21 वीं सदी के भारत में यह क्या हो रहा है? दुनिया आगे जा रही है और हम 19वीं सदी की ओर लौट रहे हैं. ये कौन लोग हैं, जो गोमांस के नाम पर इंसानों की जान ले रहे हैं? ये कौन लोग हैं, जो यह तय करने पर तुले हैं कि कौन क्या खा सकता है और क्या नहीं? ये कौन लोग हैं, जो गोरक्षा के नाम पर देश में हिंसा फैलाना चाहते हैं? ये कौन लोग हैं, जो गाय को हिंदू-मुस्लिम में बांटकर देश में भय और आतंक का माहौल पैदा कर रहे हैं? दरअसल, गाय को धार्मिक मुद्दा बनाकर हिंदू-मुस्लिम में बांटना एक साज़िश है. यह हिंदुओं और मुसलमानों को आपस में लड़ाने की साज़िश है.
इसे शैतानी साज़िश कहना चाहिए. शैतानी साज़िश इसलिए, क्योंकि यह इंसानियत के खिला़फ है, क़ानून के खिला़फ है, धर्म के खिला़फ है. इस मुद्दे पर देश की सरकार, राजनीतिक दलों और सिविल सोसायटी को आगे आना होगा तथा कड़ी से कड़ी कार्रवाई करनी होगी. पहले दादरी, फिर उत्तर प्रदेश के विभिन्न इलाकों और उसके बाद दिल्ली स्थित केरल भवन से शर्मनाक खबरें आईं.
गाय के नाम पर सांप्रदायिकता को हवा दी जा रही है. इसे अविलंब रोकना होगा, वरना देश में घृणा और हिंसा का ऐसा दौर शुरू हो जाएगा, जिसे रोकना नामुमकिन होगा. केंद्र सरकार इस मामले में चुप्पी साधकर या गोलमटोल जवाब देकर अपने दायित्व से पीछे हट रही है. उसे देश में घृणा और हिंसा फैलाने वाले असामाजिक तत्वों से सख्ती से निपटना होगा.
समझने वाली बात यह है कि गाय कोई धार्मिक मुद्दा नहीं है, बल्कि उसे धार्मिक मुद्दा बना दिया गया है. गाय का रिश्ता देश की आर्थिक व्यवस्था से है. गाय को भारत में हम माता कहते हैं, उसकी पूजा करते हैं. ऐसा इसलिए, क्योंकि वह जीवनदायिनी है. कारण धार्मिक नहीं, बल्कि आर्थिक है. भारत आज भी गांव प्रधान देश है. ग्रामीण इलाकों के आर्थिक क्रियाकलाप आज भी गोवंश पर केंद्रित हैं. ज़िंदगी का ऐसा कोई भी पहलू नहीं है, जो गोवंश से अछूता हो. हज़ारों सालों से गाय लोगों को अपने दूध से पालती रही है. यही वजह है कि उसे मां का दर्जा दिया जाता है.
गाय का जितना महत्व हिंदुओं के जीवन में है, उतना ही महत्व मुस्लिम एवं दूसरे धर्म के लोगों के जीवन में है. लेकिन, आज भारत में धार्मिक भावनाएं भड़काने वाली राजनीति उफान पर है. गाय को हिंदू-मुस्लिम के बीच बांट दिया गया. यह साबित करने की कोशिश की जा रही है कि मुसलमान गाय के भक्षक हैं और हिंदू गाय के रक्षक. जबकि सच्चाई इससे बिल्कुल अलग है. देश में गायों की तस्करी करने वाले, गायों को मारने वाले, गायों पर अत्याचार करने वाले और गायों के नाम पर घोटाला करने वाले लोग मुसलमान नहीं हैं, बल्कि ज़्यादातर हिंदू हैं. गोमांस निर्यात करने वाली
बड़ी-बड़ी कंपनियों के मालिक भी ग़ैर-मुस्लिम हैं.
यह मुद्दा देश के लोगों के भविष्य से जुड़ा है, लेकिन इसे हिंदू-मुस्लिम का मुद्दा बना दिया गया. सरकार और राजनीतिक दलों ने कभी इस मुद्दे पर गंभीरता से विचार नहीं किया. यही वजह है कि जब भी गाय की बात होती है, तो मामला यहां अटक जाता है कि गोमांस की बिक्री पर पाबंदी हो या न हो. मीडिया भी इस विवाद में क़दमताल करता है. पूरा मामला यहां आकर रुक जाता है कि क्या प्रजातंत्र में इच्छा के मुताबिक खाने का अधिकार है या नहीं? यही देश का दुर्भाग्य है.
एक अनुमान के मुताबिक, भारत में 150 मिलियन गायें हैं. भारत में एक गाय साल भर में औसतन 200 लीटर दूध देती है. इसकी वजह यह है कि भारत में गायों का
भरण-पोषण सही तरीके से नहीं होता. इजरायल में एक गाय साल में औसतन 11 हज़ार लीटर दूध देती है. हम अगर ऐसा करने में सफल हो जाते हैं, तो देश में दूध की नदियां बहेंगी ही, साथ ही हम पूरी दुनिया में दूध और उसके उत्पाद निर्यात करने वाले देशों में अव्वल बन जाएंगे. स़िर्फ दूध ही नहीं, बल्कि चर्म उद्योग का विकास होगा, लोगों को रा़ेजगार मिलेगा और हमारा विदेशी मुद्रा भंडार भी समृद्ध हो जाएगा.
लेकिन, क्या गोरक्षकों ने इस पहलू पर कभी ध्यान दिया? नहीं. क्या उन्होंने कभी इस बात के लिए आंदोलन किया कि देश में नकली दूध और नकली घी क्यों बेचा जाता है? गोरक्षक सेना को यह छोटी-सी बात समझ में नहीं आती कि गायों की रक्षा इंसानों को मारने से नहीं होगी, बल्कि ज़्यादा से ज़्यादा गायों को पालने और उनकी सेवा करने से होगी. जिस देश में छोटे-छोटे बच्चों को यूरिया से बना दूध पिलाया जाता हो, वहां गोरक्षा के नाम पर हिंसा करना मूर्खता के अलावा कुछ नहीं है. गाय के नाम पर हिंसा भड़काने वालों को गाय की चिंता नहीं है, उनकी नज़र राजनीतिक फायदे-ऩुकसान पर ज़्यादा है.
पूरी दुनिया में भारत की सड़कों पर यातायात बाधित करने वाली गायों की चर्चा होती है. भारत के हर शहर में गायें सड़कों पर भटकती रहती हैं, उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं होता. दिल्ली का उदाहरण ले लीजिए. यहां क़रीब डेढ़ करोड़ की आबादी है और क़रीब 40 हज़ार गायें सड़कों पर घूमती नज़र आती हैं.
यातायात बाधित करने के अलावा वे सड़कों पर पड़े कूड़े-कचरे और पॉलीथिन बैग्स को अपना आहार बनाती हैं, नतीजतन बीमार हो जाती हैं और फिर काल का ग्रास बन जाती हैं. गोरक्षा का दंभ भरने वालों की नज़र उन पर क्यों नहीं जाती?
बाबा रामदेव अक्सर कहते हैं कि गाय को बचाना भारत को बचाना है. गांधी जी भी यही बात कहते थे. यह बात बिल्कुल सही है, लेकिन बचाने का मतलब क्या है? किससे बचाना है, इससे समझना बहुत ज़रूरी है. गाय भारत की जीवनशैली का अभिन्न अंग है. उसे बचाने की अपील इसलिए होती रही, क्योंकि लोगों ने गाय पालना बंद कर दिया था. जनसंख्या में वृद्धि के अनुपात में गायों की संख्या नहीं बढ़ी. ग्रामीण भारत कुपोषण की चपेट में आ गया. नतीजा यह हुआ कि आज देश में दूध के नाम पर केमिकल बेचा जा रहा है.
गो-वध करने वालों, बीफ बेचने वालों और खाने वालों की पिटाई या हत्या से यह समस्या ़खत्म नहीं होगी. इस समस्या का हल ज़्यादा से ज़्यादा गाय पालने से निकलेगा. समझने वाली बात यह भी है कि जो खुद को गोरक्षक-कार्यकर्ता मानने वाले लोग हैं, उनमें से ज़्यादातर गाय नहीं पालते, गाय के गोबर से परहेज करते हैं और गोमूत्र को दूषित मानते हैं. गोरक्षा का सही मतलब देश में ज़्यादा से ज़्यादा गायों का होना है.
इसलिए नहीं कि ऐसा किसी धार्मिक ग्रंथ में लिखा है, बल्कि इसलिए, क्योंकि गाय भारतीय जीवन के हर पहलू को छूती है. भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था के केंद्र में गोवंश रहा है. कृषि से लेकर उद्योग तक गाय की उपयोगिता है. चाहे पुरातन काल में वेद हों या आधुनिक भारत में गांधी जी, सभी ने गाय को धन माना है यानी अर्थव्यवस्था का हिस्सा. यही वजह है कि गाय को कामधेनु कहा गया. कामधेनु का मतलब, इच्छाओं की पूर्ति करने वाली.
पुरातन काल से गाय के दूध, गोबर, गोमूत्र, खाल एवं हड्डियों का इस्तेमाल होता रहा है. यह वह वक्त था, जब मुद्रा (करेंसी) का प्रचलन नहीं था. आज जब सब कुछ करेंसी में होता है, तब भी गाय को कामधेनु की प्रतिष्ठा हासिल हो सकती है. ऐसा गुजरात में लोगों ने दूध की श्वेत क्रांति लाकर साबित किया है. लेकिन, ये सारी बातें गोरक्षक होने का दंभ भरने वालों को समझ में नहीं आतीं, क्योंकि उनकी आंखों पर घृणा रूपी पट्टी बंधी है.
गांधी जी हमेशा कहते थे कि ग्रामीण भारत के आर्थिक ताने-बाने के केंद्र में गाय है. उसे न स़िर्फ बचाना है, बल्कि ज़्यादा से ज़्यादा संख्या में लोग गाय पालें, यह सुनिश्चित करना है. भारत के गांवों की सच्चाई यह है कि क़रीब 90 फीसद परिवारों के पास इतनी ज़मीन नहीं है, जिससे उनका जीवनयापन हो सके. इन ग़रीब परिवारों में 43 फीसद ऐसे हैं, जो भूमिहीन मज़दूर हैं और जीवनयापन के लिए दूसरे के खेतों में मज़दूरी करते हैं या फिर शहर पलायन कर जाते हैं. पलायन करने वाले ज़्यादातर ग्रामीण कुशल नहीं हैं, इसलिए शहरों में भी मज़दूरी करने के अलावा उनके पास कोई चारा नहीं है.
वे घर-परिवार से दूर नारकीय जीवन जीने को मजबूर हैं. ऐसे लोगों का जीवन गो-पालन के ज़रिये बदला जा सकता है. गाय अपने आप में उद्योग का एक केंद्र है. गाय के दूध से गुजरात के ग्रामीण इलाकों की तस्वीर बदल गई. क्या सरकार दूसरे राज्यों में यह मॉडल नहीं अपना सकती? इससे गांवों में न स़िर्फ नकद राशि का संचार होगा, बल्कि लाखों लोगों को रा़ेजगार भी मिलेगा.
दूसरी बात यह कि गाय स़िर्फ दूध नहीं देती, वह गोबर भी देती है, जिसका इस्तेमाल खाद और गोबर-गैस तैयार करने में होता है. गोबर-गैस घरेलू ईंधन का काम करती है. भारत में बड़ी मात्रा में गोबर बर्बाद हो जाता है. राजस्थान के नवलगढ़ में जैविक खेती करने वाले किसानों ने एक मिसाल पेश की है, जिस पर पूरे देश में अमल होना चाहिए. यहां जैविक खेती करने वाले किसानों की कमाई के केंद्र में गाय है.
गाय के गोबर से वे खाद तैयार करते हैं और गोबर-गैस का इस्तेमाल घरेलू ईंधन के रूप में करते हैं. उन्हें न तो कभी बाज़ार से केमिकल खरीदना पड़ता है और न भोजन तैयार करने के लिए लकड़ियां खरीदने की ज़रूरत पड़ती है. मतलब यह कि खेती में लागत कम लगती है, ईंधन का पैसा बचता है और गाय का दूध बेचने से जो पैसा मिलता है, वह सीधा मुना़फा है.
नवलगढ़ के किसान न स़िर्फ कई तरह की बचत करते हैं, बल्कि पर्यावरण की रक्षा में भी योगदान देते हैं. यह फायदा तो कोई भी उठा सकता है, हर धर्म के लोग इसे अपना सकते हैं. इसके अलावा भारत का चर्म उद्योग दो बिलियन यूएस डॉलर का है. देश में 4,000 टेनरियां हैं, जो गाय की खाल पर निर्भर हैं. ज़्यादा गायों का मतलब चर्म उद्योग का विकास है.
फिलहाल जो स्थितियां हैं, उनमें चर्म उद्योग की हालत बद से बदतर होती जा रही है. टेनरियों का आधुनिकीकरण नहीं हो पाया है, इसलिए यह उद्योग वातावरण को प्रदूषित करने में अव्वल है. इस उद्योग में निवेश की कमी है, इसलिए यह भारत में थम-सा गया है. सरकार अगर गायों की संख्या बढ़ाने के लिए कोई नीति बनाना चाहती है, तो देश के तथाकथित गोरक्षकों को भी इसे हिंदू-मुस्लिम चश्मे से बाहर निकल कर देखना चाहिए.
गायों की संख्या बढ़ने से अकेले चर्म उद्योग में लाखों लोगों को रा़ेजगार मिल सकता है. भारत में इस बात की संभावना प्रबल है कि हर राज्य ज़रूरत से ज़्यादा दूध का उत्पादन कर सकता है. इससे हम दुग्ध उत्पाद उद्योग यानी मिल्क प्रोडक्ट इंडस्ट्री की ओर क़दम बढ़ा सकते हैं. करने को तो बहुत कुछ किया जा सकता है, लेकिन गो-रक्षकों की जमात गाय से जुड़े मामलों को सांप्रदायिक रंग देने में कामयाब हो गई है. उसकी शैतानी साज़िश के सामने सर्वशक्तिमान सरकार भी घुटने टेक चुकी है.
यही वजह है कि गाय से हर जुड़ी हर बात दिशाविहीन-अर्थहीन हो गई. इससे बड़ी मूर्खतापूर्ण बात भला क्या हो सकती है कि जो मामला अर्थव्यवस्था यानी इकोनॉमी का है, उसे हमने धार्मिक रंग दे दिया. इन तथाकथित गोरक्षकों को अगर कामधेनु के ़फायदों का जरा भी ज्ञान होता और राजनीतिक दलों ने गाय पर राजनीति न की होती, तो अब तक देश की दिशा और दशा बदल गई होती.
गाय किसी धर्म की बपौती नहीं है, हर धर्म के लोग उसे पालते हैं. सभी जातियों-धर्मों के लोगों को गाय से समान लगाव है, क्योंकि गाय जाति-धर्म के नाम पर किसी के साथ पक्षपात नहीं करती. संख्या के लिहाज से गाय पालने वाले ज़्यादातर हिंदू हैं. गायों को खेतों एवं जंगलों में चरने के लिए छोड़ दिया जाता है. चारे की उचित व्यवस्था न होने के कारण उनमें दूध देने की क्षमता धीरे-धीरे घट रही है. इसके अलावा वह बच्चे को जन्म देने के बाद छह-सात महीने तक ही दूध देती है. इसका असर यह हुआ कि लोगों ने गाय छोड़कर बकरी पालना शुरू कर दिया.
बकरी पालने का फायदा यह है कि लोग उसे आसानी से बाज़ार में बेच लेते हैं, लेकिन गाय को लेकर देश में इतना भावनात्मक माहौल बना दिया गया है, जिसकी वजह से उसे बेचना मुश्किल हो जाता है. यहीं से गाय की तस्करी का खेल शुरू होता है. गाय को गांव से बूचड़खाने तक पहुंचाने का काम एक ग़ैर-क़ानूनी नेटवर्क अंजाम देता है. हैरानी की बात यह है कि ऐसा पूरा नेटवर्क हिंदू ही चलाते हैं. गाय को गांव से उठाने वालों से लेकर बूचड़खाने चलाने वालों तक ज़्यादातर हिंदू हैं.
समस्या यह है कि गाय को सरकार ने कभी आर्थिक नज़रिये से नहीं देखा. जब भी गाय का मुद्दा उठा, उसे गो-वध पर प्रतिबंध लगाकर या उठाकर ़खत्म कर दिया गया. लेकिन, अब वक्त आ गया है कि मोदी सरकार गाय को लेकर एक समग्र नीति बनाए. गाय को धार्मिक चश्मे से देखने के बजाय अर्थव्यवस्था से जोड़ने की ज़रूरत है. गाय के नाम पर हिंदुओं और मुसलमानों को आपस में लड़ाने के बजाय ज़्यादा से ज़्यादा गाय पालने के लिए सरकारी मदद देने की ज़रूरत है, ताकि दोनों संप्रदायों के ग़रीब तबके लाभांवित हो सकें.
इससे देश के गांवों में संवहनीय विकास (सस्टेनेबल डेवलपमेंट) का मॉडल विकसित होगा, पर्यावरण का संरक्षण होगा, लोगों की आमदनी बढ़ेगी और युवाओं को रा़ेजगार मिलेगा. अगर सरकार इन सुझावों पर अमल करती है या फिर गाय को केंद्र में रखकर कोई योजना बनाती है, तो गाय सदैव के लिए पूजी भी जाएगी और गांवों का आर्थिक विकास भी तेजी से होगा.
मोदी सरकार अगर ग्रामीणों एवं वनवासियों को रा़ेजगार मुहैय्या कराने की इच्छुक है, तो उसे गो-वध के नाम पर घृणा फैलाने वालों के खिला़फ सख्त कार्रवाई करनी होगी. ऐसे तत्वों का दिमाग़ दुरुस्त करना ज़रूरी है, ताकि वे समझ सकें कि गो-रक्षा का मतलब गो-वध के खिला़फ हिंसा करने के बजाय गो-पालन को बढ़ावा देना है. गांवों को गो-केंद्रित योजनाओं से जोड़ना होगा.
नदियों एवं जलाशयों के किनारे बसे गांवों में गो-पालन को प्रोत्साहन देना होगा और इलाकाई स्कूलों-कॉलेजों में पढ़ रहे युवाओं को उससे जोड़ना होगा. ग्रामीणों एवं वनवासियों को गो-पालन के ज़रिये बाज़ार से जोड़ा जा सकता है. इससे देश के भूमिहीन किसानों, मज़दूरों, पिछड़ों एवं दलितों को फायदा होगा. इससे न स़िर्फ कुपोषण की समस्या खत्म होगी, बल्कि गोबर-गैस और गोबर-खाद के इस्तेमाल के ज़रिये पर्यावरण की रक्षा भी संभव हो सकेगी. प
गोवंश का मतलब क्या है
गोवंश में गाय, भैंस, बैल, सांड और बछड़ा आदि पशु आते हैं. भारत में वैदिक काल से ही गाय का महत्व है. आरंभ में आदान-प्रदान एवं विनिमय आदि के माध्यम के रूप में गाय का उपयोग होता था और मनुष्य की समृद्धि उसकी गो-संख्या से आंकी जाती थी. हिंदू धार्मिक दृष्टि से भी गाय पवित्र मानी जाती रही है और उसकी हत्या को पाप करार दिया जाता है. अगर भारत में गोवंश की बात करें, तो यहां 25 गौ प्रजातियां हैं. भारत में हर राज्य में गोवंश की अलग प्रजाति पाई जाती है. वैश्विक संदर्भ में देखें, तो बीफ शब्द का इस्तेमाल गाय, भैंस, बैल, सांड के मांस को परिभाषित करने के लिए किया जाता है.