भले ही कुछ लोग इसे ‘अभिव्यक्ति की स्वंतत्रता’ मानें, लेकिन हाल में ऐसी याचिकाओं को खारिज कर और याचिकर्ताओं को फटकार लगाकर अदालतों ने कड़ा संदेश दिया है कि कोर्ट का वक्त कीमती है। उसे ऐसी निरर्थक अथवा किसी खास उद्देश्य से प्रेरित जनहित याचिकाओं की सुनवाई में बर्बाद नहीं किया जा सकता। पहला मामला अपने देश की सर्वोच्च अदालत का है तो दूसरे मामला यूके ( यूनाइटेड किंगडम) की एक कोर्ट का है। दोनो मामलों में अदालत का रूख एकदम साफ है कि कोर्ट इंसाफ के लिए है, इंसाफ के नाम पर बकवास सुनने के लिए नहीं है।
इससे भी महत्वपूर्ण सु्प्रीम कोर्ट का यह ताजा निर्णय है कि सरकार के खिलाफ बोलने का अर्थ ‘राजद्रोह’ नहीं है।
पहले सुप्रीम कोर्ट की बात। कोर्ट ने उस जनहित याचिका, जिसमें जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूख अब्दुल्ला के बयान कि जम्मू कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 को बहाल किया जाए, आरोप लगाया गया था कि फारूख चीन को कश्मीर ‘सौंपने’ की कोशिश कर रहे हैं, इसलिए उन पर राजद्रोह का मुकदमा कायम किया जाना चाहिए, को खारिज कर दिया। न सिर्फ खारिज किया बल्कि याचिकाकर्ता रजत शर्मा और डॉ. नेह श्रीवास्तव पर 50 हजार रू. का जुर्माना भी लगाया।
जस्टिस संजय किशन कौल और जस्टिस हेमंत गुप्ता की पीठ ने अपने फैसले में कहा कि सरकार की राय से भिन्न विचारों की अभिव्यक्ति को राजद्रोह नहीं कहा जा सकता।’ याचिकाकर्ता ने फारूख के अनुच्छेद 370 की बहाली सम्बन्धी बयान का हवाला देते हुए दलील दी थी कि यह स्पष्ट रूप से राजद्रोह की कार्रवाई है। इसलिए भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 124-ए के तहत उन्हें दंडित किया जा सकता है। याचिका में आरोप लगाया गया था कि चूंकि जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री कश्मीर चीन को ‘सौंपने’ की कोशिश कर रहे हैं, इसलिए उनके खिलाफ राजद्रोह का मुकदमा चलाया जाए।
अपनी दलील के पक्ष में याचिकर्ताओं ने भाजपा प्रवक्ता डाॅ. संबित पात्रा के बयानों का हवाला भी दिया, जिसमे उन्हें राष्ट्रविरोधी बताया गया था। कोर्ट ने माना कि अनुच्छेद 370 पर फारूख अपनी अलग राय रख सकते हैं, पूरा देश उससे इत्तफाक रखे, यह जरूरी नहीं है। लेकिन ऐसी राय रखना देशद्रोह तो नहीं है। इसके पहले सुप्रीम कोर्ट ‘टूलकिट’मामले में दिशा रवि को जमानत दे दी थी। इसी तरह काॅमेडियन मुनव्वर फारूकी, किसान आंदोलन की एक्टिविस्ट नौदीप कौर तथा केरल के पत्रकार सिद्दीक कप्पन के खिलाफ राजद्रोह के आरोपो को सर्वोच्च अदालत ने सही नहीं माना। सुप्रीम कोर्ट के इन फैसलों से प्रसन्न कांग्रेस नेता पी. चिदम्बरम ने तो इसे देश में ‘दूसरे स्वतंत्रता संग्राम के शंखनाद’ की संज्ञा दे डाली। ध्यान रहे कि अर्णब गोस्वामी को जमानत देते हुए शीर्ष अदालत ने टिप्पणी की थी कि “अगर एक दिन के लिए भी आजादी का अपहरण कर लिया जाए तो वह एक दिन बहुत सारे दिनों के बराबर होता है।
‘कोर्ट के इन फैसलों के बाद वरिष्ठ पत्रकार तवलीन सिंह ने कहा कि वक्त आ गया है, जब राजद्रोह कानून को कूड़ेदान में फेंक दिया जाना चाहिए।‘ तवलीनसिंह का आशय था कि देश में राजद्रोह कानून का इस्तेमाल राजनीतिक विरोधियों को निपटाने के लिए हो रहा है। वैसे यह भी सच है की जिस देश में किसी महिला से बलात्कार की रिपोर्ट बड़ी मुश्किल से लिखी जाती हो, वहां पुलिस किसी के भी खिलाफ राजद्रोह का मुकदमा आनन-फानन में कायम कर लेती है। राजद्रोह अत्यंत गंभीर अपराध है। लेकिन सरकार और व्यवस्था के खिलाफ कोई भी बयान या काम दंडनीय भले हो, राजद्रोह कैसे हो सकता है? यह बात सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में रेखांकित की है।
दूसरा महत्वपूर्ण मामला यूके की अदालत का है। पंजाब नेशनल बैंक को 14 हजार करोड़ रू. से ज्यादा का चूना लगाने वाले भगोड़े नीरव मोदी के भारत प्रत्यर्पण को लंदन की एक अदालत ने हाल में मंजूरी दी है। हालांकि इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि नीरव तुरंत भारत के कब्जे में होगा। अभी उसके बचने के कई कानूनी रास्ते खुले हुए हैं, जिसे बंद करने का काम भारतीय जांच एजेंसियों को करना होगा। फिर भी सीमित अर्थ में यह भारतीय एजेंसियों की महत्वपूर्ण सफलता मानी जा सकती है। इसी नीरव मोदी के समर्थन में इस देश के दो रिटायर्ड न्यायाधीश खड़े हैं।
इनमें से एक हैं सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश और अपने विवादित विचारों के लिए चर्चित मार्कंडेय काटजू। काटजू ने पिछले दिनो कहा था कि भारत में नीरव की निष्पक्ष सुनवाई नहीं होगी क्योंकि न्यायपालिका में ज्यादातर लोग भ्रष्ट हैं। इसके बाद भारत सरकार की ओर से बहस करते हुए यूके की क्राउन प्रॉसिक्यूशन सर्विस ने काटजू के लिखित और मौखिक दावों का प्रतिरोध किया था। बैरिस्टर हेलन मैल्कम ने कहा था कि काटजू एक आत्म प्रचारक हैं, जो मीडिया को सुर्खियां देने के लिए कोई भी अपमानजनक बयान देंगे। ब्रिटिश अदालत में जज सैमुअल गूजी ने काटजू की दलीलों को खारिज करते हुए कहा था कि ये दलीलें भरोसे लायक नहीं हैं। काटजू का तर्क था कि ( नीरव मोदी मामले में) भारतीय जजों ने राजनीतिक रूप से अनुकूल आदेश जारी किए हैं।
काटजू के बयानों में आंशिक सच्चाई हो सकती है, लेकिन पूरी न्यायपालिका को ही इसके लपेटे में लेना दुराग्रह ज्यादा लगता है। और फिर नीरव मोदी न कोई क्रांतिकारी है और न ही सच्चाई का पुतला। वह बेहद गंभीर आर्थिक अपराधों का आरोपी है। अगर वह निर्दोष ही होता तो परदेश की गली-गली की खाक न छानता। सरकार की गलती यह है कि उसने नीरव को भागने दिया। उधर काटजू के बयान पर एक वकील अलख आलोक श्रीवास्तव ने भारत के एटाॅर्नी जनरल के के वेणुगोपाल को चिट्ठी लिखकर जस्टिस काटजू के खिलाफ आपराधिक अवमानना की कार्यवाही शुरू करने पर मंजूरी मांगी है। इस पर आगे क्या होता है, देखना है। वैसे भी जस्टिस काटजू अपने विवादित बयानों के कारण सुर्खियों में बने रहते हैं।
पिछले दिनो उन्होंने महात्मा गांधी को ‘ब्रिटिश’ और नेताजी सुभाषचंद्र बोस को ‘जापानी एजेंट’ बता दिया
था, जिस पर संसद के दोनो सदनों ने उनके खिलाफ निंदा प्रस्ताव पारित किया था। उससे बचने के लिए भी काटजू उसी अदालत की शरण में गए थे, जिसे वो ‘राजनीति के अनुकूल’ फैसले देने का आरोप लगाते रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने संसद के निंदा प्रस्ताव पर रोक लगाने से इंकार कर दिया ।
एक और मुंबई हाई कोर्ट के रिटायर्ड जज और कांग्रेस सदस्य अभय ठिप्से हैं। अभय रिटायर होने के बाद न्यायिक कंसलटेंसी करते हैं। वो अदालत में नीरव मोदी के पक्ष में खड़े हुए थे। उन्होंने भारत सरकार द्वारा नीरव मोदी के पत्यर्पण की अर्जी को चुनौती दी थी। लेकिन यूके की अदालत ने उसे खारिज कर दिया ।
यहां दलील दी जा सकती है कि जब फारूख अब्दुल्ला, दिशा रवि या दूसरे लोगों को अपनी बात कहने का हक है तो दो रिटायर्ड जजो को भगोड़े नीरव का बचाव करने का भी हक है। नीरव के मामले में उनकी राय बाकी देश और सत्ता की राय से अलग हो सकती है। लोकतांत्रिक न्याय व्यवस्था भी यही कहती है कि आरोपी को अपना पक्ष रखने अथवा किसी और को उसकी पैरवी करने का अधिकार है। लेकिन केवल नीरव को न्याय दिलाना ही जस्टिस काटजू और जस्टिस ठिप्से का उद्देश्य होता तो बात अलग थी। समझना कठिन है कि ‘एक मोदी से नफरत और दूसरे मोदी से मोहब्बत’ का यह गणित क्या है?
नीरव के पक्ष में यह लड़ाई नैसर्गिक न्याय के आग्रह से ज्यादा सुर्खियों मे बने रहने की जिद ज्यादा लगती है। और फिर जस्टिस ठिप्से ने तो बाकायदा कंसल्टेंसी ही खोल रखी है। इसमे संदेह नहीं कि भारत में तमाम सम्पत्तियों को जब्त करने के बाद भी नीरव के पास अभी भी इतना पैसा है कि वह अपने बचाव में किसी को भी खड़ा कर सकता है। जाहिर है कि नीरव की यह पैरवी कानूनी मदद के हिसाब से भले ठीक हो, जनता में सही संदेश नहीं देती। बहरहाल अदालतो ने उन अतार्किक और तथाकथि त जनहिच याचिकाओं को खारिज कर उचित ही किया है। हमारी न्याय व्यवस्था पूरी तरह दोषरहित है, इस मान्यता पर सवालिया निशान हो तो भी अदालतों को इंसाफ के रास्ते से भटकाने की कोशिशों को भाव तो नहीं ही दिया जाना चाहिए।
वरिष्ठ संपादक
अजय बोकिल