अपराध न्यायशास्त्र में मुकदमों पर फैसले देने में सतर्कता तो अपेक्षाकृत ज्यादा होती है लेकिन निर्णय तक पहुँचने की प्रक्रिया लगभग तयशुदा होती है — हर सन्देह परे प्रमाण(प्रूफ बियोंड डाउट). अगर वह नहीं है तो आरोपी दोषमुक्त. लेकिन सिविल वादों में न्यायशास्त्र एक अलग सिद्धांत अपनाता है —- संभाव्यताओं का आधिक्य (प्रिपोंडरेंस ऑफ़ प्रोबेबिलिटीज).. लिहाज़ा जजों को गहराई से इन संभाव्यताओं की जांच करना जरूरी होता है. अयोध्या में विवादित-स्थल किसकी सम्पत्ति है, का वाद, दुनिया का शायद सबसे दुरूह मामला था. इसमें इतिहास, वर्तमान और भविष्य सब कारक थे. विज्ञान, धर्म, ६०० साल पहले की मान्यताएं, शासन में धर्म की भूमिका और तत्कालीन मूल्यों को आधुनिक-लोकतान्त्रिक-वैज्ञानिक सोच से उपजी वैधानिकता के तराजू पर नापना शायद मानव-मष्तिष्क के लिए एक बेहद गंभीर चुनौती थी.
हाल के दौर में तर्क-शास्त्र में एक नया दोष/भ्रम पनपा है जिसके तहत हम वर्तमान वैल्यू-सिस्टम को ऐतिहासिक घटनाओं पर चस्पा कर उनकी वैधानिकता जानना चाहते हैं. और जब वह घटना उन मान्यताओं पर खरी नहीं उतरती तो उसे गलत करार दे उसे “ठीक” करना चाहते हैं. इसे अंग्रेज़ी में “ प्रेजेंटिज्म बनाम हिस्टोरिसिज्म” के नाम से जाना जाता है. जजों के सामने यह संकट था कि युद्ध में विजयी एक बाहरी आक्रान्ता अगर ६०० साल पहले धर्मान्धता के तहत किसी स्थानीय धर्मस्थल को ध्वस्त कर उस पर अपने “धर्मानुसार” कोई ईमारत तामीर करे तो क्या वर्तमान में उसे “ठीक” किया जा सकता है? फिर राजशाही, विदेशी शासन और प्रजातंत्र तक की यात्रा के दौरान कौन सा समूह कितनी ताकत से दस्तावेजों में क्या-क्या हेराफेरी करवा सकता है यह जजों के लिए तय करना एक और दुरूह कार्य था. फिर विज्ञान का समावेश कर यह भी तय करना था कि इमारत के अवशेष क्या कहते हैं. उसकी खुदाई में मिले तत्व किस ओर इशारा करते हैं. जरा सोचिये, इतनी सारी संभाव्यताओं के बीच जजों के लिए यह भी सोचना था कि इस फैसले पर न केवल १३९ करोड़ लोगों की बल्कि पूरे विश्व की नज़र है और दो धर्मों के लोगों में मुद्दे को लेकर अजीब सा उन्माद है. फिर सामान्य मानव स्वभाव है कि वह सोचता है कि उसे भावी इतिहास में कैसे देखा जाएगा इस फैसले को लेकर. फिर जिन्दगी के उत्तरार्ध में हर व्यक्ति अपने इहलोक के साथ हीं परलोक भी देखता है.
लेकिन अद्भुद थे ये पांच जज. इतने सारे भ्रम-द्वंद, वैचारिक जटिलतायें और दार्शनिक बाध्यताएं इन पर तारी नहीं हो सकीं. वर्तमान तो छोडिये भावी पीढ़ियों को शायद विश्वास भी नहीं होगा कि यह फैसला सर्वसम्मति से हुआ। कुल ९२९ पृष्ठ के इस फासले के लिखने वाले (लों) जजों का नाम नहीं था, और परम्परा तोड़ते हुए ११६ पृष्ठ के संलग्नक पर भी रचयिता गायब. उद्देश्य था किसने क्या सोचा , क्या फैसला दिया , कैसे उस फैसले पर पहुंचा यह न पता चले और केवल दुनिया यह जाने कि फैसला सभी पांच जजों की सहमति से था. गालिबन, वे इहलोक में यश/अपयश की चिंता से मुक्त हो चुके थे और और यह भी मान चुके थे कि परलोक का नियंता भी शुद्ध अन्तःकरण से सत्य का साथ देने वाले को हीं अपनाता है।
यहीं पर इस पुस्तक की लेखिका माला दीक्षित के प्रयास की सार्थकता आती है. एक जजमेंट को तो जजमेंट पढ़ कर समझा जाता है लेकिन उस फैसले पर जज पहुंचे कैसे यह जानना, और खासकर इस केस में, हर जिज्ञासु की उत्कंठा होगी. कैसे जज अपनी सवालों से पक्ष-विपक्ष के वकीलों की दलील से सत्य हासिल कर रहे हैं यह इस पुस्तक से पता चलता है. मंदिर के पक्ष के वकील स्कन्दपुराण, वाल्मीकि रामायण और अथर्ववेद का उदहारण दे रहे थे तो एक जज ने कहा “आप जिन धर्मग्रंथों का हवाला दे रहे हैं वे आस्था और विश्वास के बारे में हैं. आप तथ्यपरक साक्ष्य पेश करें”. फिर उसी जज ने मस्जिद के पक्ष में खड़े एक वकील के बार-बार कुछ इतिहासकारों की उस रिपोर्ट का जिक्र किया जिसमें कहा गया था कि मंदिर तोड़ कर मस्जिद बनाने के कोई साक्ष्य नहीं हैं तो इस पर उसी जज ने उन्हें याद दिलाया कि उस समय तक एएसआई की रिपोर्ट नहीं आयी थी और यह भी कि इतिहासकारों की वह राय थी न कि अधिकारिक शोध.
जजों के सवाल, उनका बहस के बीच में टोकना और उनके बहस की धारा को केंद्रित रखना इस पुस्तक का गहना है. पाठकों को यह समझ में आयेगा कि क्यों देश की सबसे बड़ी अदालत को अपने फैसले में दो बार संविधान के अनुच्छेद १४२ में दी गयी अपनी शक्ति को इस्तेमाल करना पडा. एक बार — जमीन को केंद्र द्वारा बनाये गए ट्रस्ट को सौंपने के लिए और दूसरी बार तब जब निर्मोही अखाड़ा के दावे को तो कोर्ट ने ख़ारिज कर दिया लेकिन मंदिर निर्माण के उद्देश्य बनायी जाने वाली इस संस्था में उचित स्थान देने का केंद्र सरकार को आदेश दे कर. यह स्थिति तब आती है जब जजों को अपने तर्क-वाक्य की ताकत से परे जाना होता है फैसले को मुकम्मल करवाने के लिए. इस पुस्तक को पढ़ने के बाद जजों में उस स्थिति तक पहुँचने का अद्भुद प्रोफेशनल कौशल नज़र आयेगा. यह पुस्तक वर्तमान और भावी शोधकर्ताओं, कानून के जिज्ञासुओं, पत्रकारों और हर विवेकशील व्यक्ति के लिए एक अनूठा “गिफ्ट” है.
एन के सिंह
पूर्व महासचिव
ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन