की घोषणा की गई, तो महबूबा मुफ्ती ने बिना समय बर्बाद किए प्रधानमंत्री मोदी, गृहमंत्री राजनाथ सिंह और कश्मीर की ऑल पार्टी कॉन्फ्रेंस में शामिल लोगों का शुक्रिया अदा किया.
कश्मीर में संघर्ष-विराम का इतिहास
वर्ष 1994 में घाटी में सक्रिय मिलिटेंट संगठन जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट ने हथियार त्यागने की घोषणा की. उसके मुखिया यासीन मलिक ने तब कहा था कि कश्मीर मसले के राजनीतिक हल का रास्ता साफ करने के लिए हम एकतरफा संघर्ष-विराम कर रहे हैं. हालांकि, यासीन मलिक जो अब कश्मीर के बड़े नेताओं में शुमार किए जाते हैं, ने बाद में आरोप लगाया कि उनके साथ धोखा हुआ है. उनसे कहा गया था कि वे हथियार छोड़ दें, तो कश्मीर समस्या को सियासी तौर पर सुलझाया जाएगा. लेकिन ऐसा हुआ नहीं, बल्कि संघर्ष-विराम के बाद जेकेएलएफ के सैकड़ों सदस्यों को सुरक्षाबलों ने निशाना बना दिया, जो हथियार त्याग चुके थे.
जुलाई 2000 में हिज्बुल मुजाहिदीन ने तीन महीने के संघर्ष-विराम की घोषणा की थी. भारत सरकार ने हालांकि जवाबी तौर पर संघर्ष-विराम का ऐलान नहीं किया, लेकिन सुरक्षाबलों ने अघोषित तौर पर घाटी में अपनी कार्रवाई रोक दी. नई दिल्ली ने हिज्बुल मुजाहिदीन के कमांडरों के साथ बातचीत करने के लिए उस वक्त के गृह सचिव कमल पांडेय की अध्यक्षता में अधिकारियों की एक टीम भेजी थी, लेकिन उस संघर्ष-विराम की वजह से हिज्बुल मुजाहिदीन में फूट पड़ गया और पाक अधिकृत कश्मीर में मौजूद हिज्बुल मुजाहिदीन के नेतृत्व ने इस पहल से खुद को अलग कर लिया था. कुछ विश्लेषकों का कहना है कि हिज्बुल मुजाहिदीन की संघर्ष-विराम नाकामी की एक वजह यह भी बनी कि उसे हुर्रियत कॉन्फ्रेंस, जिसका उस वक्त घाटी में काफी मान-सम्मान था, का समर्थन हासिल नहीं था और न ही सत्ताधारी नेशनल कॉन्फ्रेंस ने उसे सहयोग दिया था.
नवंबर 2000 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कश्मीर में संघर्ष-विराम की घोषणा की थी. शुरू में एक महीने के लिए संघर्ष-विराम किया गया, लेकिन बाद में इसमें दो बार विस्तार हुआ और भारत सरकार की तरफ से यह संघर्ष-विराम तीन महीने तक जारी रहा. यह पहल इसलिए भी खुशगवार थी, क्योंकि इसके कारण घाटी में शांति और अमन का माहौल कायम होने लगा था. यहां तक की कई देहाती क्षेत्रों में सुरक्षाबलों और मिलिटेंटों के बीच दोस्ताना क्रिकेट मैच भी खेले गए. लेकिन इस पहल के साथ कोई सियासी प्रक्रिया शुरू नहीं हुई और इसके कारण आखिरकार यह संघर्ष-विराम नाकाम साबित हुआ.
कश्मीर में सुरक्षाबलों की चुनौतियां
सेना ने पिछले साल मई के महीने में घाटी में ऑपरेशन ऑल आउट शुरू किया. घाटी में मौजूद सभी मिलिटेंटों को खत्म करने को उस ऑपरेशन का मकसद बताया गया था. पिछले साल सुरक्षाबलों ने इस ऑपरेशन के तहत 210 मिलिटेंटों को मार गिराया, जबकि इस साल अब तक सौ से ज्यादा मिलिटेंट मारे जा चुके हैं. लेकिन इसके बावजूद, विश्लेषक ऑपरेशन ऑल आउट को नाकाम करार दे रहे हैं. शायद इसकी वजह यह है कि ऑपरेशन ऑल आउट शुरू किए जाने के बाद सुरक्षाबलों को घाटी में नागरिकों के सख्त प्रतिरोध का सामना करना पड़ रहा है. फरवरी 2017 में सेना प्रमुख जनरल बिपिन रावत ने कश्मीरी नौजवानों को चेतावनी दी थी कि वे सेना और मिलिटेंटों के बीच होने वाले मुठभेड़ के दौरान सेना पर पथराव करने से बाज आ जाएं.
उन्होंने यह भी कहा था कि आइंदा मुठभेड़ के दौरान सुरक्षाबलों पर पथराव करने वालों को मिलिटेंटों का समर्थक और राष्ट्रद्रोही माना जाएगा और उनके खिलाफ कार्रवाई की जाएगी. तब से आज तक मुठभेड़ की जगहों पर सुरक्षाबलों की फायरिंग में कई महिलाओं समेत 50 से ज्यादा नौजवान मारे जा चुके हैं और सैकड़ों जख्मी हो चुके हैं. उनके बारे में सुरक्षाबलों का कहना है कि ये लोग एनकाउंटर के दौरान मिलिटेंटों को बचाने के लिए फौज पर पथराव कर रहे थे. साफ जाहिर है कि सेना प्रमुख की चेतावनी का कश्मीरी नौजवानों पर कोई असर देखने को नहीं मिला, बल्कि कई बार पथराव करने वाले लोग सेना के घेरे में फंसे मिलिटेंटों को बचाने में कामयाब हो गए.
इसकी एक ताजा मिसाल तीन मई को दक्षिणी कश्मीर के सोपियां जिले के तुर्कवान गांव में देखने को मिली, जहां हिज्बुल मुजाहिदीन के एक बड़े कमांडर जिनतुल इस्लाम समेत तीन मिलिटेंट सेना के घेरे में आ चुके थे, लेकिन घटना स्थल पर जमा हुए सैकड़ों नौजवानों ने सुरक्षाबलों पर पत्थर फेंकना शुरू कर दिया. कई घंटे तक चली इस हिंसात्मक झड़प में तीन नौजवान जख्मी हो गए, लेकिन तब तक सेना के घेरे में फंसे तीनों मिलिटेंट फरार होने में कामयाब हो चुके थे. बाद में सेना को इस ऑपरेशन को खत्म करना पड़ा था. कश्मीर में सेना को सिर्फ पत्थरबाजों की चुनौती का ही सामना नहीं करना पड़ रहा है, बल्कि मिलिटेंट संगठनों में लगातार हो रही भर्तियां, मारे जाने वाले मिलिटेंटों के जनाजे में हजारों व कभी-कभी लाखों लोगों की शिरकत, पुलिसकर्मियों से हथियार छिने जाने की बढ़ती घटनाएं और कई पुलिसकर्मियों द्वारा सर्विस राइफल समेत ड्यूटी से भागकर मिलिटेंट संगठनों में शामिल हो जाना भी सुरक्षाबलों व सुरक्षा एजेंसियों के लिए बड़ी चिंता है.
पिछले तीन वर्षों के दौरान सैकड़ों नौजवान मिलिटेंसी में शामिल हुए. पुलिस के आंकड़ों के मुताबिक, सिर्फ पिछले साल 126 लड़के अलग-अलग मिलिटेंट संगठनों में शामिल हुए हैं. केवल इसी साल 50 से ज्यादा नौजवान मिलिटेंट बन चुके हैं. हाल ही में एक स्थानीय अखबार में छपी एक रिपोर्ट में बताया गया कि सिर्फ अप्रैल के महीने में दक्षिण कश्मीर के सोपियां, कुलगाम और पुलवामा जिलों से संबंधित 28 नौजवान मिलिटेंट संगठनों में शामिल हुए हैं. हथियार लूटने की घटनाएं भी बढ़ती जा रही हैं. पिछले 16 मई को श्रीनगर में कश्मीर यूनिवर्सिटी के मुख्यद्वार के करीब ड्यूटी पर तैनात एक पुलिसकर्मी को कुछ नौजवानों ने दबोच लिया और उसकी एसएलआर लेकर भाग निकले.
पुलिस का कहना है कि पिछले तीन साल के दौरान पुलिस वालों से 100 से ज्यादा राइफलें छीनी जा चुकी हैं. 3 साल के दौरान कम से कम नौ पुलिसकर्मी अपनी सर्विस राइफलों समेत ड्यूटी से भागकर मिलिटेंट संगठनों में शामिल हो गए हैं. अप्रैल महीने में इस तरह की दो घटनाएं सामने आई थीं. दरअसल, सुरक्षा एजेंसियों को घाटी में कई तरह की संगीन समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है. एक आम नजरिया है कि जब से फौज ने घाटी में ऑपरेशन ऑल आउट शुरू किया, मिलिटेंटों को हासिल जनता के समर्थन में बढ़ोतरी हुई है. जाहिर है कि मिलिटेंटों के खिलाफ सेना की सख्त कार्रवाई से जनता में गुस्सा है और श्रीनगर और दिल्ली के बीच की खाई और अधिक गहरी होती जा रही है.
पत्थरबाज़ों के खिला़फ क़ानूनी कार्रवाई बेअसर
घाटी में पथराव करने वालों खिलाफ कानूनी कार्रवाई बेअसर साबित हो रही है. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, पिछले 2 वर्षों के दौरान पथराव के आरोप में 11,290 नौजवानों को गिरफ्तार किया गया, लेकिन उन सभी नौजवानों को अदालत ने जमानत पर रिहा कर दिया. कानूनविदों का कहना है कि दरअसल पुलिस पथराव करने वाले नौजवानों के खिलाफ दायर मुकदमों को साबित करने में नाकाम हो रही है, क्योंकि आमतौर पर कोई भी इन नौजवानों के खिलाफ गवाही नहीं देता है और न ही पुलिस ठोस सबूतों के साथ किसी नौजवान पर पथराव का जुर्म साबित कर पाती है. इसलिए गिरफ्तार नौजवान आमतौर पर पहली ही पेशी में जमानत पर रिहा हो जाते हैं.
विधानसभा के ग्रीष्मकालीन सत्र में मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने सदन को बताया कि पथराव के आरोप में नौजवानों के खिलाफ 3773 मुकदमे दर्ज किए जा चुके हैं. पिछले साल एनआईए ने दावा किया था कि कश्मीर में पथराव करने वालों को पैसे दिए जा रहे हैं. लेकिन एक साल से अधिक का समय गुजर जाने के बावजूद, एनआईए अभी तक इस आरोप को अदालत में साबित नहीं कर पाई है. इस मामले में सात हुर्रियत नेताओं समेत 10-12 लोगों को गिरफ्तार किया जा चुका है और वे सभी फिलहाल तिहाड़ जेल में बंद हैं. लेकिन पथराव के मामलों में कोई कमी नहीं देखी जा रही है.
इंटरनेट बन गया हथियार
घाटी में नौजवानों की एक बड़ी तादाद सोशल नेटवर्किंग वेबसाइटों पर अपने जज्बात का खुलकर प्रदर्शन कर रही है और ये नौजवान अपनी भड़ास निकाल रहे हैं. इससे निपटने के लिए पिछले साल अप्रैल में सरकार ने व्हाट्सऐप, फेसबुक और ट्वीटर समेत 22 सोशल नेटवर्किंग साइट पर प्रतिबंध लगा दिया था. लेकिन यह प्रतिबंध एक मजाक साबित हुआ, क्योंकि उसके बाद नौजवानों ने प्रॉक्सी सर्वर का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया, जिस पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं था. सरकार को इस मामले में उस वक्त शर्मिंदगी उठानी पड़ी जब यह पता चला कि इंटरनेट पर प्रतिबंध के बाद कुछ वरीय पुलिस अधिकारियों और नौकरशाहों ने भी प्रॉक्सी सर्वर का इस्तेमाल शुरू कर दिया है. आखिरकार, सरकार को यह पाबंदी हटानी पड़ी.
पढ़े-लिखे नौजवानों का मिलिटेंसी में शामिल होना
घाटी में उच्च शिक्षा प्राप्त कई नौजवानों का मिलिटेंसी में शामिल होना सरकार और सुरक्षा एजेंसियों के लिए एक और परेशानी का कारण बन गया है. हाल ही में सुरक्षाबलों ने एक मुठभेड़ के दौरान कश्मीर यूनिवर्सिटी के 33 वर्षीय असिस्टेंट प्रोफेसर मोहम्मद रफीक बट्ट को मार गिराया. बट्ट केवल चार दिन पहले ही हिज्बुल मुजाहिदीन में शामिल हुआ था. उसने समाजशास्त्र में एमए की डिग्री हासिल की थी और दो बार नेशनल एलिजिबिलिटी टेस्ट (नेट) पास किया था. एक अप्रैल को सुरक्षाबलों ने एक मुठभेड़ में एतमाद अहमद नामक मिलिटेंट को मार गिराया था. एतमाद ने हैदराबाद यूनिवर्सिटी से एमफील की डिग्री हासिल की थी.
इसके अलावा उसने नेट की परीक्षा भी पास कर लिया था. मार्च के महीने में जुनैद अहमद खान नामक एक 26 वर्षीय नौजवान ने हिज्बुल मुजाहिदीन का दामन थाम लिया. वो बीए पास था. गौर करने वाली बात है कि जुनैद अहमद खान, सैयद अली शाह गिलानी की जगह हुर्रियत का नेतृत्व संभालने वाले मोहम्मद अशरफ सहराई का बेटा है. कुछ महीने पहले सीमावर्ती जिले कुपवाड़ा का रहने वाला मन्नान वानी हिज्बुल मुजाहिदीन में शामिल हुआ था.
मन्नान अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से भुगर्भशास्त्र में एमफिल करने के बाद पीएचडी कर रहा था. लेकिन वो अचानक अपना करियर छोड़कर मिलिटेंट बन गया. इस तरह की दर्जनों मिसालें दी जा सकती हैं, जो सरकार के लिए शर्मिंदगी का कारण बन रही हैं. पूर्व रॉ प्रमुख ए. एस. दुल्लत ने हाल ही में अपने एक साक्षात्कार में पढ़े-लिखे नौजवानों के मिलिटेंसी में शामिल होने के रुझान पर गहरी चिंता व्यक्त की थी और कहा था कि यह भयावह है.
आईएसआईएस और अल-क़ायदा की सरगर्मियां
इस साल मार्च महीने में श्रीनगर के बाहरी इलाकों और अनंतनाग जिले में सुरक्षाबलों ने दो मुठभेड़ों के दौरान एक विदेशी और एक तेलंगाना से संबंध रखने वाले मिलिटेंट समेत छह मिलिटेंटों को मार गिराया था. इनका संबंध आईएसआईएस और अलकायदा के सहायक संगठनों से था. उस शाम स्थानीय मिलिटेंटों को दफनाने के मौके पर कश्मीरी नौजवानों की एक बड़ी तादाद ने जबरदस्त उत्साह का प्रदर्शन किया था. इसके बाद कई विश्लेषकों ने यह आशंका जताई कि अगर घाटी में तुरंत अमन कायम नहीं हुआ, तो अंतरराष्ट्रीय आतंकी संगठन यहां अपना पैठ जमाने में कामयाब हो सकते हैं. गौर करने वाली बात यह भी है कि राज्य पुलिस के प्रमुख एस. पी वैद्य घाटी में आईएसआईएस की मौजूदगी की पुष्टि कर चुके हैं.
चीन की दिलचस्पी
मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती के कैबिनेट के वरिष्ठ सदस्य और उनका दाहिना हाथ समझे जाने वाले नईम अख्तर, जो राज्य सरकार के प्रवक्ता भी हैं, ने तीन महीने पहले दिल्ली के एक अखबार को दिए अपने विशेष साक्षात्कार में बताया था कि चीन जम्मू-कश्मीर में मिलिटेंसी को बढ़ावा देने में दिलचस्पी ले रहा है. नईम अख्तर ने यहां तक कहा कि चीन ने मिलिटेंट संगठन जैश-ए-मोहम्मद को गोद लिया हुआ है. इसीलिए वो उसके प्रमुख को अंतरराष्ट्रीय दहशतगर्द करार दिए जाने की राह में बाधक बना हुआ है. नईम अख्तर ने यह भी कहा कि कश्मीर में नौजवानों के हाथों में पत्थर इसलिए हैं, क्योंकि उनके पास बंदूक नहीं हैं. लेकिन अब बंदूक चीन से आ सकती हैं. दरअसल, नईम अख्तर कश्मीर में हालात सामान्य बनाने के लिए एक राजनीतिक प्रक्रिया शुरू करने पर जोर दे रहे थे. उनका कहना था कि अगर इस वक्त राजनैतिक पहल नहीं किए गए, तो यहां के हालात बेकाबू हो सकते हैं.
संघर्ष-विराम : उम्मीद की एक किरण
रमज़ान के महीने के दौरान कश्मीर में संघर्ष-विराम की घोषणा कर मोदी सरकार ने पहली बार यह संदेश दिया है कि वो शांतिपूर्ण तरीके से इस मसले को हल कर सकती है. शायद यह तीन साल के दौरान मोदी सरकार की पहली पहल है, जिससे शांति का इशारा मिल रहा है. लेकिन जाहिर है, सिर्फ एक महीने के संघर्ष-विराम की घोषणा से कुछ नहीं होगा. जब तक यहां शांति बहाली और समस्या के शांतिपूर्ण हल के लिए गंभीर और प्रभावकारी राजनीतिक प्रक्रिया शुरू नहीं किया जाता. उम्मीद की जानी चाहिए यह संघर्ष-विराम कश्मीर में दीर्घकालिक शांति और समस्या के समाधान की तरफ मोदी सरकार का पहला कदम साबित होगा.
पूर्व सेना प्रमुखों के सुझाव
कई पूर्व सेना प्रमुखों ने बार-बार यह राय दी है कि कश्मीर को राजनीतिक तौर पर हल करने की तरफ ध्यान देना चाहिए. नॉदर्न कमांड के प्रमुख रह चुके ले. जनरल डीएस हुड्डा ने इस तरह का सुझाव कई बार दिया है. उन्होंने अपने बयान में कहा कि कश्मीर में नौजवान मौत का खौफ और जिंदगी से मोहब्बत का जज्बा खो चुके हैं. हाल ही में पुणे में एक समारोह को संबोधित करते हुए जनरल हुड्डा ने राज्य की पीडीपी और भाजपा सरकार को आड़े हाथों लेते हुए कहा कि यही सरकार यहां की मौजूदा स्थिति के लिए जिम्मेदार है. उनका कहना था कि इस सरकार से कश्मीरियों को काफी उम्मीदें थीं, लेकिन ये उनकी उम्मीदों पर खरा नहीं उतरी.
पूर्व सेना प्रमुख जनरल वेद प्रकाश मलिक भी कश्मीर में राजनीतिक प्रक्रिया के जरिए हालात ठीक करने का सुझाव दे चुके हैं. उन्होंने एक साक्षात्कार में कहा था कि इस झगड़े को सियासी सतह पर हल करना होगा. यह सही नहीं है कि सारा बोझ आप सीआरपीएफ और सेना पर डाल दें. अगर आप समझते हैं कि सेना इस मसले को हल करेगी, तो ऐसा नहीं होगा. नॉदर्न कमांड के एक और प्रमुख ले. जनरल हरचरणजीत सिंह पयांग ने हाल ही में ट्वीटर पर कश्मीर में हो रही ज्यादतियों पर अपनी चिंता का इजहार किया था. दरअसल, कई पूर्व सेना अधिकारी इस बात को मान चुके हैं कि कश्मीर को गोलियों और पैलेट से हल नहीं किया जा सकता है. रक्षा विशेषज्ञों का कहना है कि अगर मिलिटेंसी को बंदूक के बल पर खत्म किया जा सकता, तो फौज यह काम पिछले 30 साल के दौरान कर चुकी होती.