दंगे सांप्रदायिक पार्टियां नहीं रोक सकतीं, क्योंकि वे तो दंगों पर ही जीवित हैं. दंगों को अगर रोक सकते हैं, तो लोग रोक सकते हैं. असगर व़जाहत की कहानी ज़ख्म का नायक आज भी देश के राजनेताओं को मुंह चिढ़ा रहा है. देश के मिजाज को समझने का दावा करने वाले राजनेताओं की सोच है कि दंगों की उर्वर जमीन पर ही राजनीति की फसल लहलहाती है, लेकिन अब जनता भी दंगों के सियासी खेल को बखूबी समझने लगी है. आइए एक नजर डालते हैं देश के सियासी माहौल पर. देश में बढ़ते सांप्रदायिक दंगों को लेकर विपक्ष लगातार मोदी सरकार पर हमलावर रहा है, लेकिन सत्ता पक्ष इसे आंकड़ों की बाजीगरी बता खारिज करता रहा है. अब गृह मंत्रालय के आंकड़े भी इस बात की गवाही दे रहे हैं…
गृह मंत्रालय ने कुछ दिनों पहले संसद में जानकारी दी कि 2016 में शुरू के पांच महीनों में देश में 278 सांप्रदायिक तनाव व दंगों के मामले दर्ज हुए. इन दंगों में 38 लोगों की मौत हुई, जबकि 903 लोग गंभीर रूप से घायल हुए थे. वहीं 2015 में जनवरी से मई के बीच कुल 287 सांप्रदायिक हिंसा के मामले सामने आए थे, जो 2014 के मुकाबले 24 फीसद ज्यादा थे. 2015 में मई महीने तक दंगों में जान गंवाने वालों की संख्या 43 थी, जो 2014 में केवल 26 थी. 2014 के पांच महीनों का तुलनात्मक अध्ययन इसलिए जरूरी है क्योंकि इस दौरान देश में यूपीए की सरकार थी. आंकड़ों से यह स्पष्ट है कि 2014 के शुरू के पांच महीनों की तुलना में 2015 और 2016 में सांप्रदायिक दंगों की संख्या में वृद्धि हुई है.
अब राज्यों की बात करें तो मई 2016 तक उत्तरप्रदेश में सांप्रदायिक तनाव/ दंगों के सबसे अधिक 61 मामले सामने आए, जबकि इसी दौरान कर्नाटक और महाराष्ट्र में 40-40 सांप्रदायिक दंगे हुए. वहीं साल 2015 में देशभर में 751 सांप्रदायिक तनाव/दंगे हुए, जबकि साल 2014 में केवल 644 मामले दर्ज हुए थे.
मानवाधिकार संगठन एमनेस्टी इंटरनेशनल की रिपोर्ट (2015) में भी देश में सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं में वृद्धि को लेकर एनडीए सरकार को कटघरे में खड़ा किया गया था. रिपोर्ट में कहा गया कि देश की राष्ट्रवादी सरकार, जिसका नेतृत्व नरेंद्र मोदी कर रहे हैं, सांप्रदायिक दंगों को रोकने में असफल रही है. इतना ही नहीं, सत्तारूढ़ पार्टी के विधि नियंताओं व राजनेताओं ने उकसावे वाले भाषण देकर माहौल को तनावपूर्ण बनाया और सांप्रदायिक हिंसा को जायज ठहराने के लिए प्रतिहिंसा जैसे अनूठे तर्क दिए.
एक लोकतांत्रिक देश में चुनाव पर्व के दौरान वोटिंग से जनता अपने मनोनुकूल सरकार का चयन करती है. लेकिन क्या सचमुच ऐसा होता है? किसी राज्य में चुनाव की घोषणा होते ही जनता को सांप्रदायिक दंगा भड़कने की चिंता सताने लगती है. 2014 में उत्तरप्रदेश पुलिस ने रिकॉर्ड किया कि उन इलाकों में या उसके आस-पास सांप्रदायिक तनाव के मामलों में अचानक इजाफा हो गया था, जहां 11 विधानसभा व 1 लोकसभा के उपचुनाव होने थे. उस दौरान राज्य में सांप्रदायिक तनाव के 605 छोटे-बड़े मामले दर्ज किए गए थे, जिसमें दो-तिहाई मामले उन क्षेत्रों से जुड़े थे. सवाल है कि आखिर चुनाव आते ही सांप्रदायिक दंगों में इजाफा क्यों होने लगता है? सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से किन राजनीतिक दलों को फायदा होता है?
जद (यू) सांसद अली अनवर कहते हैं कि कुछ पार्टियां जान-बूझकर वोटों के धु्रवीकरण के लिए चुनाव के समय माहौल बिगाड़ने का काम करती हैं. ऐसे में विकास की बात कहीं पीछे छूट जाती है और उनका एकमात्र सहारा यही होता है कि किसी तरह जनता में धार्मिक उन्माद पैदा हो और लोग गोलबंद होकर पार्टी को वोट दें. हाल में कुछ पार्टियों का प्रयास था कि दलितों को मुसलमानों के खिलाफ खड़ा किया जाए, लेकिन उनका यह प्रयास असफल रहा. गुजरात में पाटीदार आंदोलन को दबाने के लिए भी कुछ इसी तरह का सियासी कुचक्र रचा गया. उन्होंने कहा कि हिंदू राष्ट्रवादी विचारधारा वाली पार्टियां ही नहीं, बल्कि कुछ अल्पसंख्यक प्रेमी पार्टियां भी दंगों की आड़ में वोट बैंक का खेल खेलती हैं. असदुद्दीन ओवैसी जितना मुस्लिमों को अपने उग्र भाषणों से गोलबंद करते हैं, बहुसंख्यक उतने ही हिंदुवादी पार्टियों के साथ खड़े नजर आते हैं. वहीं, जब साक्षी महाराज, साध्वी प्राची जैसे लोग अपने उग्र भाषणों से हिंदुओं को संगठित करने का प्रयास करते हैं, तो अल्पसंख्यक किसी जिताऊ सेक्यूलर पार्टी का हाथ थाम लेते हैं. जनता को सतत् सजग व सतर्क रहने की जरूरत है तभी ऐसी पार्टियों को मुंहतोड़ जवाब दिया जा सकता है. राजनीति का धर्मयुद्ध अब लव जिहाद, घर वापसी, गौ रक्षा में सुरक्षित आसरा ढूंढने लगा है. इन नेताओं से मोह भंग होने पर देश का बहुसंख्यक सेक्युलर तबका चुनाव से किनारा कर लेता है और ऐसे में फायदा होता है कट्टरपंथी ताकतों के रहनुमा बने तथाकथित नेताओं को.
अगर देश में सांप्रदायिक दंगे होने की वजहों पर गौर करें तो आश्चर्य होगा. जुलाई 2013 में मेरठ में दंगों का कारण एक धर्मस्थल पर लाउडस्पीकर का बजाया जाना था. म्यूजिक, धार्मिक जुलूस, गौ हत्या की अफवाह और किसी पवित्र ग्रंथ व मूर्तियों को विखंडित करने पर ही देश में दंगे भड़क उठते हैं. यहां दो परिवारों के बीच तनाव ही दंगा भड़काने के लिए काफी होता है. और अगर भूल से ये परिवार दो अलग धर्मों से हुए तो दंगे की भीषणता का अंदाजा लगाना मुश्किल है.
सांप्रदायिक दंगा विरोधी कानून पर राजनीतिक दल अपनी रोटियां सेंकने में लगे हैं. सांप्रदायिक दंगों और उनकी आक्रामकता में वृद्धि को देखते हुए देश में ऐसे कड़े कानून बनने चाहिए, जिससे लोगों में दंगों में शामिल होने को लेकर खौफ पैदा हो. किसी इलाके में दंगा फैलता है, तो उस क्षेत्र के शीर्ष पुलिस अधिकारियों को इसके लिए जिम्मेदार मान उन पर कड़ी कार्रवाई की जानी चाहिए.
उम्मीद की एक किरण देश की युवा पीढ़ी से है, जिसकी ओर असगर व़जाहत का नायक शुरू में इशारा करता है. अगर देश के जागरूक लोग इन दंगों के खिलाफ उठ खड़े हों, तो एक दंगा-मुक्त, स्वस्थ लोकतांत्रिक माहौल का निर्माण संभव है.