पुलिस तंत्र अगर ग़लत जांच करता है, तो उसकी जवाबदेही निश्चित हो, उसके लिए उसे सजा देने का प्रावधान हो. उसी तरीके से अगर अदालतें ग़लत फैसला दें या फिर ऐसे फैसले दें, जो अंतिम न्याय देने वाले दरवाजे से ग़लत साबित होते दिखाई दें, तो उन जजों की ज़िम्मेदारी तय हो और कम से कम उनके प्रमोशन के ऊपर रोक लगे. ऐसा करना बहुत आवश्यक है, वरना लोकतंत्र हमेशा पुलिस और न्याय व्यवस्था के ज़रिये दागदार होता रहेगा. लोकतंत्र में जिसके पास ताकत नहीं है, जो ग़रीब है, दलित है, आदिवासी है, मुसलमान है और जो बेवजह सताया हुआ है, अगर उसका संरक्षण नहीं होगा, तो आम लोगों का विश्वास लोकतंत्र के प्रति थोड़ा डिग जाएगा.
अब समय आ गया है, जबकि देश के पुलिस तंत्र और न्याय व्यवस्था के बारे में बातचीत की जाए. हमारे देश का पुलिस तंत्र आजादी के 67 सालों के बाद भी किसी के प्रति जवाबदेह नहीं है और न कोई सरकार पुलिस तंत्र को किसी के प्रति जवाबदेह बनाना चाहती है. पुलिस के ऊपर तभी कार्रवाई होती है, जब कोई पुलिस अधिकारी किसी बड़े अधिकारी या मंत्री की जाति से संबंध नहीं रखता या फिर वह उसके द्वारा की हुई सिफारिश को अनदेखा कर देता है. लेकिन, पुलिस के ऊपर ऐसे मामलों में कार्रवाइयां कम हुई हैं, जिनमें पुलिस ने ग़लत जांच की हो, पुलिस ने जांच ही नहीं की हो, किसी को फर्जी तरीके से जेल में बंद कर दिया हो या फिर फर्जी एनकाउंटर कर दिया हो. देखने में यह आया है कि सालों साल मुक़दमा चला और उसके बाद आरोपी बेदाग छूट गया. उसने उतने दिन आराम किया, उन दिनों की तनख्वाह भी उसे मिल गई और वह अपनी मूंछों पर ताव देते हुए दोबारा उस इलाके में घूमने लगा, जहां लापरवाही बरतने या दमन की वजह से उसे फौरी तौर पर सजा मिली थी.
हाशिमपुरा और मलियाना कांड में लगभग 42 लोगों की मौत हुई. उन मौतों का किसी को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया गया. ऐसा लगा कि सबने अपने आप खुद को गोली मार ली और पुलिस के ऊपर लगे हुए आरोप और चले हुए मुक़दमे सब ग़लत थे. नया मामला साध्वी प्रज्ञा का है. सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि उनके ऊपर कठोर धाराएं लगाने लायक कोई सुबूत पुलिस के पास नहीं है. इसलिए उन्हें जमानत के लिए निचली अदालत में जाना चाहिए. साध्वी प्रज्ञा को जमानत मिले या न मिले, सवाल यह नहीं है. बल्कि सवाल यह है कि जब सुप्रीम कोर्ट कहता है कि उसे कोई ऐसी चीज नहीं मिली, जिससे साध्वी प्रज्ञा एवं उनके साथियों के ऊपर मकोका लगे या अन्य कठोर धाराएं लगें, तब यह चिंता की बात है. मलियाना-हाशिमपुरा और साध्वी प्रज्ञा, ये दोनों मामले बताते हैं कि न्याय व्यवस्था में भी ज़िम्मेदारी तय होनी चाहिए. आ़िखर वही किताबें हैं, वही क़ानून है और वही क़ानून की व्याख्या करने वाले लोग उस कुर्सी पर बैठे हैं. क्यों अंतिम न्याय देने वाली अदालत ज़्यादातर उन सवालों के ऊपर अपनी अलग राय देती है, जो सुप्रीम कोर्ट पहुंच पाते हैं?
मलियाना-हाशिमपुरा और साध्वी प्रज्ञा, ये दोनों मामले बताते हैं कि न्याय व्यवस्था में भी ज़िम्मेदारी तय होनी चाहिए. आ़िखर वही किताबें हैं, वही क़ानून है और वही क़ानून की व्याख्या करने वाले लोग उस कुर्सी पर बैठे हैं. क्यों अंतिम न्याय देने वाली अदालत ज़्यादातर उन सवालों के ऊपर अपनी अलग राय देती है, जो सुप्रीम कोर्ट पहुंच पाते हैं?
इससे पहले भी कई लोगों की इज्जत पुलिस और न्याय व्यवस्था ने तार-तार की है. कल्पनाथ राय का नाम याद कीजिए, वह कांग्रेस के बड़े नेता थे. कल्पनाथ राय के ऊपर पुलिस ने एक जांच की कि उनके किसी पीए ने किसी ऐसे आदमी को एनटीपीसी के गेस्ट हाउस में ठहरने की इजाजत दी, जो संदिग्ध था. अदालत ने कल्पनाथ राय को जेल भेज दिया. बाद में कल्पनाथ राय सर्वोच्च अदालत से छूट गए. पर तब तक कल्पनाथ राय के ढाई या तीन साल जेल में बीत चुके थे और उनकी इज्जत तार-तार हो गई थी. उस सदमे से वह निकल नहीं पाए और उनकी मौत हो गई. ऐसी बहुत सारी मिसालें हैं, जिनमें वे मिसालें नहीं आतीं, जिनका रिश्ता उन ग़रीबों से है, जिनके पास इतना सामर्थ्य नहीं है कि वे पुलिस को पैसा दे सकें या न्याय का दरवाजा खटखटाने और अंतिम फैसला पाने के लिए सुप्रीम कोर्ट तक जा सकें.
क्या यह सवाल अब नहीं उठना चाहिए कि पुलिस तंत्र अगर ग़लत जांच करता है, तो उसकी जवाबदेही निश्चित हो, उसके लिए उसे सजा देने का प्रावधान हो. उसी तरीके से अगर अदालतें ग़लत फैसला दें या फिर ऐसे ़फैसले दें, जो अंतिम न्याय देने वाले दरवाजे से ग़लत साबित होते दिखाई दें, तो उन जजों की ज़िम्मेदारी तय हो और कम से कम उनके प्रमोशन के ऊपर रोक लगे. ऐसा करना बहुत आवश्यक है, वरना लोकतंत्र हमेशा पुलिस और न्याय व्यवस्था के ज़रिये दागदार होता रहेगा. लोकतंत्र में जिसके पास ताकत नहीं है, जो ग़रीब है, दलित है, आदिवासी है, मुसलमान है और जो बेवजह सताया हुआ है, अगर उसका संरक्षण नहीं होगा, तो आम लोगों का विश्वास लोकतंत्र के प्रति थोड़ा डिग जाएगा. लोकतंत्र के यही वे अंग हैं, जो उसके चेहरे का हिस्सा बनते हैं, जिनमें पुलिस, न्याय व्यवस्था, कार्यपालिका और विधायिका प्रमुख हैं. कार्यपालिका और विधायिका के सवाल अलग हैं और उनकी ज़िम्मेदारियां अलग हैं. लेकिन जिनका सीधा रिश्ता आम जनता से है, वे हैं निचले स्तर की न्यायपालिका और पुलिस, जो बहुत महत्वपूर्ण हैं. क्या हम यह मांग नहीं उठा सकते कि देश में एक ऐसी बहस शुरू हो और सरकार उस बहस की शुरुआत करे कि किस तरीके से पुलिस तंत्र को ज़्यादा ज़िम्मेदार बनाया जा सकता है और किस तरीके से न्यायपालिका को ज़्यादा संवेदनशील बनाया जा सकता है? अगर यह नहीं होगा, तो फिर हमें मान लेना चाहिए कि हम धीरे-धीरे पुलिस स्टेट की तऱफ बढ़ रहे हैं. और, पुलिस स्टेट की तऱफ बढ़ना लोकतंत्र के लिए बहुत खतरनाक है.