(भरी दोपहरी में अंधकार) नामकी ऑर्थर कोस्लर नाम का उपन्यास मैंने अपने विद्यार्थी जीवन में पढा था और जहाँ तक याद है वह सोवियत संघ के स्टालिन के समय की न्यायिक प्रक्रिया तथा प्रशासनिक व्यवस्था पर आधारित था ! हालाँकि ऑर्थर कोस्लर खुद शुरूआती दिनों में मार्क्सवाद से प्रभावित लोगों मे से एक था लेकिन द गाॅड दॅट फैल्ड किताबके अन्य लेखकों की तरह वह भी सोवियत संघ के स्टालिन (रशियन एडिशन ऑफ हिटलर) की कार्यप्रणाली देखकर एरिक फ्रॉम से लेकर, अॅण्ड्रू गाइड,रिचर्ड राइट,इग्नाझिओ स्सीलोन ,स्टिफन पस्पेनडर,लुई फिशर और किताब के एडिटर रिचर्ड्स क्रासमन वैसे तो काफी लोग थे कि जो 1917 की ऑक्टोबर क्रान्ति से प्रभावित होकर कम्युनिस्ट बने थे लेकिन शुरूआत में ही लेनिन और 1924 के बाद 1953 मे मृत्यु होने तक यानेसोवियत क्रान्ति के छत्तीस साल के अनुभव से काफी बुद्धिमान लोग इस क्रांति के अपेक्षा भंग के शिकार हो गए थे और इनमें से कुछ लोग जो सोवियत संघ के नागरिक थे उनके उपर तथाकथित देशद्रोहियों के नाम पर जो कानून के लिए नामपर कारवाही की गई उसके उपर आधारित ऑर्थर कोस्लर का द डार्कनेस अट नून नाम का उपन्यास और मास्को ट्रायल्स के लिए विशेष रूप से विख्यात जोसेफ स्टालिन के तथाकथित देशद्रोहियों के नाम पर खडे किये गये कोर्ट के तत्कालीन डॉक्यूमेंटरी एव्हिडेंशेस देखकर लगता है कि गत छ साल से और उसके बारह साल 2002 से 2014 तक गुजरात मे बिल्कुल मास्को ट्रायल्स के तर्ज पर वहां की न्यायिक प्रक्रिया तथा प्रशासनिक व्यवस्था चल रही थी ! और इसीलिये दंगा तथा एंकाऊटर की केसेसको तत्कालीन केंद्र सरकार को अन्य राज्यों में सुनवाई के लिए ट्रांसफर करनी पडी थी ! लेकिन उसके बावजूद भी सोहराबुद्दीन शेख मुठभेड़ से लेकर इशरत जहाँ, गुलमर्ग सोसायटी के केसेसको क्या नतीजे निकले ? और उससे संबंधित गुनाहगार आज देश के कौनसे पदोपर जानबूझकर बैठाये गये हैं ! और उन्ही के अंतर्गत देश की कानून व्यवस्था का काम आया है !
तो आजसे सौ साल पहले के मास्को ट्रायल्स की याद आने की वजह गत छह साल से भी ज्यादा समय हो रहा है हमारा संपूर्ण तंत्र भले उसे जनतंत्र कहा जा रहा है लेकिन वह लगभग 1925 के बाद के रशियन एडिशन और साथ में ही उसकी ही तर्ज पर इटली और जर्मनी में भी चल रहा था !!
भारत में नोटबंदी से लेकर जिएसटी, देशद्रोह, कश्मीर के 370,एन आर सी से लेकर बाबरी मस्जिद -राममंदिर निर्माण के लिए चलाए गए केसेसको और भिमा कोरेगाव के केसेसको गौर से देखा जाए तो क्या भारत के संविधान के तहत एक भी निर्णय संविधान के तहत दिया हुआ लगता है ? अ
अगर कोर्ट खुद कह रहा है कि रामलला के जन्मस्थल का प्रमाण नहीं है तो भी मंदिर वही बनायेंगे के नारे को गत पैतीस सालों से लगातार दिया जा रहा है कि सवाल कानून का नहीं है आस्था का है ! को सर्वोच्च न्यायालय मुहर लगाता है ! और 6 दिसम्बर 1992 के दिन पूरे विश्व ने बाबरी मस्जिद के विध्वंस के दृश्य टीवी पर देखा है और वहां उपस्थित पत्रकार भी उस घटना के गवाहों की अनदेखी करने वाले अलाहाबाद के विशेष न्यायालय ने कोई भी गुनाहगार नहीं है और वह गुनाहगार देश के संविधानिक पदोपर बहाल किये जा रहे हैं ? क्या हमारी देश की न्यायिक व्यवस्था के लिए इस तरह के निर्णय इज्जत बढानेका काम कर रहे हैं ? और वह निर्णय देने वाले को निवृत्ति के बाद एक ही महीने के भीतर हमारे सर्वोच्च पद पर बैठे हुए राष्ट्रपति राज्यसभा के लिए विशेष सेवा करने के एवज में मनोनीत करते हैं ?
अब बात वर्तमान समय में गत डेढ महीने सेभी ज्यादा समय से चल रहे किसानों के आंदोलन की ! सरकार वार्ता के नाम पर जलेबी-जलेबी का खेल खेलते जा रही है और यह बात सर्वोच्च न्यायालय ने भी नोटिस किया है और उसपर कडी टिप्पणी भी की है और संसद में इन बिलों को आनन-फानन में पास करने के लिए भी सरकार को खरिखोटी सुनाई है ! मुख्य रूप से राज्यसभा के तथाकथित आवाजी मतदान पर जो आपत्ति कोर्ट ने जताई है उसके बाद इस बिल के पास होने का निर्णय की राज्यसभा के उपाध्यक्ष की घोषणा का औचित्य रह जाता है ? जिस वरिष्ठ सभागृह की उस दिन की और किसानों के संबधित बिलोको लेकर हुई कारवाई निरस्त नहीं होती है ?
मूल बात केंद्र सरकारके कृषी मंत्री बार-बार बोल रहे हैं कि आप लोग सर्वोच्च न्यायालय जाईये ! और आपके पास किसान आंदोलन वाले फरियाद करने नहीं आये कोई और लोग जो शाहीन बाग आंदोलन के समय भी आवागमन की असुविधा के लिए केस किया था और बिल्कुल ऊसी तरह वर्तमान किसान आंदोलन के कारण आवागमन बधित होने की केस कोई किया है और आज सर्वोच्च न्यायालय के तरफसे चार लोगों की कमिटी और तात्कालिक यथास्थिति को बनाए रखने के लिए निर्णय दिया है !
मैंने शुरू से ही मास्को ट्रायल्स उदाहरण देकर मेरे पोस्ट की शुरूआत की है और वह इसी लिये की सब कुछ सरकार को सुविधाजनक करने के लिए विशेष रूप से सर्वोच्च न्यायालय के गत छहसाल से दिये गये कुछ निर्णय मैंने पहले ही लीखा है कि उन सभी निर्णयों में कोर्ट ने संविधान को अनदेखा कर दिया था और वह अजीबोगरीब फैसले लिये है ?
और अब किसी भी किसानों के आंदोलन वालो ने नाही किसी कमिटी की मांग की है और नाही वह कोर्ट में पार्टी है !
और आप सभी न्यायाधीशों की जानकारी हासिल करने की क्षमता से पता चलता है कि किसी के व्टिटर से लेकर अखबार या चैनल पर के जानकारीका खुद सग्यान लेकर आप लोगोंने केसेसको लिया है और किसानों की मांग के लिए आप एक कमिटी का गठन करते हो और चार के चार सदस्यों की पहले से ही वर्तमान सरकार ने लाये हुए कृषि क्षेत्र से संबंधित बिलो के समर्थन में बहुत ही पहले से ही भुमिका रही है और वह सभी इस विषयपर लिखने बोलनेवाले लोग है ! क्या सर्वोच्च न्यायालय सचमुच इस समस्या के प्रति गंभीर है ? आपको चार मेसे एक भी सदस्य ऐसा नहीं दिखाई दिया की वह और भी कुछ अलग जानकारी वाला-वाली है ?
मतलब आप कश्मीर 370,आयोध्या के जैसे ही सरकार की मर्जी सम्हलने के लिए यह सब कसरत करने का मन बना लिया है और इसीलिए मैंने मास्को ट्रायल्स की याद दिला दी है और मेरे लेख का टाइटल डार्कनेस अट नून (भरी दोपहरी में अंधकार) दिया है !
डॉ सुरेश खैरनार 13 जनवरी 2021,नागपुर