बीता महीना वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए काफी हलचल का था. पिछले 25 वर्षों के दौरान दुनिया चीन के दोहरे अंक के आर्थिक विकास को आश्चर्य से देखती रही. भारतीयों के लिए भी यह ईर्ष्या का विषय बना हुआ था. लोग यह सवाल पूछा करते थे कि अगर भारत में तानाशाही होती, तो क्या भारत भी अच्छा कर सकता था? पिछले महीने शंघाई स्टॉक एक्सचेंज धराशायी हो गया. दरअसल, यह एक ऐसा गुब्बारा था, जिसके फटने का इंतज़ार काफी समय से किया जा रहा था.
बहरहाल, चीनी अधिकारियों ने बाज़ार संभालने के लिए 200-300 अरब डॉलर बाज़ार में जारी किए और शेयरों की बिकवाली पर रोक लगाई. इससे साबित होता है कि उन्हें आधुनिक बाज़ार की कोई समझ नहीं है. इन उपायों के बावजूद बाज़ार संभल नहीं सका और एक बार फिर लुढ़क गया. कम्युनिस्ट पार्टियां एक खास उद्देश्य और काम की तकनीकी निश्चितता द्वारा संचालित होती हैं. उन्हें विकल्प दे दीजिए और उनका काम थोड़ा जटिल बना दीजिए, तो वे उलझ कर रह जाएंगी. सोवियत संघ के विघटन का यही कारण था.
फिलहाल यह सा़फ हो गया है कि चीन केवल निर्यात के आधार पर ही लगातार विकास नहीं कर सकता. चीन के 20 वर्षों का विकास सस्ते मज़दूरों (ग्रामीण पृष्ठभूमि के लोग, जिनके पास न तो स्वास्थ्य बीमा था और न नौकरी की सुरक्षा) पर निर्भर था. अब मज़दूरी बढ़ रही है और विकसित देशों का बाज़ार सिकुड़ रहा है. चीन को अपनी अर्थव्यवस्था अपनी घरेलू मांग पर आधारित करनी होगी और अपने मध्यम आय वर्ग को दूसरे देशों के मध्यम आय वर्ग के बराबर करना होगा.
इसका अर्थ यह है कि उसे विकल्प देना होगा, ऋण देना होगा और उद्यमशीलता का विकास करना होगा, जिससे नई मांग की पूर्ति हो सके. इसका यह भी अर्थ है कि नियंत्रण समाप्त किया जाए और नागरिकों को आज़ादी दी जाए. कम्युनिस्ट पार्टियां यह करने में असमर्थ हैं, ऐसा कहना दक्षिणपंथी विचारधारा से प्रेरित लग सकता है, लेकिन चीन इसी सच्चाई को साबित करता है.
अब चीन भी किसी अन्य अर्थव्यवस्था की तरह हो जाएगा. जब तक बदलाव का दौर समाप्त नहीं हो जाता, उसे सीखने की कोशिश और अगले 20 वर्षों तक चार से पांच प्रतिशत की विकास दर स्वीकार करनी होगी. चीन का अंत सोवियत संघ जैसा नहीं होगा, लेकिन यह भी सच है कि उसकी अर्थव्यवस्था अब चमत्कारी नहीं रहेगी. यह कहा जा सकता है कि ड्रैगन (चीन) ने फुंफकारना बंद कर दिया है. भारत एक लंबे समय से व्यापारिक (ट्रेडिंग) अर्थव्यवस्था रहा है.
इसके शुरुआती दिनों से ही विश्वस्तरीय कपड़ा उद्योग मौजूद था. लेकिन, भारत ने सोवियत मॉडल का चुनाव किया, जो राज्यवादी (स्टेटिस्ट) और पूंजी प्रधान था और जो भारत की सबसे बड़ी ताक़त यानी इसकी श्रमशक्ति इस्तेमाल नहीं कर सका था. नतीजा यह हुआ कि भारत का विकास स्थिरता का शिकार हो गया. 1991 में भारत ने अपना रास्ता बदल दिया और बाज़ारोन्मुख नीति अपनाई, जिससे विकास फिर पटरी पर आ गया. इसके बावजूद भारत आराम नहीं कर सकता.
वर्ष 1998 से लेकर 2007 तक की अवधि में भारत की ऊंची विकास दर विश्व की ऊंची विकास दर के कारण थी. ़िफलहाल विकसित देश निम्न विकास दर और निम्न मुद्रास्फीति के दौर से गुज़र रहे हैं. ऐसे में भारत को विदेशी बाज़ार के उछाल पर निर्भर नहीं रहना चाहिए.
भारत एक इकोनॉमिक पॉवर हाउस बन सकता है. इसके लिए भारत के नेताओं को आधुनिक अर्थशास्त्र की जटिलताएं समझनी होंगी, उन्हें राज्यवादी समाजवाद का मोह छोड़ना होगा. भारतीय राजनेता व्यवसाय विरोध में गर्व महसूस करते हैं, खास तौर पर यदि वह व्यवसाय विदेश से संबंधित हो तो. उन्हें इस तरह के विरोध का त्याग कर देना चाहिए. याद रहे कि कृषि हमारा सबसे बड़ा निजी क्षेत्र है और किसान एक व्यापारी. अब समय आ गया है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुले तौर पर व्यापार के अनुकूल विकास मॉडल तैयार करें.
उन्हें सूट-बूट का कटाक्ष भूल जाना चाहिए. भारत को ऊंचाई पर ले जाने के लिए पूंजीपतियों का साथ लेना क्रोनी कैपिटलिज्म नहीं है. दरअसल, यही एकमात्र जनहितैषी नीति है.