पहली नज़र में लग सकता है कि देश में शायद ही ऐसा कोई दलित है, जो किसी बड़े कॉर्पोरेट घराने का मालिक हो. यह सच भी है, लेकिन यह आधा सच है. आंकड़े बताते हैं कि पिछले दो दशक में छोटे स्तर पर ही सही, लेकिन दलित अब आर्थिक विकास की गहरी लकीर खींचने में कामयाब रहे हैं.
दलित वोटों को हथियाने की होड़ में सता और विपक्ष के बीच एक नई जंग शुरू हो गई है. दिलचस्प यह है कि राजनीतिक दलों की इस मुहिम में भाजपा और विपक्षी गठबंधन के नेता बाबा साहेब की राजनीतिक विरासत हासिल करने की कोशिश में तरह-तरह के हथकंडे अपना रहे हैं. दो अप्रैल को हुए दलित संगठनों के भारत बंद के बाद भाजपा जहां दलित वोटों के छिटकने की आशंका से इसके ‘डैमेज-कंट्रोल’ में जुट गई है, वहीं विपक्षी पार्टियां दलित-चेतना के इस उग्र-उभार को वोटों में तब्दील करने के तरीके खोज रही हैं.
भारत बंद के दौरान 12 निर्दोष लोगों के जान गंवाने के दो दिन बाद प्रधानमन्त्री मोदी का यह बयान आया कि किसी ने भी अंबेदकर को उतना सम्मान नहीं दिया, जितना इस सरकार ने दिया है. उन्होंने कहा कि 1956 में बाबा साहेब की मृत्यु हुई, लेकिन उन्हें 1990 में भारत रत्न तब दिया गया, जब केंद्र में भाजपा समर्थित सरकार थी. प्रधानमन्त्री ने यह भी याद दिलाया कि देश की राजधानी में बाबा साहेब से जुड़े दो स्मारकों को भाजपा सरकार ने ही पूरा कराया है. मोदी ने कहा कि विपक्षी दल अंबेदकर के नाम पर सिर्फ राजनीति कर रहे हैं.
भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने दो अप्रैल के भारत बंद के दौरान हुई हिंसा के लिए विपक्षी नेताओं को कसूरवार तो ठहराया ही, यह भी सा़फ किया कि भाजपा न तो आरक्षण खत्म करेगी और न ही किसी को करने देगी. अब केंद्र सरकार ने घोषणा की है कि वे बाबा साहेब की जयंती 14 अप्रैल से 5 मई तक देश भर में जोर-शोर से मनाएगी.
इधर, उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने बाबा साहेब के नाम के साथ ‘रामजी’ जोड़कर उनका पूरा नाम बाबा साहेब भीमराव रामजी अंबेदकर’ किए जाने के निर्देश जारी कर दिए. इससे एक कदम आगे बढ़ते हुए समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने ऐलान किया है कि सपा-बसपा की दोस्ती को मजबूत आधार देने के लिए उनकी पार्टी बाबा साहेब की 127 वीं जयंती पर पूरे उतर प्रदेश में 90 स्थानों पर एक साथ श्रद्धांजलि कार्यक्रम आयोजित करेगी. आरजेडी नेता रमई राम इससे भी आगे निकल गए. उन्होंने कहा कि वे बाबा साहेब की इच्छा के अनुसार अलग हरिजनिस्तान बनाने की मांग करेंगे.
बहरहाल, इन सब राजनैतिक बयानबाजी को अगर छोड़ भी दें तो दलितों के वर्तमान आन्दोलन से यह बात सा़फ हो गई है कि दलित अब राष्ट्रीय स्तर पर एक मजबूत राजनीतिक ताकत हैं. आमतौर पर माना जाता है कि आर्थिक ताकत के बिना पॉलिटिकल पॉवर नहीं आती है. पहली नज़र में लग सकता है कि देश में शायद ही ऐसा कोई दलित है, जो किसी बड़े कॉर्पोरेट घराने का मालिक हो. यह सच भी है, लेकिन यह आधा सच है. आंकड़े बताते हैं कि पिछले दो दशक में छोटे स्तर पर ही सही, लेकिन दलित अब आर्थिक विकास की गहरी लकीर खींचने में कामयाब रहे हैं.
दलितों के शोषण और इकोनॉमिक इम्पावरमेंट के लिए काम करने वाले चन्द्रभान प्रसाद के मुताबिक दलितों के बीच सामाजिक, आर्थिक विकास का ट्रेंड काफी तेजी से बदल रहा है. अब दलित कारोबारियों का अपना अलग ‘दलित चैम्बर ऑ़फ कॉमर्स’ है. इसका मुख्यालय पुणे में है. चंद्रभान प्रसाद बताते हैं कि दलित चैम्बर ऑफ कॉमर्स के देश में 3000 सदस्य हैं. इनमें से 1000 सदस्यों का टर्नओवर 100 करोड़ से ज्यादा है.
पिछले दो दशकों में बिज़नेस-वर्ल्ड में भी दलितों की भागीदारी बढ़ी है. चन्द्रभान का दावा है कि अकेले पश्चिमी उत्तर प्रदेश में तकरीबन 100 ऐसे अस्पताल हैं, जिन्हें दलित कारोबारी चलाते हैं. दिल्ली-एनसीआर में तमाम ऐसे दलित व्यापारी हैं जो हीरो होंडा, यामाहा, बजाज जैसी कंपनियों के लिए ऑटो पार्ट्स की आपूर्ति करते हैं. यानी पिछले दो दशकों के दौरान दलितों को फ्री-मार्केट की खुली प्रतिस्पर्धा में अपना हुनर और व्यापारिक कौशल दिखाने का मौका मिला है. इससे कहीं न कहीं सामंतवादी प्रवृत्तियों और जातिवाद की जड़ पर भी प्रहार हुआ है.
हाल में जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछले दो दशक में दलितों के जीवन स्तर में भी काफी फर्क आया है. इसे जांचने के लिए उनके कंजम्पशन पैटर्न को समझना होगा. उत्तर प्रदेश के दो पिछड़े जिलों में किए गए सर्वेक्षण के अनुसार सन 1992 में ज़्यादातर दलितों के घरों में टेलीविज़न नहीं हुआ करता था. लेकिन अब 457 दलितों के घर में टीवी हैं. देश के 36% दलित मोबाइल ़फोन रखते हैं और 13% से अधिक दलित मोटर-साइकिल पर चलते हैं.
जहां तक सामाजिक समरसता की बात है, 77% दलितों के यहां अब सवर्ण जातियों के लोगों का सामान्य खान-पान है, जबकि दो दशक पहले यह लगभग 10% था. आर्थिक उदारीकरण के बाद दलितों की स्थिति में जबर्दस्त सुधार हुआ है. अब दलितों के यहां फ्रिज और एसी हैं. उनके परिवारों में अब शादी ब्याह में कारों का इस्तेमाल आम बात है, जो कभी उनके लिए सपना हुआ करती थी. अब केवल एक फीसदी दलित ही ऊंची जातियों के खेतों में हल चलाते हैं, जो संख्या पहले 33% थी. ग्रामीण क्षेत्रों में वर्ष 93-94 में 62% दलित गरीबी की रेखा के नीचे जीवन जीने को मजबूर थे, लेकिन अब केवल 28% दलित ही गरीबी की रेखा के नीचे हैं. शहरों में गरीबी की रेखा के नीचे दलितों की आबादी केवल 20% बची है.
सामाजिक संरचना में हुए इस तेज़ बदलाव के बावजूद अभी जब तब ऐसी घटनाएं होती रहती हैं, जब दलितों को शादी में घोड़ी पर बैठकर बारात नहीं निकालने दी जाती. हाल में उत्तर प्रदेश के कासगंज में एक दलित युवक को सवर्णों के मोहल्ले से बरात लेकर जाने से मना कर दिया गया. पूर्व केंद्रीय मंत्री कुमारी शैलजा ने पिछले दिनों कहा कि मंदिरों में अब भी हमसे जाति पूछी जाती है. खैर, यह तो नहीं कहा जा सकता है कि देश के प्रमुख मंदिरों में जाति पूछने की परम्परा अब बची है भी या नहीं, लेकिन कहीं न कहीं इस दुर्भावना की जड़ें हमारी सामजिक व्यवस्था, में तो अब भी मौजूद हैं.