इन दिनों घर में हूं. मेरा घर यानी रीवा से सटा हुआ, 18 किलोमीटर शहडोल कटनी रोड पर एक खूबसूरत कस्बा गोविंदगढ़। जो आम, तालाब और ऐसी बहुत सी चीजों के लिए प्रसिद्ध है। इन दिनों 10 किलोमीटर दूर पर ही टाइगर रिजर्व बना दिया गया है, जो काफी चर्चित है।

खैर मैं अपने कस्बे की प्रशंसा नहीं कर रही ,हूं उसका उद्देश्य कतई नहीं है।

अभी मजबूरी में आना पड़ा। नियति ने हमारे किसी प्रिय को छीन लिया और आत्मीय, माननीय और सामाजिक तीनों जरूरतों ने आने की जरूरत को पुख्ता किया। दूसरे के घर में सभी डरे हुए थे महानगर के कोहराम से और बराबर घर आने का जोर भी दे रहे थे।

दरअसल बात यह है यहां आने के बाद पता चला- चारों तरफ संक्रमण फैला हुआ है। हर कोई बुखार जुकाम और खांसी से पीड़ित है। सभी लोग कोविड-19 का डोज ले रहे हैं। जो भी थोड़ी बहुत अवेलेबल है डॉक्टर की सलाह से, वरना मेडिकल स्टोर वाले और एमआर ही इन दिनों फिजीशियन की भूमिका निभा रहे हैं।

कोई भी टेस्ट नहीं करवा रहा क्योंकि टेस्ट की सुविधाएं उपलब्ध नहीं है। हर घर के 4 लोगों में से 2 लोग बिस्तर पर हैं। लोग मास्क लगाने का उपक्रम कर रहे हैं लेकिन जैसा कि छोटी जगह है, बहुत ज्यादा तामझाम करने में भी घबराते और दूसरे ना घबराए- इस वजह से भी सामान्य बने रहने की कोशिश करते हैं।

एक बात और है कि लोग बीमारी से तो डर ही रहे हैं बीमारी के नाम से ज्यादा डर रहे हैं। टेस्ट कराने की कोताही की सबसे बड़ी वजह इस बात का प्रमाणित हो जाना कि फलां व्यक्ति को कोविड-19 हो गया है। यह घोषणा उन्हें अधिक डरा रही है। यूं कि देखा जाए तो केवल इस घोषणा के अभाव में यह चैन निरंतर बनी होती जा रही है। जिन गांवों कस्बों में इस जागरूकता के अभाव में लोगों की मृत्यु हुई, वहां परंपराएं पूरी करने के फेर में लोग इकट्ठे होते रहे। कर्मकांड में जुटे रहे और बीमारियां बढ़ती गई। वह चैन जिसके ब्रेक करने की सबसे ज्यादा जरूरत थी, वह इतनी बड़ी हो गई कि हर घर में पहुंच चुकी है और किसी भी घर में किसी को छोड़ने वाली नहीं है।

मेरे साथ भी यही हुआ। मैं भी संक्रमण की चपेट में आ गई। चूंकि मैं अपने साथ ही दवाइयां ले आई थी इसलिए बुखार का अहसास होते ही दवाइयां शुरू कर दी। डॉक्टर से भी बात कर रही हूं। 3 दिन के बाद बुखार उतरा है। चौथे दिन फिर आ गया। थोड़ी चिंता बढ़ी सबकी और किसी तरह प्रबंध करके टेस्ट करवाया गया। पॉजिटिव निकला। अब मेडिकेशन- आइसोलेशन जा रही है। हालत भी सुधर रही है। वीकनेस अभी हावी है और हल्की-फुल्की खांसी भी है। अपने परिचित डॉक्टरों से फोन पर ही सलाह लेकर आगे इलाज कर रही हूं

खैर हम बात आसपास के माहौल की कर रहे, जहां की खबरें मीडिया में नहीं होती। और खबरें नहीं होती तो एक परसेप्शन यह भी बनता है कि- “सब कुछ ठीक है।” तो यहाँ एक संतोषजनक सी बात है या हम तथ्यों का सर्वे अच्छे से नहीं कर पा रहे लेकिन मैं आसपास के 200-300 लोगों के बीच में जो देख रही हूं, उस आधार पर कह रही हूं कि अभी संक्रमण से मौतें शहरों के अनुपात में काफी कम हो रही हैं । छह-सात दिन में सभी ठीक हो रहे हैं। कमजोरी से उबरने में 10 से 15 दिन लग रहे हैं।

चलो यह तो संतोषजनक है कि लोग ठीक हो रहे हैं। कारण- शायद यहां लोगों की इम्यूनिटी स्ट्रांग है, महानगरों के लोगों की बजाय। शायद यहां घर के भीतर और घरों के बीच का डिफरेंस बहुत लंबा चौड़ा है जिस वजह से संक्रमण उतना प्रभावी नहीं है।

इस सब के लिए जिम्मेदार सिस्टम की बात करना इस समय सबसे ज्यादा जरूरी है। लेकिन वह सिस्टम कहां है?
यूं तो वह महानगरों में भी नहीं है लेकिन वहां अस्पताल हैं, सैकडो निजी अस्पताल भी हैं कई सैकडे लैब टेस्ट में लगे हुए हैं। सिफारिश और पैसे केबल पर कुछ हद तक (हालांकि पैसे वाले भी मर रहे हैं और सिफारिश वाले भी) ऑक्सीजन अवेलेबल हो जाती है। पास में ही कोई न कोई ऑक्सीजन फैक्ट्रियां हैं। कुल जमा की कुछ सुविधाएं हैं जिन्हें व्यक्ति पैसे से खरीदने की कोशिश करता है।

एक और बात कि जब सरकार के पास अस्पताल है, न दवाइयां है, डॉक्टर है, न पैरामेडिकल स्टाफ। अभी भी 3 से 5 दिन में टेस्टिंग रिपोर्ट आ रही है ( वह माने या ना माने। उसके चेहरे पर से घुंघट उठ चुका है) तब उसने पुलिस वालों को इस्ट्रिक्ट रूल रेगुलेशन के साथ काम पर लगा दिया है। लॉक डाउन का पालन करवाते पुलिस वाले जैसा कि मैं आसपास देख रही हूं, लोगों की बात ही सुनने के लिए तैयार नहीं हो रहे। कोई बीमार है तो उन्हें सर्टिफिकेट चाहिए, तभी वह उसे शहर की तरफ जाने दे रहे हैं। लोग इस वजह से भी दुबके हुए बीमार अपने घरों में बैठे हैं और टेस्टिंग तक के लिए जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे। यहां पुलिस को दोष नहीं दिया जा रहा,बल्कि उस पूरे सिस्टम को, जिसने पुलिस का काम केवल डंडा चलाना ही बना रखा है

लेकिन जिला स्तर पर, कस्बों और गांवों में जो महानगरों से दूर हैं, उन जिलों के आसपास लोग अपनी मौत मरने और भगवान भरोसे वाले जीवन जीने के लिए मजबूर हैं।

मौत के खुले तांडव के बावजूद लोगों की राजभक्ति में बहुत बड़ा फर्क नहीं आ रहा। लोगों को एक कृतिम नायक चाहिए जिसे वे जल्दी से 33 करोड़ देवी देवताओं के साथ ही खड़ा कर देते हैं। बल्कि देवी देवताओं से अलग पंक्ति में, 3 देवों के बगल में ही, वह कोई अवतार होता है- ब्रह्मा, विष्णु, महेश जैसा। और वे उस अवतार के खिलाफ कभी नहीं होते हैं।
लोगों को शिक्षा नहीं चाहिए। स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं चाहिए। रोजगार भी नहीं चाहिए। लोगों को धर्म चाहिए, ईश्वर चाहिए। बहुत क्षोभ के साथ कहना पड़ रहा है लेकिन यदि ऐसा नहीं होता तो देश के तमाम कुओं- नदियों में जिस भांग के गोले को पिछले दो दशकों में घोला गया, वैसा होना संभव नहीं होता। उसका असर देश की आबादी के एक बड़े हिस्से पर स्थाई सा हो गया है। उन्हें धर्म चाहिए और धर्म एक विशेष पार्टी के ठेकेदार के साथ हो गया है।

यूं कहने के लिए हम लोकतंत्र में हैं। इस लोकतंत्र का रखवाला होता है, राजा नहीं। सेवक होता है, स्वामी नहीं। लेकिन असल प्रयोग में वह राजा ही है, स्वामी ही है और उसकी आज्ञा के खिलाफ, उसकी महिमा के खिलाफ और उसके किए गए कामों के खिलाफ आवाज उठाने को आमजन अपराधी मानता आ रहा है। शायद यह बात आज के नायक को, उस फर्जी नायक को पता है। इसी वजह से वह लोगों के पीने के बचे कुचे पानी में भी भांग की गोलियां धीरे-धीरे घोलता रहता है। उसे ऑक्सीजन मिलती रहती है और लोगों को आगे तिल तिल मरने के लिए जहर।

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